“अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम। दास मलूका कह गये, सबके दाता राम॥”
दास मलूका को देखा नहीं, वर्ना यह कामना उनसे करता कि राम जी की कृपा दिला कर परमानेण्ट पेंशन की व्यवस्था करा दें। कोल्हू के बैल की तरह न खटना पड़े। डा. अमर कुमार को यह कष्ट है कि कैसे मैं सवेरे पांच बजे पोस्ट पब्लिश कर देता हूं। उसके लिये अजगर वृत्ति अपनाऊं, तो काम ही न चले।
तीन-चार पोस्टें शिड्यूल कर रखी होती हैं। शाम के समय कल सवेरे पब्लिश होने जा रही पोस्ट को अन्तिम रूप से यह देखता हूं कि कोई परिवर्तन की आवश्यकता तो नहीं है। सारे परिवर्तन करने के बाद सोने जाता हूं। और सोने से पहले मेरे गाड़ी नियंत्रण कक्ष का उप मुख्य गाड़ी नियंत्रक यह बताता है कि कोयला, स्टील, सीमेण्ट और खाद आदि के लदान के लिये विभिन्न दिशाओं में जो रेक दौड़ रहे हैं, उनका मेरे जोन से नियोजन अनुसार बाहर जाना तय है या नहीं। अगर नहीं, तो कुछ वैकल्पिक निर्णय ले कर सोने जाता हूं।
सवेरे भी साढ़े पांच बजे से इण्टरनेट पर अवलोकन प्रारम्भ हो जाता है। रेलवे की साइट ट्रेन रनिंग से सम्बद्ध वेब पन्ने हर ५-१० मिनट में निकालने लगती है। उनको देख कर नये दिन का रेल परिचालन का खाका मन में बनने लगता है। इनके बीच में गूगल रीडर पर हिन्दी ब्लॉग्स का अवलोकन और टिप्पणियां करना और अपने पोस्ट पर आयी टिप्पणियों का मॉडरेशन प्रारम्भ हो जाता है। लगभग ड़ेढ़ घण्टे बाद गतिविधियां और सघन हो जाती हैं। तब दफ्तर जाने के रास्ते में भी फोन पर सूचनाओं और निर्णयों का आदान-प्रदान चलता है। दिन के बारह बजे कुछ सांस मिलती है। यह नित्य की दिनचर्या है। सप्ताहांत में ही कुछ समय थमता है।
| अब यह कोल्हू का बैल होना नहीं है तो क्या है? आप कह सकते हैं कि जब काम इतना है तो ब्लॉगिंग की क्या जरूरत? पर सवाल इसका उलट होना चाहिये – जब ब्लॉगिंग इतना रोचक और क्रियेटिव है तो काम में पिसने की क्या जरूरत? |
असल में हमारे पास संचार के ऐसे साधन हो गये हैं कि घर के एक कोने में बैठ कर वह सब काम हो सकता है, जो मैं करता हूं। दफ्तर जाना मन मौज पर निर्भर होना चाहिये। कुछ ऐसे काम हैं जो दफ्तर में ही हो सकते हैं; पर वे केवल डेढ़ दो घण्टे मांगते हैं। कुछ लोगों से मिलना होता है – पर वह काम कॉफी हाउस में एक दोसा-कॉफी के साथ भी हो सकता है। लेकिन हमारी सामुहिक सोच बदल कर यह सब शायद ही मूर्त रूप ले पाये।
दफ्तर नाम के स्थल का विघटन या पुनर्व्यवस्थापन जरूरी है – बेहतर संचार और सूचना तकनीक के युग में। इससे यात्रा की जरूरतें भी कम होंगी और लोग कोल्हू का बैल बनने से भी बच जायेंगे। प्राइवेट सेक्टर में यह बदलाव शायद होने लगा हो। पर सरकारी क्षेत्र में तो इसकी सुगबुगाहट भी नहीं है।
अजगर और पंछी काम के कन्वेंशनल अर्थ में काम भले न करते हों, पर प्रकृति उनसे पूरा काम ले कर ही उनका पेट भरती/संवर्धन करती है। ऐसा मेरा मानना है।

काम करने को तो दिल नही करता, चाहता हु सारा दिन आराम करु, लेकिन मकान का किराया, बच्चो की मांगे, कार के खर्च, खाने के लिये पेसे. बिजली का बिल,टेलीफ़ोन का बिल कहा से दुगां, मां की देख भाल,भारत आने जाने का खर्च,अजी कोल्हू का बैल नही तो ओर कया हुया,आप की लेखनी मे मेरी थकी हुई आंखे खोल दी,ओर आप की बात सए माथे पर** अटकॊ मत, चलते चलॊ
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kaash mera kaam bhi office jaye bina chal pata to kitna maza aata…shayad blogging ke liye kuch aur wakt mil pata.
