घुन्नन


उस दिन दफ्तर में व्यस्त था। सवेरे का समय। सोमवार। कई फोन और कई मसले। इग्यारह बजे का टार्गेट। इस बीच अधेड़ उम्र का एक अर्ध शहरी व्यक्ति मेरे कमरे में आया। मेरा चपरासी शरीफ छाप है – किसी बाहरी को रोक नहीं पाता।

वह व्यक्ति खड़े खड़े बोला – “पहिचान्यै हमें?”

My Villageside Fields पिछले हफ्ते मेरे गांव के पास के स्टेशन से गुजर रही थी मेरी ट्रेन। मैं देख रहा था कि एक सप्ताह से ज्यादा गुजर गया है जुलाई का। बारिश नहीं हुई। खेतों में फसल दिख ही नहीं रही। क्या सूखा पड़ेगा? मेरे गांव में कैसी बेचैनी होगी इसे ले कर?

मेरे असमंजस को देख खुद ही बोला – “घुन्नन”!

यह ऐसा नाम है जो मुझे तुरन्त बचपन में ले गया। गांव मे स्कूल जाते समय घुन्नन का साथ रहता था। मुझसे एक दर्जा आगे रहा होगा वह। अब जोर देने पर भी तस्वीर नहीं आती दिमाग में। पर नाम ऐसा है जो तुरन्त क्लिक करता है।

हमारे घर के पास उसका घर था। उसके पिताजी थे लुद्धुर। मुझे उनका वास्तविक नाम नहीं याद। घुन्नन का वास्तविक नाम भी नहीं याद। ब्राह्मणों का गांव है तो कोई पांड़े/सुकुल/मिसिर ही होंगे।

कुर्सी में फोन के साथ धंसा न होता तो उठकर “बीयर हग” में लेता बचपन के सखा को। पर मैं उठ न पाया। घुन्नन अपने रिजर्वेशन की डीटेल्स मेरे सहायक को दे कर चला गया। शायद वह जल्दी में था। कोई सम्पर्क नम्बर भी नहीं है मेरे पास कि बात कर सकूं। काम से निपट कर मैने केवल यह किया कि सहेज कर उसके रिजर्वेशन के लिये सम्बन्धित अधिकारी से स्वयं बात की।

पास में ही मेरा गांव है – चालीस किलोमीटर दूर। वहां जाता नहीं – घर का कोई रहता नहीं। घर भी जीर्णावस्था में है। घुन्नन से मिलना होगा, कह नहीं सकता।

Bonsai1 चार, साढ़े चार दशक और हम अजनबीयत के कगार पर पंहुच गये हैं। मैं अपने बचपन के सहपाठियों को न पहचान पाऊंगा। अपने खेत चीन्हना भी कठिन होगा। अपनी बारी (बगीचे) के आम के वृक्षों के नाम और स्वाद भी री-कैप करने में जद्दोजहद करनी पड़ेगी। महुआ के पेंड़ तो याद भी नहीं किस ओर हैं। 

वापस लौटना, अपने गांव-खेत पर लौटना, अपनी जड़ों पर लौटना क्या हो पायेगा?! बौने बोंसाई की तरह जीने को अभिशप्त हो गये हैं हम!

हां, घुन्नन तुम्हें तुम्हारे नाम से चीन्हता हूं।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

33 thoughts on “घुन्नन

  1. आपने गाँव से जुड़ा रहना इतना आसान नहीं है। बहुत समय, धैर्य और प्रबन्धन कौशल की आवश्यकता है। सबके साथ रुचि का होना भी आवश्यक है। यह सब जुगाड़ हो जाने पर जब गाँव पहुँच जाता हूँ तो बहुत कुछ सहेजने का मन करता है। पर लाख कोशिश के बावजूद सहेज नहीं पाता। लेकिन अब गाँव भी तेजी से बदल रहे हैं। अब बाग-बग‍इचा कम हो रहे हैं, व्यापार अधिक बढ़ गया है।

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  2. इत्ती सी जिन्दगी और इत्ते सारे नाम, कैसे याद रखेंगे भला! जभी तो संतजन एक ही नाम की आसान कुंजी बना गए हैं – भज मन राम नाम…इत्यादि.

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  3. सभी के घुन्नन गुम हो गये हैं. आप खुशकिस्मत हैं कि कम से कम वो तो जानता है कि आप कहाँ हैं.

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  4. वाह, मन खुश हो गया, एक दिन हम भी बैठे पुराने स्कूल के साथियों को याद कर रहे थे, कुछ याद रहे कुछ भूल गए| काश हमारे स्कूलों में भी अमरीका की तरह १०/२०/३०/४० वार्षिक (पहले साली लिखने वाले थे) री-यूनियन होती| लेकिन कहाँ जा पाते, जब न अपने बी टेक की डिग्री समारोह में जा सके न एम्. ई. वाली में|नाम भी केवल वही दिमाग में आते हैं जिनके साथ किस्से जुड़े हुए हैं या जिनके विशुद्ध रोचक निक-नेम थे, अनाकोंडा, शेषनाग, मऊ, रोबोट, इत्यादि इत्यादि| आपका गाँव को ४० किमी पर ही है, कभी भी चले जाइए, बढ़िया यादें जुडेंगी|

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  5. हमारा आग्रह है कि घुन्नन जी से मिलें जरूर ,हो सके तो अपने गाँव भी हो आयें . जाकर तो देखिए .( पोस्ट पढ़कर अनायास ही प्रेमचन्द की कहानी 'गुल्ली-डण्डा' की याद आ जाती है )

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