मेरा गांव है शुक्लपुर। टप्पा चौरासी। तहसील मेजा। जिला इलाहाबाद। शुक्लपुर और शम्भूपुर की सीमा पर वह प्राइमरी स्कूल है जहां मैने कालिख लगी तख्ती, दुद्धी (चाक या खड़िया पानी में घुलाने पर बना रसायन) की दावात, सरकण्डे की कलम और बालपोथी के साथ पहली तथा दूसरी कक्षा की शिक्षा पाई। सन 1959 से 1961 तक। पांच दशक हो गये उसको, पर यादें धूमिल नहीं हुई हैं उस समय की।
पिछले दिनों कई दशकों के बाद मैं वह स्कूल देखने गया। वही दो कमरे का स्कूल था, वही सामने मैदान। बरामदे में कक्षायें लगी थीं। कुल मिला कर 20-25 बच्चे भर थे। जब मैं वहां पढ़ता था तो 100-150 हुआ करते थे। बच्चे शायद अब भी उतने ही होंगे, पर स्कूल आये नहीं थे।
हेडमास्टर साहब ने बताया कि पिछले कई दिन छुट्टियां थी, अत: उसके तुरंत बाद कम ही बच्चे आये थे। एक मास्टर साहब भी नहीं आये थे। हेडमास्टर साहब (श्री सुनिल सिंह) थे और एक शिक्षा मित्र (श्री घनश्याम तिवारी)। सभी कक्षाओं के बच्चे एक साथ बैठे थे।
हेडमास्टर साहब घूम फिर कर मेरा प्रयोजन पूछ रहे थे। जब मैने यह स्पष्ट कर दिया कि शिक्षा विभाग या किसी भी प्रकार की जांच से मेरा कोई लेना देना नहीं है और मैं वहां केवल एक पुराने विद्यार्थी की हैसियत से आया हूं तो उनकी जान में जान आई।
जिस जगह श्री सुनिल सिंह थे, उस जगह मेरे बाबा पण्डित महादेव प्रसाद पाण्डेय हुआ करते थे।
बच्चों से मैने कुछ पूछने का यत्न किया। जितना पूछा, उतना दुखी हुआ। उन्हे खास आता जाता नहीं था। उनमें मैं अपनी या अपने से बेहतर की तस्वीर देखना चाह रहा था। पर वह नजर नहीं आई। अगर मैं गांव में बसा, तो इस स्कूल में बच्चों में उत्कृष्ट बनने का जज्बा अवश्य डालूंगा – ऐसा मन में विचार किया।
स्कूल की इमारत पर सफेदी की गई थी। स्कूल का नाम लिखना शेष था। कई बच्चे स्कूल यूनीफार्म में थे (मेरे जमाने में यूनीफार्म जैसी चीज नहीं हुआ करती थी।)। उनके पास कापियां और बालपेन थे – तख्ती-दवात-सरकण्डे की कलम नहीं! उनकी आंखों में चमक थी और शरारत भी कोने में झलकती थी। पर पढ़ने लिखने में तेज नहीं लग रहे थे।
पास एक कोठरी में मिड डे मील बन रहा था। क्या था, वह नहीं देखा मैने।
लगभग आधा घण्टा रहा मैं वहां पर। वापस आने पर लगा कि कई घण्टे गुजारने चाहिये थे वहां!
ये लड़कियां हैं – स्कूल यूनीफार्म में। पर्याप्त साफ सुथरी। चप्पलें हैं इनके पास। पांच दशक पहले केवल लड़के होते थे। चप्पलें सबके पैर में नहीं होती थीं। या कहें कि अधिकांश के पैर में नहीं होती थीं। नीचे स्कूल की टाट-पट्टी है। पहले हम अपनी अपनी पट्टी ले कर जाते थे। स्कूल में टाट-पट्टियां पर्याप्त नहीं थीं।
सुविधा के हिसाब से स्कूल बेहतर हो गया है। शिक्षा के स्तर में कमी लगी। हार्डवेयर बेहतर; सॉफ्टवेयर कमजोर!
सरकारी अनुदान की बैसाखी पर जिन्दा है स्कूल। भगवान करे सरकारी अनुदान जिन्दा रहे।
हार्डवेयर बेहतर; सॉफ्टवेयर कमजोर!
हाल कुछ ऐसा ही हो गया है…
एक समय था जब सरकंडे की कलम से शीशी से घिसी पट्टी पर सत्तर मार कर छूही(खड़िया) से टेय टेय लिखा करते थे… बाद मे मुस्कबेद की कलम, जी निब, और चमन स्याही की चमकती पुड़िया घोल कर बोरका(मसि-पात्र) मे डुबा डुबा कर सुंदर आलेख सुलेख लिखा करते … अधिकतर बच्चे चड्डी बानियान मे… लेकिन उनका बेसिक इतना मजबूत होता राइटिंग इतनी अच्छी कि कभी न भूले। आज शायद ही कोई बच्चा( विशेषतः शहर का) ऐसा हो जो बिना त्रुटि के पूरा ककहरा सुना दे। कोनवेंट मे अँग्रेजी भी बोलते हैं लेकिन बिना ग्रामर वाली……. कालांतर मे कोनवेंट और सरकारी प्राइमरी मे अंतर बढ़ता गया और अंततः शासक और शासित का अंतर स्पष्ट है। शिक्षा एक ऐसा मुद्दा है जिसपर सबसे अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए… लेकिन सरकारी स्कूलों की हालत निश्चित रूप से चिंता जनक है…
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मेरे जमाने का बहुत सशक्त चित्र खींचा आपने पद्मसिंह जी!
