जनवरी में बीस दिन जी-ग्रुप के लोग बिछे रहे रेल पटरी पर। एक तरफ रेल परिचालन पर कोहरे की मार और दूसरी तरफ दिल्ली-बम्बई का ट्रंक रूट अवरुद्ध किये जी-ग्रुप के लोग। लोगों को असुविधा के साथ साथ अर्थव्यवस्था पर बहुत बुरा प्रभाव। अब एक हफ्ते से ज्यादा समय हो गया, माल यातायात वहन का पीक समय है, और जे-ग्रुप के लोग उत्तर-प्रदेश/हरियाणा/राजस्थान के कई रेल खण्डों पर पसरे पड़े हैं। अपनी जातिगत मांगों को ले कर। सवारी गाड़ियां अपने रास्ते से घूम कर चल रही हैं। बिजली घरों में कोयला नहीं पंहुच पा रहा, या पंहुच भी रहा है तो 200-300 किलोमीटर अधिक दूरी तय करने के बाद।
जी-ग्रुप और जे-ग्रुप। मैं जानबूझ कर उनके नाम नहीं ले रहा। इसी तरह के अन्य ग्रुप हैं देश में। कुछ दिन पहले यहां करछना पर किसान पसर गये थे पटरी पर।
[लोग कह सकते हैं कि सदियों से हाशिये पर रहे हैं ये ग्रुप और उन्हे अपनी बात मनवाने का हक है। हक है जरूर – पर प्रजातंत्र एक रास्ता देता है और ये उससे इतर चलने का काम कर रहे हैं बाकी समाज को
अंगूठेकनगुरिया की नोक पर रखते हुये।शायद यह परम्परा न बनती अगर उत्तरोत्तर सरकारें इनका तुष्टिकरण करने या इनकी जायज-नाजायज मांगो पर झुकने की बजाय ऑब्जेक्टिव रहने का निर्णय करतीं। ]
जब आत्मानुशासन न हो तो, प्रजातंत्र में ही इस तरह की अराजकता सम्भव है। कहें तो डेमॉर्की (Democracy+Anarchy=Demorchy)। डेमॉर्की में जनता मानती है कि कोई बात हिंसा और आंदोलन के माध्यम से सरलता से कही और मनवाई जा सकती है। व्यवस्थापिका पर असर कार्यपालिका को कुंद कर ही डाला जा सकता है। और ऐसे में चौथा खम्भा डेमॉर्की को बढ़ावा देता नजर आता है। उसके साथ यदा कदा बैण्ड बजाते नजर आते हैं मानवाधिकार जैसे अन-एकाउण्टेबल समूह के लोग।
जनता के कैसे वर्ग हैं ये? कैसे लोग? क्विक फिक्स में विश्वास करते लोग। बीज बो कर फसल लेने की बजाय पड़ोस के खेत से चना-गन्ना उखाड़ लेने की मनोवृत्ति पर चलते लोग। परीक्षा के लिये साल भर पढ़ने की बजाय परीक्षा की रात रटने या नकल माफिया पर भरोसा करते लोग। शॉर्टकट तलाशते लोग।
हर ग्रुप दुहना चाहता है प्रजातन्त्र को। यानी डेमॉर्की की अवस्था – प्रजातन्त्र की गर्तावस्था है। ऐसे में एकल/असंगठित मतदाता या नागरिक अकेला पड़ जाता है। उसकी संयत आवाज केवल सम्पादक के नाम पत्र (या आजकल सोशल मीडिया/ब्लॉग) तक सीमित रह जाती है। उससे ज्यादा नहीं कह पाता वह। प्रजातन्त्र के आदर्श डेमॉर्की के पंक में रुंधने लगते हैं। वही हो रहा है।
चलता रहेगा यह सब?!

जी.
LikeLike
यह सब चलता रहेगा ……….बल्कि और तेज !
LikeLike
हुम्म!
LikeLike
aajkal sabhi Jugaad khojte hai..aare kahe matha khapayee jab jugaad mil raha hai..yahi aajka karya karne ka tarika apnana chahte hai log…shortcut to sabhi marna chah rahe hai..aakhir 3G ka zamana hai … :)
LikeLike
ओह, जब 4-5-6G का समय आयेगा, तब जाने क्या होगा! :)
LikeLike
बहुत बहुत सटीक कहा आपने….
पिछले लगभग आठ नौ वर्षों से यहाँ रिंग रोड का काम रुका हुआ है…अवैध कब्जाए लोग आक्रामक आन्दोलन पर उतर आये हैं और स्थानीय नेता उनकी अगुआई की होड़ में लगे हुए हैं…बस्ती वाले सभी दीन हीन दबे कुचले नहीं,बल्कि अधिकाँश भू माफियाओं के सेनानी हैं…
एक व्यक्ति हिंसा करे तो वह मुजरिम…भीड़ हिंसा करे तो आन्दोलन…क्या स्थिति है…बदलने की क्या कहें..मान कर चलना पड़ेगा कि यह बद से बदतर होती जायेगी..
LikeLike
संयमित और अनुशासित लोग हों तो अभी से चार पांच गुना ज्यादा लोगों को पाल सकती है धरती। पर हालत है कि इतने में हांफ रही है! नहीं?
LikeLike
शहरों में, गांवों में, छोटे-छोटे सवाल,
क़ल्ब पर, निगाहों में, छोटे-छोटे सवाल,
जगह-जगह अड़ते हैं, चुभते हैं, गड़ते हैं,
हम सब की राहों में छोटे-छोटे सवाल।
LikeLike
सवाल हों, उनका हल हो।
आगे बढ़ें, फिर और बनें सवाल।
उनका भी हल हो।
पर यह क्या कि जो सवाल थे, वही खड़े हैं, अड़े हैं।
कल छोटे थे, आज बड़े हैं।
सवालों में हमेशा जीने की यह कौन लत है?
