बनारस में अंश के लिये साइकल कसवाई जा रही थी। अब बड़ा हो गया है वह। साइकल चलाने लायक। उसके पिताजी ने मुझे मोबाइल पर साइकल कसवाने की सूचना दी।
वे बनारस में साइकल की दूकान पर और मैं इलाहाबाद में अपने दफ्तर में। मैने कहा – जरा साइकल का चित्र तो दिखाइये!
बस कुछ मिनटों की बात थी कि उन्होने अपने मोबाइल पर लिया चित्र मुझे ई-मेल कर दिया। मैं फोटो भी देख रहा था और उस साइकल के सामने की टोकरी के बारे में बात भी कर रहा था!
आप देखें अंश और उसकी साइकल। चित्र बनारस में साइकल की दुकान से।
और यह है रिक्शे में साइकल ले कर आता अंश:
शाम के समय उसके पिताजी ने बताया कि अंश क्लाउड नाइन पर है! बाबा/नाना सातवें आसमान पर होते थे जब उन्हे विवाह में नई साइकल मिलती थी। अब बच्चे साइकल चलाने लायक हुये नहीं कि साइकल मिल जाती है। वे दो सीढ़ी आगे – क्लाउड नाइन पर होते हैं!
अंश का कहना है कि वह नई साइकल क्लास की फलानी लड़की को नहीं छूने देगा। वह उसे स्कूल बस में बैठने के लिये जगह नहीं देती!
दस मिनट में मैं एक सौ पच्चीस किलोमीटर दूर बच्चे के आल्हादकारी क्षणों का भागीदार बन रहा था। तकनीक का कितना कमाल है। अगले दिन आप तक वह सूचना मय तस्वीर पंहुचा दे पर रहा हूं – आप अपने को एक दशक पीछे ले जायें – यह भी कमाल नजर आयेगा!
हम अमेजमेण्ट (amazement) के काल में जी रहे हैं। इसमें प्रसन्नता बिखरी होनी चाहिये प्रचुर मात्रा में। वह समेटने की क्षमता हममें होनी चाहिये। मेरी पीढ़ी ने वह क्षमता बरबाद कर दी। नई पीढ़ी संग्रह और भौतिकता को महत्व देने के चक्कर में वह क्षमता नजर-अन्दाज कर रहा है।
युवा वर्ग का नई साइकल कसवाने का रोमांच कहां बिला गया जी?!
बेहतर पोस्ट, अच्छी प्रस्तुति. बधाई!
LikeLike
आनन्दित हुये फ़ोटो देखकर और साइकिल कसन कथा सुनकर। अपनी साइकिल यात्रा के न जाने कित्ते याद आ गये। सन 83 में 275 रुपये की पड़ी थी हीरो साइकिल । अब तो याद भी नहीं कि कितने रुपये की छूट दी थी हीरो वालों साइकिल से भारत यात्रा के नाम पर! 🙂
LikeLike
अब 275 में शायद साइकल का कैरियर भर आये! भारत यात्रा के नाम पर दुकानवाला शायद कैरियर और टोकरी फ्री में लगा दे 2500 की साइकल पर!
LikeLike
जब मैं पाँच-छः में पढ़ रहा था तब अपने बड़े भाई के साथ साइकिल कसवाने के लिए दुकान पर पूरे दिन बैठा रहा था। घर लौटने पर डाँट भी पड़ी थी। मुझे चलाने तो आता नहीं था लेकिन पिछले कैरियर पर बै्ठने का उत्साह ही जोरदार था।
अब तो पहले से तैयार साइकिलें मिल जाती हैं लेकिन तब सारे पुर्जे अनपैक होकर सामने कसे जाते थे। नयी पीढ़ी को अब साइकिल मनोरंजन के लिए चाहिए। दूरी तय करने के लिए नहीं।
LikeLike