यह श्री गोपालकृष्ण विश्वनाथ की अतिथि पोस्ट है:
एक और बात मैंने नोट की और वह है ये अमरीकी लोग अपनी प्राइवेसी (privacy) पर कुछ ज्यादा ही जोर देते हैं। अमरीकी नागरिक खुलकर बातें नहीं करते थे हम लोगों से। हम जैसे कम्यूनिकेटिव (communicative) नहीं होते। शायद मेरा यह अनुमान गलत है और सिर्फ़ मेरे साथ ऐसा हुआ। या फ़िर मैं ही कुछ ज्यादा बोलता हूँ!
रास्ते में टहलते समय, अजनबी लोग भी भले "Hi" या "Hello there" या "Good morning" कहते, पर उसके बाद झट से निकल जाते थे।
यह तब होता था जब हमसे "eye contact" होता था। मेरी बेटी ने चेतावनी दी थी कि इसे गपशप का निमंत्रण न समझूँ।
मुझसे बस इतनी ही अपेक्षा की जाती है कि मैं भी मुस्कुराकर "हेल्लो" कहूँ और निकल जाऊँ। भारत में जब कोई इस तरह बात करना आरंभ करता है अवश्य और बातें भी होती हैं और आगे चलकर दोस्ती में बदल सकती है। पर यहाँ रिवाज अलग है.
यह हेल्लो या गुड मॉर्निंग कहना केवल एक खोखली औपचारिकता है या common courtesy है। इस ग्रीटिंग के पीछे कोई दोस्ती का इरादा बिल्कुल नहीं। भारत में यदि हम किसी से आगे बात नहीं चलाना चाहते हैं तो पहले नमस्ते ही नही करते। हमें यह अजीब लगा। कुछ दिन बाद इस बर्ताव से ऊबकर, हम तो अजनबी से नज़र बचाकर ही निकल जाते थे। मुझे हैरत तब हुई जब ऐसा बर्ताव हम जैसे भारतीय लोगों ने भी किया।
सोचा था शॉपिंग मॉल (shopping mall) में मिले हम उम्र भारतीय लोगों से कम से कम संपर्क कर सकूँगा और कुछ इधर उधर की बातें कर सकूँगा पर आगे चलकर पता चला कि इन लोगों को भी यह बीमारी लग गई है! बस आगे चलकर जब तक किसी से formal introduction नहीं हुआ था, हम अपनी तरफ़ से, न उनको हेल्लो कहते और न उनसे बात करने की कोशिश करते। अमरीकी लोगों को छोडिए, पूरे महीने में एक भी भारतीय निवासी, shopping malls में या पर्यटक स्थलों पर मुझसे बात करने की कोशिश नहीं की। इतने साल में भारत में जगह जगह घूमा हूँ पर ऐसा मैने कभी अनुभव नहीं किया।
तरह तरह के साइकल देखे। गियर युक्त और बहुत ही तेज चलने वाली। यहाँ साइकल व्यायाम के लिए या खेल कूद के संबंध में काम आते हैं। टहलते समय सावधान रहना पढ़ता था। दूर से इशारा करके या बोलकर अपने आने का संकेत या घोषणा करते थे ताकि टक्कर न हो। चालीस Km/hr की गति या उससे भी ज्यादा चलती थी ये साइकलें। एक और अजीब बात मैंने नोट की। बेंगलूरु में मोटर साइकल और स्कूटर चालक भी कानून तोडकर बिना हेल्मेट पहने वाहन चलाते हैं पर यहाँ साइकल चलाने वाले भी हेल्मेट पहनकर ही साइकल चलाते है। कई कारें देखी जहाँ पीछे डिक्की के साथ साइकल अट्टैच हो सकती थी। लोग अपनी साइकल अपनी कार के साथ ले जाते थे। यह मेरे लिए एक अनोखी बात थी।