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अब काम से थकन होना भी स्वाभाविक है जैसे जैसे समय बीतता जाता है “रुटीन” ऐसा भाव लाता ही है -This is a human being’s dilemma.
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सबकी अपनी-अपनी पीड़ा है। दास मलूका को संचार क्रांति का सुख/दु:ख नहीं भोगना पड़ा वरना उनका दोहा कुछ और ही होता। असल बात तो वही है कि दफ़्तर का पुन्व्यर्वस्थापन ज़रूरी है। इसका अर्थ कदापि यह नहीं कि हर आदमी घर पर बैठकर काम करने की सुविधा पा जाएगा। इस क्रांति को किस हद तक सुविधा बनाया जाए और किस हद तक ज़रूरत यह तो खैर हमें तय करना है। वैसे भारतीय कुछ ज़्यादा ही “touch” में रहने वाले प्राणी हैं यह बात मुझे अंग्रेज़ों के साथ काम करके पता चली। योरिपियन लोग जब आफ़िस में नहीं होते तो उनतक पहुंचना कठिन होता है और अगर किसी वजह से आपको उनसे बात करने का मौका मिल भी जाता है तो जिसने फ़ोन किया होगा वह हर वाक्य के अंत में उससे माफ़ी मांगेगा उसके आराम में व्यवधान डालने के लिये। लगता है भारतीय कुछ ज़्यादा ही आधुनिक हो गए हैं या शायद यह आई टी और बी पी ओ जैसी सेवाएं तय करती हैं कि हम भारतीय हमेशा उपलब्ध रहें।
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तकनीकी सुविधाओं का सब का बड़ा अपना निजि अनुभव रहता है। हम कामना करते हैं कि घर बैठे बच्चों को पढ़ा सकें , जैसे जमीन के दाम बड़ते जा रहे हैं और यातायात ठ्प्प पड़ रहा है,शायद वो दिन दूर भी नहीं । पर हमारे पतिदेव से पूछिए, उनका बस चले तो मोबाइल भी फ़ेंक दें और दफ़्तर में सारा दिन पी सी के आगे बैठे रहने के बाद घर पर तो पी सी की तरफ़ आख उठा कर भी नहीं देखते। हां काम ड्रजरी से बचा जा सके ये तो मेरे ख्याल से हम सभी चाहते हैं
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प्राइवेट सेक्टर में यह सम्भव है… कई दिन मैं ऑफिस १ घंटे के लिए भी आता हूँ, बस आपकी जो जिम्मेवारी है कर दीजिये बाकी किसी को कोई मतलब नहीं. पर घर से काम करना अभी तक शुरू नहीं किया है… सोचता हूँ काफ़ी अव्यवस्थित हो जाऊँगा, अभी कम से कम कुछ कामो को करने के लिए एक समय सारणी तो है.. और घर से काम करने का एक घाटा और भी है… अभी ऑफिस से निकलने के बाद सब भूल जाता हूँ, और सप्ताहांत पर तो सारी मोह-माया छोड़ देता हूँ, इन्टरनेट से भी दूर, कोशिश करता हूँ ऐसे जगहों पर चले जाने की जहाँ मोबाइल में सिग्नल तक न आता हो. अगर घर से काम करने लगा तो ये सब समाप्त हो जायेगा.
