
फरवरी 2009 में एक पोस्ट थी, नया कुकुर । भरतलाल एक पिल्ले को गांव से लाया था और पुराने गोलू की कमी भरने को पाल लिया था हमने। उसका भी नाम हमने रखा गोलू – गोलू पांड़े। उसके बाद वह बहुत हिला मिला नहीं घर के वातावरण में। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की कबीर उसने आत्मसात कर ली थी। एक दिन घर से निकल भागा, सन्यासी हो गया। पांड़े सरनेम तज दिया उसने।
आप ये लिंक की गयी पुरानी पोस्टें इत्मीनान से पढ़ियेगा। हिन्दी ब्लॉगिंग के कुछ उत्कृष्ट कमेण्ट उनपर हैं। पर यहां मैं अपनी पुरानी पोस्टें ठेलने के अधन्य-कर्म में नहीं लगा हूं। मैं एक नयी पोस्ट लिख रहा हूं। वह जो पहले वालों से ज्यादा महत्वपूर्ण है।
गोलू लगभग साल भर (या उससे कुछ कम) रहा हमरे घर। उसके बाद यदा कदा घर पर चला आता था। दूध देने पर पी लेता था और अगर उसमें डबल रोटी डाल दी तो नहीं छूता था। हमें आशंका थी कि घर से निकल जाने पर वह अगर गली में सामंजस्य न बिठा पाया तो ज्यादा दिन चलेगा नहीं। पर यह देख संतोष होता था कि वह स्वस्थ था। एक बार कुछ बीमार सा था, तो घर में आ कर पड़ा रहा। पर ठीक होने पर पुन: भाग गया।

आज निषादघाट पर मैने देखा कि एक कुत्ता गंगाजी में वैसे है, मानो कोई व्यक्ति मात्र मुंह बाहर किये सूर्य की प्रार्थना कर रहा हो। मैं उसका चित्र लेने के लिये आगे बढ़ा तो वह पानी से बाहर निकल कतरा कर भागने लगा। कुछ दूर जा कर वह रुका और मुझे देखने लगा। पहचान उसे भी आई और मुझे भी – अरे यह तो गोलू है!
हल्का सा बुलाने पर वह हमारे पास चला आया। मेरी पत्नीजी के आसपास घूम पर अपने आगे के पंजे ऊपर कर उनको छूने का यत्न करने लगा। फिर उनके पास रेत में समर्पण भाव से लेट गया। काफी स्वस्थ दीख रहा था। हमने बातचीत की उससे। वह भी स्नेह की भाषा में कूंय कूंय करने लगा।

हमारे साथ साथ ही गोलू वापस आया। शिवकुटी मन्दिर के आसपास उसका मुहल्ला नहीं होने के कारण बहुत से कुत्ते उसके ऊपर आक्रमण करने लगे। बमुश्किल हम उसे बचा पाये। वैसे मुझे नहीं लगता कि उसका अपना कोई मुहल्ला है जिसमें उसके अपने गोल के कुत्ते हों। अन्यथा सवेरे पौने छ बजे गंगा के पानी में अकेले उसका बैठे पाया जाना समझ नहीं आता – बस्ती से एक मील दूर!
हमारे घर पंहुचने के पहले वह हमारे दरवाजे पर पंहुच गया था। दूध पी कर चला गया।
बन्धन वह नहीं चाहता। हमारे घर को स्वेच्छा से त्याग चुका है सवा साल पहले। उसका अपना कोई गोल भी नहीं। फिर भी हम से आत्मीयता रखता है। पहचानता और स्नेह करता है। उसकी दशा भी करुणामय नहीं है। स्वस्थ है वह।
कौन आत्मा है वह?!

