सपाटा और सन्नाटा

Flat ज्ञाता कहते हैं कि विश्व सपाट हो गया है। न केवल सपाट हो गया है अपितु सिकुड़ भी गया है। सूचना और विचारों का आदान प्रदान सरलतम स्थिति में पहुँच गया है। अब सबके पास वह सब कुछ उपलब्ध है जिससे वह कुछ भी बन सकता है। जहाँ हमारी सोच को विविधता दी नयी दिशाओं मे बढ़ने के लिये वहीं सभी को समान अवसर दिया अपनी प्रतिभा को प्रदर्शित करने का। अब निश्चय यह नहीं करना है कि क्या करें अपितु यह है कि क्या न करें। यह सोचकर बहुत से दुनिया के मेले में पहुँचने लगते हैं।

praveen यह पोस्ट श्री प्रवीण पाण्डेय की बुधवासरीय अतिथि पोस्ट है।

दंगल लगा है, बड़े पहलवान को उस्ताद रिंग में चारों ओर घुमा रहा है। इनाम बहुत है। हर बार यह लगता है कि कुश्तिया लेते हैं। इस सपाटियत में हमारा भी तो मौका बनता है। आँखों में अपने अपने हिस्से का विश्व दिखायी पड़ता है। पहलवान कई लोगों को पटक चुका है फिर भी बार बार लगता है कि अपने हाथों इसका उद्धार लिखा है।

सबको नया विश्व रचने के उत्तरदायित्व का कर्तव्यबोध कराती है आधुनिकता।

सब लोग मिलकर जो विश्व रच रहे हैं, वह बन कैसा रहा है और अन्ततः बनेगा कैसा?

जितना अधिक सोचता हूँ इस बारे में, उतना ही सन्नाटा पसर जाता है चिन्तन में। सबको अमेरिका बनना है और अमेरिका क्या बनेगा किसी को पता नहीं। प्रकृति-गाय को दुहते दुहते रक्त छलक आया है और शोधपत्र इस बात पर लिखे जा रहे हैं लाल रंग के दूध में कितने विटामिन हैं? सुख की परिभाषा परिवार और समाज से विलग व्यक्तिगत हो गयी है। सपाट विश्व में अमीरी गरीबी की बड़ी बड़ी खाईयाँ क्यों हैं और उँचाई पर बैठकर आँसू भर बहा देने से क्या वे भर जायेंगी? प्रश्न बहुत हैं आपके भी और मेरे भी पर उत्तर के नाम पर यदि कुछ सुनायी पड़ता है तो मात्र सन्नाटा!

आधुनिकता से कोई बैर नहीं है पर घर की सफाई में घर का सोना नहीं फेंका जाता है। विचार करें कि आधुनिकता के प्रवाह में क्या कुछ बह गया है हमारा?


श्री प्रवीण पाण्डेय के इतने बढ़िया लिखने पर मैं क्या कहूं? मैं तो पॉल ब्रण्टन की पुस्तक से अनुदित करता हूं –

 

एक बार मैने भारतीय लोगों की भौतिकता के विकास के प्रति लापरवाही को ले कर आलोचना की तो रमण महर्षि ने बड़ी बेबाकी से उसे स्वीकार किया।

“यह सही है कि हम पुरातनपन्थी हैं। हम लोगों की जरूरतें बहुत कम हैं। हमारे समाज को सुधार की जरूरत है, पर हम लोग पश्चिम की अपेक्षा बहुत कम चीजों में ही संतुष्ट हैं। सो, पिछड़े होने का अर्थ यह नहीं है कि हम कम प्रसन्न हैं।”

रमण महर्षि ने यह आज से अस्सी वर्ष पहले कहा होगा। आज रमण महर्षि होते तो यही कहते? शायद हां। पर शायद नहीं। पर आधुनिकता के बड़े पहलवान से कुश्ती करने और जीतने के लिये जरूरी है कि अपनी जरूरतें कम कर अपने को ज्यादा छरहरा बनाया जाये!