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सब का अनुभव एक समान नहीं होता।कुछ लोगों के लिए तो आजकल संचार क्रान्ती शाप साबित हुई है।पाँच साल पहले मैं अपना खुद का यह KPO व्यवसाय में लग गया था।घर से केवल एक किलोमीटर दूर, दफ़्तर के लिए करीब ११०० वर्ग फ़ुट जगह किराये पर मिल गई। दो साल बाद मकान मालिक ने दफ़्तर का किराया बहुत ज्यादा बढ़ाना चाहा। मैं राजी नहीं हुआ। जगह खाली करनी पड़ी। इस बीच दो साल में हमारे इलाके में किराया इतना ज्यादा हो गया था (ऊपर से १० महीने का किराया एडवान्स देना पढ़ता है) कि मेरे लिए घर के पास ही दफ़्तर के लिए जगह किराये पर लेना असंभव हो गया। खूब सोचकर अपनी पत्नि को किसी तरह मनाकर, अपने घर में ही अपना कार्यालय बना लिया। २००० वर्ग फ़ुट का मेरा अपना ही मकान है जिसमें पिछले २४ साल से रह रहा हूँ। आजकल हम पति पत्नि अकेले हैं (लड़की ब्याहकर USA चली गयी, और लड़का भी UK में पढ़ाइ कर रहा है) और हमें इतनी जगह की आवश्यकता भी नहीं। मेरे अपने मकान में हम नीचे रहने लगे और ऊपर कुछ पैसे खर्च करके और कुछ बदलाव करके अपना कार्यालय बना लिया। सोचा यह अच्छा, सुविधाजनक और किफ़ायती प्रबन्ध साबित होगा। नहीं जी। कुछ ही दिनों बाद हमें महसूस हुआ की कार्यालय और घर अलग होनी चाहिए। घर की बात घर में रहनी चाहिए, और दफ़्तर की बातें और मामले दफ़्तर में ही निपट लेना चाहिए। इस प्रबन्ध से हमारी परेशानियाँ और भी बढ़ने लगी खासकर मेरी पत्नि लिए और रिशतेदारों और दोस्तों के लिए। मेरे कई मित्र भी हैं जो किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के लिए काम करते हैं और रोज एक भारी लैपटॉप उठाकर घूमते फ़िरते हैं और वे भी सहमत हैं मुझसे। कहते हैं कि अच्छा हुआ हमारे जमाने में लैपटॉप और मोबाइल वगैरह नहीं थे और हम दफ़्तर से थके थके जब घर आते थे तो कम से कम घर में परिवार के साथ खुशी, चैन और आराम से समय बिता सकते थे और दफ़्तर की बातों को भूल सकते थे। लेकिन आजकल ये लोग इतना व्यस्त रहते हैं कि वे मोबाईल फ़ोन से भी चिढ़ने लगे हैं और फ़ोन बन्द रखना उनके लिए वर्जित है। कहते हैं के इस संचार क्रान्ती के कारण उनके लिए घर/परिवार और दफ़्तर/कैरीयर के बीच जो रेखा थी वह धुन्धली होती जा रही है और उनपर और उनके परिवार के सदस्यों पर इसका बुरा असर होने लगा है।मेरा भी यह “एक्स्पेरिमेंट” कामयाब नहीं हुआ। पाँच महीने के बाद हमने एक फ़्लैट में अपना घर बना लिया। अब चैन है कम से कम मेरी पत्नि के लिए। लेकिन हम तो ई मेल और conference calls से परेशान हो जाते हैं जो बेवक्त आती या चलती हैं इस धन्धे में। लेकिन इसका कोई इलाज नहीं। पापी पेट का सवाल है। रोजी रोटी के लिए इसे झेलना ही होगा। मेरी दिनचर्या आजकल इस प्रकार है।