कुत्ता अगर इतना अदभूत प्राणी ना होता तो कभी युधिष्ठर इतनी जिद ना करते इसे अपने साथ स्वर्ग ले जाने के लिए. अगर कुत्तो में भी वर्ण व्यवस्था हो तो ये निश्चित ही ब्रह्मण है अपनी बिरादरी में :-) वो भी पंहुचा हुआ क्योकि इसकी हरकते बता रही है कि है ये ससुरा उच्च कोटि का योगी. अब आप समझ सकते है योगी और वो भी बाभन कितना विलक्षण है ये संयोग!!
Arvind K. Pandey
http://indowaves.wordpress.com/
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हां बाभन तो न जोगी लायक हैं न गोजी लायक! हार्मलेस और निरीह! :)
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उसे आत्मीयता का आनन्द भाता है, बंधने में पीड़ा होती है। मुक्ति की उत्कण्ठा है पर जगत का सहारा चाहता है। अपना मुहल्ला नहीं चाहता, गंगा को बहते देखना चाहता है। जब तक आये सेवते रहिये, पुण्यात्मा है वह, अपना कर्म भोग त्याग देगा धरा को।
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अगले जन्म में बेहतर बने गोलू!
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देव,
दो एंगल उभरते हैं :-
१- दूध को स्वीकारती और डबलरोटी को नकारती ( कहीं अंडा न पड़ा हो ! ) , सुबह छह बजे गंगा स्नान करती, घर-बार के बंधन को तोड़ती एक अनासक्त आत्मा… Highly Improbable !
२- दूसरा यह है कि इस गोलू में स्नेहवश आप लोगों ने पहले वाले गोलू को ही दोबारा देखना चाहा, पर पहले वाले की तरह अपना नहीं मान पाये… यह क्योंकि एक बिल्कुल अलग मिजाज का प्राणी था… इसलिये एक दिन निकल भागा… आमतौर पर लोग अपने Pet को निकल भागने पर वापस पकड़ लाते हैं और फिर दोबारा न भाग पाये ऐसा जतन करते हैं… परंतु आपके परिवार ने ऐसा नहीं किया… इसी से यह यदा-कदा दूध पीने घर आ जाने वाला Loose Association विकसित हो गया… रही बात पानी में नहाने की, तो गर्मी लगने पर अक्सर कई कुत्ते करते हैं ऐसा…
…
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हां, दोनो तरह से सोचा जा सकता है। और दोनो तरह से सोच कर असंतुष्ट रहा जा सकता है अपने निष्कर्षों से!
You can not understand fully what is inside you. Much less, what is outside you! :)
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हाँ, निष्कर्षों से यह ‘ असंतोष ‘ ही तो आदमी की कौम को एक-दूसरे से संवाद के लिये प्रेरित करता है… सही कहें तो यही ‘असंतोष’ आदमजात का ‘ड्राइविंग फोर्स’ है…
बाकी भीतर-बाहर को समझने की यह प्रक्रिया तो अनंत काल तक चलती ही रहेगी… क्योंकि आदमी के खुद के बदलने की रफ्तार उसकी समझ के बदलने की रफ्तार से थोड़ा ज्यादा तेज होती है… ;)
सादर !
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यह तो बड़ा दिलचस्प वाकया है। किसी उपन्यास की पटकथा सरीखा ।
शायद किसी उपन्यास में मैंने ऐसा ही कुछ पढ़ा तो है किंतु याद नहीं कि किसका लिखा हुआ था, कब का था… जिसमें कि एक मां अपने छूटे हुए साधु बेटे से अचानक मिलती है, फकीरों सा भेष बनाये बेटे को घर लाकर खाना आदि खिलाती है, पंखा करती है, वह साधु अपने भाई भतीजों थोड़ा बहुत हाल चाल लेता है और सुबह ही निकल पड़ता है। मां उसकी बड़े भाई से तब कहती है कि उसे बांधना भी चाहूं तो नहीं बंधेगा…..बहता पानी और रमता जोगी ही भला लगता है। एक जगह टिक जाय तो खराब होना शुरू हो जाते हैं।
कभी याद आया तो वह उपन्यास / कहानी जरूर शेयर करूंगा।
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बताइयेगा याद आने पर! हम बने ही किताब पढ़ने के लिये हैं!
तीन तरह के लोग होते हैं – किताब लिखने वाले, किताब पढ़ने वाले और किताब खरीद कर सेने वाले! :)
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क्या लिखूं। गोलू की आत्मीयता से सराबोर हूं!
बहुत कुछ सीखने लायक होता है इन आत्माओं में।
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गोलू तो निमित्त होता है। अनुभव करना/ सीखना तो खुद को होता है!
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बड़ा ही अद्भुत और मनमोहन देसाई टाइप संयोग हो गया..
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मनमोहन देसाई की कोई फिल्म है क्या ऐसी?
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इसे पढ़कर जाय अडम्सन की तीन विश्वप्रसिद्ध कृतियाँ -बोर्न फ्री ,लिविंग फ्री और फारेवर फ्री याद आयीं -आप उन्हें पढ़ें –
सिविल लायिंस में मिल जायेगीं -excerpt तो नेट पर ही मिल जानी चाहिए ..
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Flipkart पर देखा, आउट ऑफ स्टॉक हैं! :-(
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कभी कभी आपकी पोस्ट पढ़ कर लगता है कि आप पूर्व जन्म में साधु संत रहे होंगे. इस गोलू की हरकत भी घोषणा करती है कि पूर्व जन्म में साधु संत रहा होगा…सब बंधनो से दूर. गंगा घाट भी दोनों को भाता है…बस, आप मूड तक डूब कर तन से तैरते नहीं मगर मन से भरपूर डूब डुबाई कर ही लेते हैं नित प्रात: और अपनी स्वयं की गोल बनाने का मामला….उस पर क्या कहें…आप तो ब्लॉगर हैं, सब समझते हैं.
जरुर पूर्व जन्म का साथ रहा होगा …इक्कठे एक आश्रम का. बद्रीनाथ वगैरह के आसपास की पहाड़ियों में…
हा हा!! मजाक कर रहे हैं अन्यथा न लिजियेगा.
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दो नहीं तीन थे बदरी आश्रम में। एक छटक कर टोरंटो चला गया! :-(
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लौटेगा एक दिन गोलू की तरह….अभी तो ईंहा ओंटारियों लेक में नाक निकाले तैरता मिलता है. :)
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सच्चा निष्काम कर्मयोगी.
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शायद।
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पुराने परिचित का इस प्रकार अचानक मिल जाना गद्गद कर जाता है।
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इस कुत्ते के साथ तो कई घटक हैं – हम यत्न कर भी उसे घरेलू नहीं बना कर रख सके। वह साथ न रह कर भी स्नेह करता है। वह अपनी शर्तों पर जीते हुये दयनीय नहीं बना, सफल ही कहा जायेगा।
उसका मिलना प्रसन्नता देता है, सोचने के बिंदु भी देता है।
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आत्मा तो पता नहीं कौन है… और पता नहीं कुकुर ऐसा है या आपका अवलोकन या फिर आपके लिखने का तरीका. जो भी हो. पर मुझे लिंक्स के साथ ये ‘वन ऑफ दी बेस्ट’ पोस्ट लग रही है आपके ब्लॉग की.
थोड़ी देर पहले पढ़ कर गया था कुछ समझ में नहीं आया क्या कहूँ.
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पता नहीं गोलू को वहां पा कर अजीब सा लगा था मुझे।
जैसा कुछ समझ नहीं आता।
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