बिस्तरों पर गद्दे इतने soft थे कि पहले दो दिन तक मुझसे उनपर सोया ही नहीं गया। सारी रात करवट बदलता रहा। फ़िर जाकर मेरी बेटी हमारे लिए अलग hard mattress खरीद ले आई। उनके सोफ़े पर हम बैठ ही नहीं सके। सोफ़ा इतना दब जाता था कि हमें उठने में परेशानी होती थी। बेटी ने कहा यहाँ सभी सोफ़े ऐसे ही मिलेंगे। बात सही थी। कुछ दोस्तों और रिश्तेदारों के यहाँ भी सोफ़े ऐसे ही निकले। हमसे बैठा ही न गया। परेशान होकर हमने सोफ़े पर बैठना छोड दिया। टी वी देखते वक्त हम आराम से सोफ़े के नीचे जमीन पर बैठ जाते थे। जब मेहमान आते थे हम डाइनिंग टेबल की कुर्सी पर बैठकर बात करते थे।
आगे तीसरी किस्त में
शुभकामनाएं
जे विश्वनाथ
इलाहाबाद में साइकलें:
आपने कैलीफोर्निया की साइकलें विश्वनाथ जी की पोस्ट में देखीं। चमकदार, गियरयुक्त। यहां इलाहाबाद में काम पर आने जाने के लिये साइकलें इस्तेमाल होती हैं। दफ्तर जाते हुये मैने गिनीं – हर पच्चीस मीटर पर एक साइकल। औसत पांच-सात किलोमीटर चलाता होगा व्यक्ति अपने काम पर जाने के लिये।
मेरा चपरासी बत्तीस किलोमीटर गांव से आता जाता है साइकल पर। दूरी ज्यादा होने के कारण रोज आने जाने से बचता है और किसी के घर रुक जाता है।
कई सब्जी बेचने के फेरीवाले साइकल पर फेरी लगाते हैं। एक से मैने पूछा – ठेला क्यों नहीं ले चलते? उसने कहा कि वह पास के गांव में रहता है। सब्जी बेच कर लौटते हुये साइकल ट्रांसपोर्ट का भी काम देती है। लिहाजा साइकल बेहतर है।
साइकल हमारे यहां व्यायाम नहीं; लाइफलाइन है।
कैलीफोर्निया से कलुआ (अपडेट सवेरे पौने छ बजे) : सवेरे जल्दी उठ गया – पौने चार बजे। एक घण्टे बाद गंगा तट पर गया तो भोर फूट रही थी। मैं अकेला था, सो गली का कुकुर कलुआ साथ हो लिया। मुझे पानी/नदी/तालाब पर अकेले जाने की डाक्टरी मनाही है। कलुआ ने पूरी तरह मेरा शैडो काम किया। बिना आज्ञा दिये।
टिटिहरी भोर में टायं-टांय कर रही थी। कुछ पक्षी पंक्तिबद्ध गंगा के पानी पर मंडरा रहे थे। लगता है उन्हे भी अनिद्रा का रोग है! इक्का-दुक्का स्नानार्थी थे। एक दो गाय गोरू। बस।
विश्वनाथ जी का कैलीफोर्निया, हमारा कलुआ। “क” की आवृति का अलंकार भर है साम्य में! अन्यथा एक चमकदार; दूसरा काला कलुआ!
श्री जी विश्वनाथ की प्रतिटिप्पणियां (सितम्बर २०’२०१० को दोपहर में पोस्ट की गयीं):
@रानीविशालजी.
आशा करता हूँ कि आपकी कैलिफ़ोर्निया यात्रा सुखद रही।
हम तो यही सुनते हैं कि भारतीयों के लिए अमेरीका में यही सबसे अच्छी जगह है।
पर यह भी सुना कि यहाँ cost of living सबसे अधिक है।
@महेन्द्र मिश्राजी,
आप ठीक कहते हैं। हम लोग तो कुछ ज्यादा ही बोलते हैं
मेरी भी यही कमज़ोरी है।
@मनोज कुमारजी, स्मार्ट इन्डियनजी, पी एन सुब्रमणियनजी, रंजनाजी, काजल कुमारजी,
टिप्पणी के लिए धन्यवाद
@अभिषेक ओझाजी,
Yes, I agree. Perhaps the right behaviour is in between these two extremes.
@अजीत गुप्ताजी,
अवश्य अवसर मिलने पर आपकी किताब हम पढना चाहेंगे!
