जो दिखता हूँ, वह लिखता हूँ

प्रवीण पाण्डेय से उनकी पिछली पोस्ट स्ट्रीट चिल्ड्रन के बारे में पूछ लिया गया कि समारोह में मुख्य अतिथि बनने के अलावा आपका योगदान क्या रहा? इस बारे में प्रवीण पाण्डेय ने बहुत गहरे में सोचा। उसके बाद जो ई-मेल मुझे भेजी, वह अपने आप में महत्वपूर्ण पोस्ट है। मैं उस ई-मेल को जस का तस प्रस्तुत कर रहा हूं –


’ब्लॉगर और लेखक में यह अन्तर है! लेखक आदर्शवाद ठेल कर कट लेता है। ब्लॉगर से पाठक लप्प से पूछ लेता है – आदर्श बूंकना तो ठीक गुरू, असल में बताओ तुमने क्या किया? और ब्लॉगर डिफेन्सिव बनने लगता है।

एक तरीके से जिम्मेदार ब्लॉगर के लिये ठीक भी है। फिर वह आदर्श जीने का यत्न करने लगता है। उसका पर्सोना निखरने लगता है।

हम सभी किसी न किसी सीमा तक आदर्श जीते हैं। ड्यूअल पर्सनालिटी होती तो बेनामी नहीं बने रहते? और अगर यथा है, तथा लिखें तो ब्लॉगिंग भी एक तरह की वीरता है।’

 writing
लोग (पढ़ें ब्लॉगर) अगर कुछ भी बूंक देने की स्थिति में रहते हैं तो उनके लिये लिखना बेईमानी होगी। उन्हें, न लिखने में आनन्द आयेगा और न स्वलिखित पढ़ने में।

इस विषय पर आपकी उक्त टिप्पणी बहुत महत्व इसलिये रखती है क्योंकि लेखन को जीने का द्वन्द्व सभी के भीतर चलता है। यदि औरों के विचार हमारे जीवन को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं तो स्वयं का लेखन लेखक को प्रभावित क्यों नहीं कर सकता है। किसी विषय पर सोचना और लिखना सतही हो जायेगा यदि उस विषय को जिया नहीं जाये। लिखने के पहले मनःस्थिति तो वैसी बनानी पड़ेगी। उस विषय पर लिखने की प्रक्रिया हमें उस अनुभव से लेकर जायेगी। उड़ते बादलों, चहचहाते पक्षियों पर कविता करने के पहले आपकी मनःस्थिति वैसी उन्मुक्त होनी पड़ेगी। और जब भी वह कविता पढ़ेंगे आप के अन्दर वही उन्मुक्तता पुन: जागेगी। यह मुझे तो एक स्वाभाविक प्रक्रिया लगती है। यदि ऐसा नहीं है और लोग अगर कुछ भी बूंक देने की स्थिति में रहते हैं तो उनके लिये लिखना बेईमानी होगी। उन्हें, न लिखने में आनन्द आयेगा और न स्वलिखित पढ़ने में। उनके लिये तो लेखन का सारा श्रम व्यर्थ ही हुआ। स्वयं को किसी विषय वस्तु के साथ स्थापित करने के आभाव में कभी कभी कई सप्ताह बिना लिखे ही निकल जाते हैं। पर जब भी लिखा जाये वही लिखा जाये जो कि आप हैं।

विषय सदा ही विचारणीय रहा है कि लेखन काल्पनिक हो या यथार्थ? कवि या लेखक जो लिखते आये हैं, वह उनके व्यक्तित्व को दर्शाता है या मनोस्वादन के लिये लिखा गया है? अभिनेता और कवि/लेखक में अन्तर है। अभिनेता वह सब भी व्यक्त कर सकता है जो वह नहीं है। लेखक के लिये अभिनय कठिन है। निराला की पीड़ा ’सरोज स्मृति’ में यदि उतर कर आयी थी क्योंकि उन्होने वह पीड़ा वास्तविकता में जी थी। दिनकर के ’कुरुक्षेत्र’ का ओज उनके व्यक्तित्व में भी झलकता होगा । यह भी हो सकता है कि कुरुक्षेत्र लिखने के बाद उनका व्यक्तित्व और निखर आया हो।

यह पोस्ट श्री प्रवीण पाण्डेय की बुधवासरीय अतिथि पोस्ट है। प्रवीण बेंगळुरू रेल मण्डल के वरिष्ठ मण्डल वाणिज्य प्रबन्धक हैं।
और क्या जबरदस्त पोस्ट है। ब्लॉगर के कृतित्व/चरित्र को चुनौती देने पर कई ऐसे हैं जो गाली-लात-घूंसा ठेलते हैं; और कुछ प्रवीण जैसे हैं जो इतनी सुन्दर पोस्ट रचते हैं! मेरा वोट प्रवीण को!