और ककहरा? शहरी पृष्ठभूमि के अधेड़ भी न सुना पायेंगे! 🙂
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उस प्राइमरी स्कूल में पढनेवाले बच्चे कितने आगे निकल गए…और स्कूल का और भी बुरा हाल…दुखद है यह तो.
वैसे यह हाल सिर्फ गाँव के प्राइमरी स्कूलों का ही नहीं….यहाँ पास के स्कूल में पढ़ी छात्राओं की पुत्रियाँ पढ़ती हैं,आज वहाँ…और उनसे भी यही सब सुनती हूँ कि बस शानो शौकत थोड़ी बढ़ गयी है…बिल्डिंग पर रंग रोगन हो गया है…पर शिक्षा का स्तर बहुत पिछड़ गया है.
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मेक अप का जमाना! स्तर बढ़ाने में मेहनत चाहिये! 🙂
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ब्रेख्त की एक कविता में महंगी होती पढ़ाई पर दो माएं बात कर रही हैं और कविता की अंतिम पंक्ति कुछ इस तरह है- ‘उन्हें क्या पता कि पाठ्यक्रम कितना गंदा है’
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आकलन से अगर चीज बहुत ज्यादा मंहगी होती है तो वल्गर होती है! 🙂
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अच्छी याद दिलाई आपने -मैं जब भी छठे छमासे अपने घर -गाँव जाता हूँ पैदल ही अपने पहली इल्म की माँ के आँचल का छाँव लेने चल पड़ता हूँ -सही कहा आपने सब कुछ अब है वहां पर वही सरस्वती का लोप हो गया है !
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आपके समय शायद ही कोई बच्चा ऎसा हो जो २० तक पहाडा ना जानता हो और आज के समय मे शायद ही कोई मास्टर ऎसा हो जो २० तक का पहाडा जानता हो .
यही अन्तर है सरकारी शिक्षा का आज .मास्टर साहब को जन गणना करनी है ,पशु गणना करनी है , मिड डे मील बनवाना है ,चुनाव की ड्यूटी करनी है . यानि पढाई के अलावा बहुत कुछ करना जरूरी है .
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उस जमाने में बिल्डिंग नहीं होती थी पर स्कूल होता था। अब वर्दी, इमारत आदि सब कमोबेश पहले से अधिक हैं पर स्कूल ………………….. ?
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ऐसा कहा जाता है कि सरकारी स्कूल के टीचर और सरकारी डॉक्टर सबसे अछे होते हैं. शायद इसलिए क्योंकि वहां तक पहुँचने वाले वह कुछ होते हैं जो काफी मेहनत के बाद वहां तक पहुँचते हैं. फिलहाल सरकारी मास्टर लोग तरह तरह की duties निभाते हैं और जैसा कि आपने कहा उनकी रूचि ज्ञान बांटने से ज्यादा नौकरी करने में रहती है.
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बनने/नौकरी पाने के लिये मेहनत करते हैं, फिर सरकारी चकरी में कुन्द हो जाते हैं उनके मानसिक अंग! 🙂
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यदि होता किन्नर नरेश मैं, और उठो लाल अब आँखें खोलो भी आपके सिलेबस में था क्या? पता नहीं मेरे सिलेबस में था या घर पर पड़ी किताब में. लेकिन पढ़ा तो इसी ब्रांड स्कूल (सेंट बोरिस) से मैं भी हूँ. बिलकुल ऐसे ही स्कूल में. सर्दियों में कक्षाएं धुप में भी लगती थी और हलकी गर्मी में दोपहर के बाद कभी आम के पेंड के नीचे भी. गिनती-पहाड़े रट्टा लगाए जाते. अब सभी प्राथमिक स्कूलों की हालत ऐसी ही है गनीमत है मास्टर साहब स्कूल में मिल गए. आजकल खेती बाड़ी का काम कम हो शायद. या घर पर कोई काम नहीं होगा, कितने बजे आप स्कूल गए थे इस पर भी निर्भर करता है.
और प्राइवेट पब्लिक स्कूल का ऐसा है कि जो कुछ भी नहीं कर पाता और मुश्किल से हस्ताक्षर कर पाता है वो उन प्राइवेट स्कूलों में शिक्षक बनता है उसकी अपनी रोजी रोटी की समस्या होती है और हजार रुपये की आमदनी, वो क्या पढ़ायेगा? फिर भी भ्रम है तो लोग उनमें ही भेजते हैं.
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बचपन इन्ही कविताओं में बीता है। पहला पाठ उठो लाल अब आंखें खोलो वाला था!
बहुत अच्छी लगी टिप्पणी!
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शिक्षा व्यवस्था ??????
क्या कहा जाय….
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लोग कहते हैं – एक वृक्ष लगायें। शायद बेहतर होगा एक व्यक्ति को शिक्षित करें!
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अपने प्रायमरी स्कूल का ही खांका है..कभी जाना नहीं होता उस शहर..मगर हालात यही दिखे घर के सामने के सरकारी स्कूल में इस बार…छात्रों की संख्या में आई कमी- क्या शिक्षा में रुचि कम हुई है या प्रायवेट स्कूल तक भेज पाने वाली क्षमतायें ज्यादा लोगों में हो गई है. समझ नहीं सका!!
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गांव और कस्बों के प्राइवेट स्कूल नहीं देखे मैने; पर अन्दाज लगा सकता हूं कि बहुत बेहतर नहीं होते होंगे! 😦
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