Amway वाली बात सुनकर हमें मुस्कुराना पढा।
बात सच हैं। यहाँ बेंगळूरु में भी, एक मित्र नें मुझे भी इसमें फ़ंसाने की कोशिश की।
हम किसी तरह बच निकले थे।
@अन्तर सोहिलजी,
ठीक कहा आपने। यहाँ नमस्ते वगैरह केवल मर्द और मर्द, या औरत और आरत के बीच की जाती है।
पर वहाँ महिलाएं भी कभी कभी हमें देखकर मुस्क्राकर “हेल्लो” कहते थे।
लेकिन यह सभी महिलाएं मेरी उम्र के आसपास ही थीं।
सुन्दर युवतियाँ तो हमारी तरफ़ देखती भी नहीं थीं।
चलो अच्छा हुआ। मेरी श्रीमतीजी इससे नाखुश नहीं है।
@प्रवीण पाण्डेजी,
ठीक कहा आपने।
हम भी साइकल के बारे में यही सोचते हैं।
गरीब और मध्यवर्गीय लोग भले ही साइकल यातायात के लिए उपयोग करते हैं पर यहाँ अमीर लोग तो व्यायाम या क्रीडा समझकर चलाते हैं। काश एक ऐसा यंत्र होता जो घर बैठे साइकल की तरह चलाया जा सकता और जिससे घर के जमीन के नीचे की टंकी से छत के ऊपर रखी टंकी तक पानी को चढा सके। या किसी बैट्टरी का चार्जिन्ग कर सके जो कम से कम लाईटिंग के लिए काम आए।
@cmpershad jee,
बिल्कुल ठीक कहा आपने। टहलते समय और शॉप्पिंग करते समय हमने इतने सारे प्यारे प्यारे बच्चे/शिशु देखे।
दिल तो बहुत करता था उन्हें पुचकारूँ। पर अपने आपको रोकना पढा। मुझे दस साल का एक पुराना किस्सा याद आ रहा है। एक बार यहीं अपने देश में ही, मैं किसी बहुमंज़िली इमारत में लिफ़्ट में ऊपर जा रहा था। एक विदेशी परिवार लिफ़्ट में मेरे साथ थे। उनका एक छ: साल का बहुत ही सुन्दर और प्यारा लडका था। उसने मेरी तरफ़ देखकर मुस्कुराया। हम से रहा नहीं गया। हम ने प्यार सी उसके सर के बाल को सहलाया। लडके के बाप को यह अच्छा नहीं लगा और उसने मुझे भला बुरा कहा। हमने उससे माफ़ी माँगी और, अपनी मंजिल पर पहुँचने पर, भारी दिल से लिफ़्ट के बाहर निकले। बस, जाते जाते एक आखरी बार उस प्यारे बच्चे की तरह मेरा ध्यान चला गया।
बच्चा मेरी तरफ़ देख रहा था और एक भोली सी और शरारती मुस्कुराहट थी उसके होंठो पर। मैं अपनी मानसिक चोट को उसी क्षण भूल गया। मन को भी शांती मिल गई । बाप को मारो गोली! बच्चे को तो अच्छा लगा था। मैं ने शायद केवल गलती की थी, कोई अपराध नहीं। उस दिन से हम औरों के बच्चों को फ़ूल की तरह मानते हैं। दूर से देखो, और आनन्द उठाओ। बात करो उनसे पर जब तक वे हमारे परिवार या सगे संबन्धी के नहीं होते उन्हें पुचकारना तो दूर, उन्हें छूना भी मत।
@रंजन,
Yes, I too observed this. There is a metro service in the Bay area of California which connects some places.
There is a provision to carry your cycle inside the compartment. I once saw a huge family trailer on the highway and they were carrying a small boat in it!
@अनिता जी.
इतने दिनों बाद आपसे ब्लॉग जगत में फ़िर मुलाकात हो रही है। हमें खेद है की आप बैंगळूरु आई थीं पर हम से सम्पर्क नहीं कर सके। कोई बात नहीं। इस बार नहीं तो अगली बार ही सही। खबरदार, हम भी कम नहीं बोलते। प्रवीण पाण्डेजी से पूछिए। बस दो दिन पहले ही उनके यहाँ गया था। He is still rubbing his tired ears after that long and continuous बक बक from me.