ज्ञान बखानना आसान है, एक जगह से टीप कर दूसरी जगह चिपका दीजिये। मेरे लिये यह सम्भव नहीं है। मेरे लिये आयातित ज्ञान और कल्पनालोक का क्षेत्र, लेखनी की परिधि के बाहर है, कभी साथ नहीं देता है। यदि कुछ साथ देता है तो वह है स्वयं का अनुभव और जीवन। वह कैसे झुठलाया जायेगा?

एक कविता लिखी थी इसी भाव पर –

जो दिखता हूँ, वह लिखता हूँ

मैंने कविता के शब्दों से व्यक्तित्वों को पढ़ कर समझा।
छन्दों के तारतम्य, गति, लय से जीवन को गढ़ कर समझा।
यदि दूर दूर रह कर चलती, शब्दों और भावों की भाषा,
यदि नहीं प्रभावी हो पाती जीवन में कविता की आशा।
तो कविता मेरा हित करती या मैं कविता के हित का हूँ?
जो दिखता हूँ, वह लिखता हूँ।

जो दिखा लिखा निस्पृह होकर,
कर नहीं सका कुछ सीमित मैं।
अपनी शर्तों पर व्यक्त हुआ,
अपनी शर्तों पर छिपता हूँ
जो दिखता हूँ, वह लिखता हूँ ।

सच नहीं बता पाती, झुठलाती, जब भी कविता डोली है,
शब्दों का बस आना जाना, बन बीती व्यर्थ ठिठोली है।
फिर भी प्रयत्न रहता मेरा, मन मेरा शब्दों में उतरे,
जब भी कविता पढ़ू हृदय में भावों की आकृति उभरे।
भाव सरल हों फिर भी बहुधा, शब्द-पाश में बँधता हूँ।
जो दिखता हूँ, वह लिखता हूँ।

यह हो सकता है कूद पड़ूँ, मैं चित्र बनाने पहले ही,
हों रंग नहीं, हों चित्र कठिन, हों आकृति कुछ कुछ धुंधली सी।
फिर भी धीरे धीरे जितना सम्भव होता है, बढ़ता हूँ,
भाव परिष्कृत हो आते हैं, जब भी उनसे लड़ता हूँ।
यदि कहीं भटकता राहों में, मैं समय रोक कर रुकता हूँ,
जो दिखता हूँ, वह लिखता हूँ।

मन में जो भी तूफान उठे, भावों के व्यग्र उफान उठे,
पीड़ा को पीकर शब्दों ने ही साध लिये सब भाव कहे।
ना कभी कृत्रिम मन-भाव मनोहारी कर पाया जीवित मैं,
जो दिखा लिखा निस्पृह होकर, कर नहीं सका कुछ सीमित मैं।
अपनी शर्तों पर व्यक्त हुआ, अपनी शर्तों पर छिपता हूँ
जो दिखता हूँ, वह लिखता हूँ।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

19 thoughts on “जो दिखता हूँ, वह लिखता हूँ

  1. @प्रवीन जी…..अमूमन अभिव्यक्ति का मतलब ही जैसा दिखे उसे लिखना है …हर व्यक्ति एक ही घटना को अपनी अपनी समझ ओर अपने अपने लेंस के मुताबिक रिफाइन करके देखता बूझता है ….ओर अच्छे लिखने वाले की खूबी यही है के वो किसी घटना के उस एंगल पे कैमरा रखता है .जिससे सबसे क्लियर फुटेज सामने आये …..एक संवेदनशील कवि या लेखक यही करता है …..बाकी पाठको के ऊपर है वे कैसे रिसेप्ट करते है ….हिंदी ब्लोगिंग की दो परेशानी है एक वही जिसे धीरू जी ने कहा है .दूसरी यहाँ लेख को कम लेखक को ज्यादा पढ़ा जाता है ….उम्मीद करता हूँ आप भी दूसरे ब्लोगों को पढना शुरू करेगे …..ज्ञान जी के ब्लॉग पर कविता अच्छी लगती है …