प्रवीण अपने नये सरकारी असाइनमेंण्ट पर दक्षिण-पश्चिम रेलवे, हुबली जा रहे हैं। यात्रा में होंगे। उन्हें शुभकामनायें।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

15 thoughts on “सपाटा और सन्नाटा

  1. " सुख की परिभाषा परिवार और समाज से विलग व्यक्तिगत हो गयी है। सपाट विश्व में अमीरी गरीबी की बड़ी बड़ी खाईयाँ क्यों हैं और उँचाई पर बैठकर आँसू भर बहा देने से क्या वे भर जायेंगी?"इसी गुथी को सुलझाने में रूस के टुकडे़ हो गये:) हमारे वामपंथी भी तीसरे मोर्चे से भारत को सपाट करना चाह रहे हैं:)

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  2. आधुनिकता से कोई बैर नहीं है पर घर की सफाई में घर का सोना नहीं फेंका जाता है। विचार करें कि आधुनिकता के प्रवाह में क्या कुछ बह गया है हमारा?आप की इस बात से सहमत है… ओर आज हम यही तो कर रहे है… दुनिया भरका कुडा भर रहे है घर मै, ओर अपना खरा सोना फ़ेंक रहे है…

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  3. कहते है वर्ल्ड भी री साकइल हो रहा है …..विदेशी यहां मन की शांति के लिए हरिद्वार ओर बनारस की सडको पे घूम रहे है …जर्मन ओर यूरोप में बाबा रामदेव धूम मचा रहे है .लोग शाकाहारी हो रहे है…..सो भारतीय भी …मेक्डोनाल्ड में तृप्त होना चाह रहे है

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  4. पूर्णतया निरुत्तर कर देने वाला आलेख.. वाकई दौड़ में शामिल तो सभी होना चाहते हैं पर जीत की मंजिल कहाँ पर है ये कोई भी नहीं जानता.

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  5. सच,हम लोग खुशी के चक्कर मे दुध को लाल कर चुके है। छोटी-मोटी खुशियों का तो अब जैसे कोई अस्तित्व ही नही बड़ी खुशी चाहिये वो भी रोज़-रोज़,बच्चे भी रोज़ आईसक्रीम या चाकलेट खाने पर खुश नही होते कोई न कोई नई फ़रमाईश कर देते हैं जैसे हम रोज़ नई उपलब्धी की तलाश मे घर का सोना बाहर फ़ेंक रहे हैं।पता नही कब हम थकेंगे खुशी वो नितांत व्यक्तिगत,के पीछे भागते-भागते।शाय्द त्ब हमे पता चलेगा महर्षी रमण ठीक ही कहते थे।प्रवीण जी की यात्रा सुखद हो और नया असाइनमेंट उन्हे नई उपलब्धी दे,अमरीका जैसी नही,शुद्ध देसी।

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  6. विवेकानन्द ने एक बार कहा था कि विश्व के हर देश की मानव सभ्यता को एक विशिष्ट देयता बनती है। भारत के पल्ले धर्म आता है। धर्म मतलब वह नहीं जिसका गायन हिन्दी ब्लॉगिंग में 'किराना' घराना करता है। व्यापक अर्थ लें।…कोई आवश्यक नहीं कि हम सभी पहलवानों को पटक ही दें या उसके लिए मेहनत बनाते समय गँवाते रहें। दूसरों से शुभ ग्रहण करें और अपनी स्वाभाविक शक्ति को विकसित करें। नम्बर 1 तो एक ही होता है लेकिन विशिष्ट औए श्रेष्ठ तो कई हो सकते हैं। मानव समाज में प्लूरेलिटी की बात देशों के लिए भी लागू होती है। दायित्त्व यही है कि हम अपना सर्वश्रेष्ठ विकसित करें, बस!.. माइक्रोसॉफ्ट कितनी भी मेहनत कर ले, उसमें वह बात नहीं आ सकती जो एपल में है। एपल कितनी भी दण्ड बैठक कर ले, उसका मार्केट शेयर माइक्रोसॉफ्ट जितना नहीं हो सकता लेकिन हैं तो दोनों श्रेष्ठ ही न !