ओह, जम्हूरियत है!
:)
LikeLike
जी ग्रुप हो जे ग्रुप हर ग्रुप दुहना चाहता है प्रजातंत्र को और खामियाजा रेलवे को भुगतना पडता है।
हर कोई सीधा इसी नस को पहले दबाता है।
प्रणाम
LikeLike
निश्चय ही!
LikeLike
बिलकुल चलता रहेगा ये सब….. कभी भी नहीं रुकेगा.
१९४७ से लेकर आज तक की सरकार में बैठे लोगों ने स्वार्थवश ही इसको बढ़ावा दिया है या यों कहें ये रक्तबीज उन्ही का पैदा किया हुआ .
LikeLike
नानी पालखीवाला का सोचना था कि भारत गणतंत्र के लिये तैयार ही न था और प्रणाली लागू हो गयी। लिहाजा ब्लण्डर तो उसी में हो गया था।
LikeLike
सही बात, गणतंत्र के लायक आज भी नहीं हम . मानसिक रूप से अविकसित भारत को आजाद कराया गया था अपने परम स्वार्थ के लिए. करवाने वाले चाहे गाँधी थे या नेहरु-गाँधी (स्वघोषित) राजवंश !!
कभी कभी महसूस होता है कि अंग्रेज शासक आज भी होते तो जिंदगी एक सिस्टम पर तो होती कम से कम . रेलवे का किराया बढ़ा कर एक अदद सीट तो मिलती यों टॉयलेट के पास खड़े होकर सफर तो न करना पड़ता .
जरुरत है अब ५-१० साल मिलिट्री शासन की और हमें अपनी सीमायें ( नहीं औकात) याद दिलाये जाने की .
जब कैंट की तरफ जाना होता है तो महसूस होता है कि हम कितने अराजक हो गए, होते जा रहे हैं
LikeLike
भारत में विद्वत परिषद के शासन की परम्परा है। आदिकाल से विद्वत परिषद प्रयाग में मिला करती थी – कुम्भ के अवसर पर। और समाज के लिये नियम तय करती थी – जिसे राजा उल्लंघन नहीं कर सकते थे। वह प्रथा वर्तमान में भी काम कर सकती है। सेना के शासन से वह कहीं बेहतर होगा।
मुख्य बात तो यह देखने की है कि यह देश जुड़ा किन मूल्यों से है। वही गाइड करें शासन व्यवस्था को।
LikeLike
जय हो!
LikeLike
मुझे तो कभी-कभी लगता है कि रेल की पटरियां शायद होती ही हैं उड़ाने के लिए, उखाड़ने के लिए, लेटने के लिए, सुबह हो आने के लिए, लाशें डाल आने के लिए, बिना गए ही राजधानियों तक बात कह आने के लिए, धरनों के लिए, मुंह ढाप लूट लेने के लिए, उल्लू साध लेने के लिए, दूसरों की कमर नपा लेने के लिए ……
और पागल है वे लोग जो सोचते हैं कि यह सामान या लोक ढुलाई के लिए होती हैं
LikeLike
वाह! और रेल बिछाने की प्रॉजेक्ट रिपोर्ट में ये फायदे रेट-ऑफ-रिटर्न की गणना में जाने क्यों लिये नहीं जाते! :)
LikeLike
बहुत ही अर्थपूर्ण विचार ज्ञान जी. जिस देश में जुगाड़ करके सरकारें बने और टिके रहना (किसी भी कीमत पर) ही सबसे बड़ा मुद्दा हो , वहाँ उम्मीद भी क्या की जा सकती है. खुद के लिए दूसरों को हानि पहुँचाने का खेल आज चरम पर है .. फिर वह परीक्षा में नक़ल करके पास होना हो या आरक्षण के लिए पटरी पर लेटना हो. खामियाज़ा सीधे और सरल को चुकाना है. कम मार्क्स मिलने के करण आगे पढ़ने में बाधा और पटरियां रुकने के करण काम-धंधे में नुकसान..
LikeLike
रास्ता तो फिल्म भी दिखा रही है – मुन्नाभाई एमबीबीएस बनाकर! :)
LikeLike
मुझे अभी इस तरह के धरना, रेल रोको वगैरह के आगे भी कुछ काल तक चलते रहने की उम्मीद है………क्योंकि बारिश का सीज़न अभी दूर है।
अक्सर देखा है कि ऐसे धरना प्रदर्शन, रेल रोको वगैरह बारिश के सीजन में नहीं होते क्योंकि इंद्र देवता को ये सब पसंद नहीं, पानी की फुहार से छितरा देते हैं सबको।
और जहां कहीं सरकारें सख्ती करती भी हैं तो भीड़ को तितर बितर करने के लिए अंत में वही इंद्र देवता वाला होज पाइप ही खोलती हैं फायर ब्रिगेड की गाड़ियों के जरिए……पानी का फव्वारा सब छितरा देता है :)
रही बात राजनीतिक इच्छाशक्ति की, सो वह भी मुरझाई लगती है….उस पर किसी नई तरह की तेज आँधी या बरसात की दरकार है….तब जाकर वह मुरछई छोड़े।
LikeLike
हां! इन गतिविधियों का कैलेण्डर खेती-किसानी से खाली समय में समायोजित किया जाता है! :)
LikeLike