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  2. सही है। लेखन मे तभी मजा आता है जब उसे भोगा गया हो या यथार्थ से गुजरा गया हो। सहमत हूँ। मेरी कई पोस्टें मैंने अपने निजी अनुभव पर लिखी और कई बिना निजी अनुभव के केवल कल्पना कर हास्य या व्यंग्य का पुट देकर। लेकिन मजा उसी पोस्ट में आया जिससे होकर जिसे अनुभव लेकर लिखा था। इलाहाबाद का कम्पटीशन की तैयारी कर रहे छात्रों के कमरे में गिलास में हरा धनिया डाल बेलन से कुचकुचाने वाली पोस्ट हो या फिर मंदिर के बगल में बने कमरे में विवाह हेतु लडका लडकी को दिखाने वाली देखौवा छेकौवा वाली पोस्ट हो। उन्हीं मे ज्यादा मजा आया जिसमें मैंने खुद शामिल हो अनुभव किया था। लोगों को भी मेरी वही पोस्टें ज्यादा पसंद आई थी। वैसे, कभी कभार कल्पना लोक में विचरते हुए पोस्टें लिखी जा सकती हैं, हमेशा नहीं । जब ज्यादा ही काल्पनिक पोस्टें आने लगें तो समझिये कि सामने से प्रतिक्रियाएं भी काल्पनिक ही आएंगी और मजा थोथा रहेगा। दो चार ही प्रतिक्रियाएं आएं लेकिन मन से आएं तो जी खुश हो जाता है और लगता है कि हां लिखना सार्थक हुआ। वैसे, यहां प्रश्न उठाया जा सकता है कि क्या सामाजिक बुराईयों पर लिखने के लिये खुद उस बुराई में शामिल हो तब लेखन किया जाय ? यहां मेरा मानना है कि आग से लोग जल जाते हैं तो उसमें जरूरी नहीं कि आग से जलकर ही कुछ निष्कर्ष निकाला जाय और उस पर लिखा जाय। कुछ बातें दूसरों की चेतावनी, दूसरों की कही भी होती हैं जो हमें निरंतर बताती रहती हैं कि क्या गलत है और क्या सही। टिप्पणी लगता है ज्यादा लमछर हो गई है :)

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  3. कवि या लेखक जो लिखते आये हैं, वह उनके व्यक्तित्व को दर्शाता है या मनोस्वादन के लिये लिखा गया है? यह भी हो सकता है कि कुरुक्षेत्र लिखने के बाद उनका व्यक्तित्व और निखर आया हो। very true..

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  4. जो दिखता हूँ, वह लिखता हूँ……….आज के लेख में गुरु-गम्भीर्यता और भाषा संतुलन का अद्भुत संयोग है.कभी -कभी ही ऐसी मन-मोहक पोस्ट बन पाती है,यह दीगर बात है की आपकी महीनें में कई- एक हो जाती हैं-हम तो तरसते हैं ऐसे दार्शनिक लेखन के लिए .लिखते रहिये हम तो हैं ही आपके पढने वाले स्थाई पाठक .आज फिर एक जबर्दस्त पोस्ट.

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  5. अपनी शर्तों पर व्यक्त हुआ, अपनी शर्तों पर छिपता हूँ जो दिखता हूँ, वह लिखता हूँ।-क्या बात कही..पूर्णतः बात समझ आती है. मुझे लगता है कि जिस पर आप लिख रहे हैं, उन स्थितियों को पूर्ण संवेदनाओं के साथ अहसासना होता है तभी एक सार्थक और सशक्त लेख निकल कर आता है.बेहतरीन गुनने योग्य आलेख.

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  6. अपनी शर्तों पर व्यक्त हुआ, अपनी शर्तों पर छिपता हूँ सच है भाई, दुनिया में ऎसी नस्लें कम होती जा रही हैंलेयो हमारौ वोट पठाय देयोमन मस्त हुआ जाता है, यह पढ़ कर कि,भाव परिष्कृत हो आते हैं, जब भी उनसे लड़ता हूँ। यदि कहीं भटकता राहों में, मैं समय रोक कर रुकता हूँ, सच है भाई, आख़िर भतीजा तो मेरा ही हैलेयो एकु वोट हमरी पँडिताइनऔ केर धर लेयो

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