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  7. "सबको नया विश्व रचने के उत्तरदायित्व का कर्तव्यबोध कराती है आधुनिकता।"फिर प्रवीण जी एक सामूहिक जिम्मेदारी की तरफ भी सचेत करते हैं कि सजग रहना होगा आखिर जैसा भी हम विश्व गढ़ना चाहते हैं….ज्ञानदत्त जी, प्रवीण जी कहाँ मिले आपको, हर हफ्ते नवीन और मूल विचार रखते हैं, प्रवीण जी को बधाइयाँ और आभार….

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  8. अमेरिका की तरह बहुत विशाल और बृहद होकर सब पर प्रभाव रखने की लालसा भी ठीक नहीं है। उस कहानी की तरह, जिसमें, एक बहुत विशाल राक्षस लोगों को परेशान करता रहता है। लोग डरे सहमें रहते हैं, कि अपने नन्हे हाथों से उसका मुकाबला कैसे करें ? तभी किसी ने सलाह दी कि हम नन्हें-छोटे हैं तो क्या हुआ….राक्षस का विशाल आकार हमारे लिये प्लस प्वाईंट है। उसके विशाल आकार के कारण हम जो भी पत्थर मारेंगे उसे जरूर लगेगा। और यही अमेरिका के साथ हो रहा है। वह इतना ज्यादा प्रभाव चारों ओर फैला चुका है कि कहीं से भी उस पर हमला किया जा सकता है…कभी तालिबान की शक्ल मे, कभी चीनी कॉन्सेप्ट की शक्ल में तो कभी 'मंदी की सहेली' के शक्ल में… यहां मैं अमेरिका को यदि मुंबई मान लूँ…भारत को एक गाँव….तो उस तुलना में गाँव कुछ ज्यादा ही आकर्षक लगेगा, क्योंकि वहां मुंबई जैसी भागादौडी नही रहती…. छुटपन की भी अपनी खासियत होती है जिसे नकारा नहीं जा सकता।

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  9. सब लोग मिलकर जो विश्व रच रहे हैं, वह बन कैसा रहा है और अन्ततः बनेगा कैसा?वैसा ही होगा जैसे हम है, आप हिन्दी ब्लाग्स को देखे… अन्य भासायी ब्लाग भी आ रहे है…सवाल उठ्ता है क्या हम यहा भी अपने को बाट रहे है..सबको अमेरिका बनना है और अमेरिका क्या बनेगा किसी को पता नहीं। प्रकृति-गाय को दुहते दुहते रक्त छलक आया है और शोधपत्र इस बात पर लिखे जा रहे हैं लाल रंग के दूध में कितने विटामिन हैं? सुख की परिभाषा परिवार और समाज से विलग व्यक्तिगत हो गयी है। सपाट विश्व में अमीरी गरीबी की बड़ी बड़ी खाईयाँ क्यों हैं और उँचाई पर बैठकर आँसू भर बहा देने से क्या वे भर जायेंगी? प्रश्न बहुत हैं आपके भी और मेरे भी पर उत्तर के नाम पर यदि कुछ सुनायी पड़ता है तो मात्र सन्नाटा!हमे अपनी चीजो को बचाने की जरूरत है..वाराणसी को वाराणसी ही रखना है, उसे न्यूयार्क नही बनाना है… हम क्यू नही देखते कि विदेशी इन घाटो पर वो लेने आते है जो उन्हे न्यूयार्क भी नही दे पाता…हमे फिर से पुरानी अच्छी चीज़ो को उठाना है…. हमे फिर एक शिश्य से गुरु को गुरुदखिना दिलवानी है.. हमे फिर गुरू को वही सम्मान देना है, सिहासन छोड देना है उनके लिये..वही अगले भारत के लिये अच्छे नागरिक बना सकते है..॥

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