सुबह और शाम बहुत ही व्यस्त रहता हूँ। सुबह सुबह ६ बजे Coffee के साथ, हमें अखबार पढ़ने का शौक था लेकिन आजकल तो देश की हालत के बजाय यह जानना चाहता हूँ कि आज सुबह सुबह पाँच बजे हमारे नये मित्र ज्ञानजी का मन किस हलचल से पीडित हैं और छपते छपते उडन तशतरी जी ने टपाक से कौनसी inaugural टिप्पणी भेजी है। ब्लॉग और टिप्पणी पढ़ने के बाद उँगलियों में जोरदार खुजली होने लगती है जो तत्कल टिप्पणी टाइप करने पर ही मिटेगी लेकिन किसी तरह अपने आप पर अंकुश लगाकर, अपने दफ़्तर के काम के ई मेल का अवलोकन करने में लग जाता हूँ और काम के सिलसिले में भारी भरकम tif, dwg, pdf, zip या jpg फ़ाइलों का downloading कर लेता हूँ ताकि दफ़्तर में मेरे कर्मचारियों का समय इस पर नष्ट न हो। सुबह सुबह अन्तर्जाल की गति भी बहुत तेज़ होती है और इन फ़ाईलों का बहुत जलदी download हो जाता है। बाद में, दिन में मेरे मातहत तो व्यस्त रहते हैं लेकिन मुझे उनके साथ बहस के बीच बीच में काफ़ी Time Slices मिल जाते हैं जिसे परिवार के लिए और निजी कामों कि लिए और ब्लॉग पढ़ने और टिप्पणी करने के लिए प्रयोग करता हूँ।शामको फ़िर व्यस्त हू जाता हूँ conference calls, ई मेल लिखने और भेजने में और file uploading करने में और कभी कभी तो कुर्सी से दो मिनट उठने की भी फ़ुर्सत नहीं मिलती। सात बजे के बाद कुछ राहत मिलती है लेकिन अपना net connection और सम्पर्क रात १० बजे तक जारी रखना पढ़ता है, overseas contacts की सुविधा के लिए। आजकल हर एक की हालत/परिस्थिती/अनुभव अलग होगी। यह था मेरा अपना अनुभव।जाते जाते:कल शाम को अनूप शुक्लाजी से पहली बार फ़ोन पर बात हुई थी।सुखद अनुभव था।शुभकामनाएं
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Sir.. please read out this blog.. http://rishabh-thought-mode.blogspot.com/2008/06/wfh-view.htmlIt is a very nice posting by my friend about WFH(Work From Home)..
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प्राईवेट क्षेत्र में विशेष बदलाव नहीं है..आज भी अपने आप को सिद्ध करते रहना पढता है…मैं स्टील सेक्टर की बात कर रहा हूँ… हाँ यदि आप विशेषज्ञ हैं किसी क्षेत्र में तो बहुत अधिक कुछ नहीं करना पढता…अगर आप ने अपनी एक टीम बना ली है तो… करीब तीस वर्षों की नौकरी के बाद आज मुझ पर काम का बोझ इतना नहीं है सिर्फ़ दिशा निर्देश देने होते हैं वो भी हमेशा नहीं…बस आ कर सरसरी तौर पर सब ठीक चल रहा है येही देखना होता है…हाँ जो मातहत हैं और अपने जीवन के तीसवें या चालीसवें वर्ष में हैं उनके लिए जीवन इतना आसन नहीं है..टारगेट का प्रेशर हर दिन रहता है…नीरज पुनःश्च: मेरी मानिए एक आध हफ्ते के लिए खोपोली चले आयीये…सारे तनाव छू मंतर हो जायेंगे…
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