@सतीश पंचमजी.
जो सबक आप सीखे , यहीं बैठे बैठे, हमें इतनी दूर जानी पडी! बस अब कभी भूलूँगा नहीं।
@हेमन्त कुमार जी,
सहमत। यहाँ अपने देश में प्यार और भाइचारा जो दिखता है वह कैलिफ़ोर्निया में कहाँ ।
रेल के डिब्बे में सफ़र करते समय, हम तो सह यात्रियों से जितनी खुलकर बातें करते हैं वह तो वहाँ संभव ही नही।
@मो सम कौन जी,
हम भी इस मामले मे हमेंशा देशी ही रहेंगे।
पहली रात के बाद जब तक नये गद्दे का इंतजाम नहीं हुआ था, हम तो खटिये के बगल में फ़र्श पर ही सोते थे।
@अनूप शुक्लाजी
बस केवल पैसे के लिए, कैरियर के लिए।
हमने अब तक किसी भारतीय से नहीं मिला जिसने कहा कि हम अमेरीका इस लिए चले आए क्योंकि हमें अपने देश से प्रेम नहीं।
@rashmi ravija,
“If U see a friend without a smile, give him one of urs.”
अच्छा लगा यह quotation. But be prepared for a snub and learn to take it in your stride.
Some people will not smile because they dont want to.
“A smile is like a light in the window of the face that shows that the heart is at home.”
I am reminded of this quotation also.
@विष्णु बैरागीजी,
टिप्पणी के लिए ध्न्यवाद। बस कुछ ही दिनों में तीसरी किस्त ज्ञानजी को भेज दूँगा।
आपकी टिप्प्णी का इन्तज़ार रहेगा।
@भारतीय नागरिकजी,
कुछ लोग कहते हैं कि २६/११ के बाद अमरीकी लोग paranoid हो गये हैं।
पर मैं नहीं मानता के उनका यह व्यवहार २६/११ से किसी तरह जुडा हुआ हैं।
उनका यह व्यवहार केवल हमसे नहीं था, आपस में भी वे यही व्यवहार करते थे।
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सभी मित्रों को मेरी शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
एम वे तो अब भारत में भी डेरा जमाये है । यहां का हाय हलो कहने का तरीका हमें अच्छा लगा तो हमने सोचा क्यूं न दिल्ली में भी इसे आजमाया जाये ।हम दिल्ली में भी सुबह घूमने जाते तो कोई भी हो जानाया अनजाना उसे नमस्ते करते, कि देखें कौन पलट कर नमस्ते करता है । देखा कि केवल 5 प्रतिशत ही आपके नमस्ते का जबाब देते है । बाकी तो, कौन है बे तू , वाला भाव चेहेरे पे लिये आगे बढ जाते हैं ।
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@ ajit gupta …इस एमवे कंपनी का डर तो हमरे फतेहपुर में भी बहुत है …..लोग बिना कारण बताये चाय बुलाते हैं …तो ९०% एमवे मार्कटिंग पार्टी ही होती है !!
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…इसीलिये तो हम कहते हैं कि बातचीत के सिलसिले चलते रहने चाहिए !
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जानकारी में वृद्धि हुई । धन्यवाद ।
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ज्ञानवर्धक पोस्ट। आज भी भारतीय संस्कृति का कोई जवाब नहीं है।
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श्री जी विश्वनाथ की प्रतिटिप्पणियां मैने पोस्ट में समाहित कर दी हैं। कृपया पोस्ट के अन्त में देखें।
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अमेरिकियों का डर ही सही, लेकिन २६/११ के बाद एक भी इस तरह का हमला नहीं हुआ. और हमारे जैसे बहादुरों का क्या कहना जहां रोज आतंकवादी बम से लोगों को उडा देते हों…
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ये अनुभव वास्तव में अनूठे हैं। पहली बार ही ऐसे व्यवहार की जानकारी हुई। यह जानकर अच्छा नहीं लगा कि वहॉं पहले से रह रहे भारतीय, नवागत भारतीयों के साथ अंग्रेजी व्यवहार करते हैं।अगली किश्त की प्रतीक्षा है।
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