सेवाग्राम का प्लेटफार्म


Sevagram1दक्खिन एक्स्प्रेस किसी स्टेशन पर रुकी है मैं यूंही दरवाजा खोल बाहर झांक लेता हूं – यह तो सेवाग्राम है। विनोबा का आश्रम यहां पर है। स्टेशन का बोर्ड सामने है। उसका चित्र उतार लेता हूं मोबाइल से। और न जाने कितने गये – बेतूल आमला मुलताई चिंचोडा … किसी का नहीं उतारा। नागपुर स्टेशन पर बाहर झांकने का यत्न भी नहीं किया। पर सेवाग्राम विशेष है। मेरे लिये वह,  अतीत ही सही, एक विचारधारा का प्रतीक है।

पर स्टेशन वर्तमान में लगा। साफ सुथरा है। प्लेटफार्म पर कोई खरपतवार तक नहीं। बापू या विनोबा को उसकी सफाई पसन्द आती। उसके सिवाय शायद कुछ नहीं। प्लेटफार्म कांक्रीट की टाइल्स के थे। हेक्सागोनल टाइल्स की एक और डिजाइन। उसे बिछाने पर सीमेण्ट का पलस्तर नहीं लगाना पड़ता जमाने के लिये। उन पर बने प्याऊ या अन्य दुकाने भी सिरमिक टाइल्स जड़ी थीं। बेंन्चें शायद सीमेण्ट की थीं, या सिंथेटिक प्लाई की पर उनके ऊपर ग्लेज्ड फाइबर की छत बनाई गयी थी – वृत्त के चाप के आकार की। पूर्णत आधुनिक ठोकपीट तकनीक का नमूना। अगर यहां खपरैल, मिट्टी, पेड़ की छाया इत्यादि का प्रयोग होता तो ज्यादा अच्छा लगता।

रेल की भाषा में सेवाग्राम शायद मॉडल स्टेशन हो। सुविधासम्पन्न। पर कौन सा मॉडल? सूत की माला वाला नहीं। वह तो अब जूता साफ करने के लिये जूट का विकल्प भर है!

प्लेटफार्म के आगे दूर सांझ  का धुन्धलका हो गया था। तेज रोशनियां चमकने लगी थीं। एक औद्योगिक सभ्यता की निशानी। शायद कोई फेक्टरी भी हो वहां पर। हाइ टेंशन तार गुजर रहे थे।

हवा में तेज सांस लेने पर सेवाग्राम की अनुभूति थी तो, बस नाम की। विनोबा या गांधी की भावना नहीं थी। खैर, स्टेशन गुजर गया था!

Sevagram2 [क्षमा करें, टिप्पणियों के मॉडरेशन और प्रकाशित करने में देरी सम्भव है। उनतीस और तीस जुलाई को मैं सिकन्दराबाद में व्यस्त रहूंगा।]


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

27 thoughts on “सेवाग्राम का प्लेटफार्म

  1. jab tak aap udhar vyast hain…….hum is post par ho lete hain……….

    ‘sevagram’ …….. nam ke anurup sayad bhaw nahi jaga ‘station’ par….

    pranam.

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  2. सफाई, शायद इसीलिए संभव हो सकी है.
    लगा कि मैं सबसे पहले पता करना चाहता कि इस स्‍थान का पुराना नाम क्‍या था.

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  3. सूत की माला वाला व्यंग्य चुभ सा गया। देखिये गांधी कहां कहां प्रयोग हो रहे हैं। शानदार लेखन।

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  4. बहुत वर्षों पहले वर्धा में करीबन एक महीने रहने का मौका मिला था, उस समय मैं नागपुर से वर्धा या तो बस से आता था या फ़िर ट्रेन से, कई बार हिमसागर एक्सप्रेस में सफ़र किया है कभी वर्धा तक तो कभी चंद्रपुर तक ।
    पुराने दिन याद आ गये सेवाग्राम का स्टेशन देखकर, पहले भी इतना ही साफ़ सुथरा रहता था यह स्टेशन।

    जब बापू या विनोबा यहाँ थे तब भी क्या यह स्टेशन था ? या बाद में बसाया गया ?

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    1. मैं भी पहले पुळगांव रहा हूं। सेवाग्राम/वर्धा आया करता था रतलाम/इन्दौर से। मेरे पिताजी पुळगांव पोस्टेड थे। सन 90-92 के आस पास की बात है!

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  5. और न जाने कितने गये – बेतूल आमला मुलताई चिंचोडा …
    प्रणाम गुरुवर…आपका लिखने का अंदाज निराला है ..खपरैल, मिट्टी, शायद रखरखाव को मद्दे नजर रख
    कर प्रयोग न किया गया हो | कुछ स्थानों पर पहुचने के बाद अजीब अनुभूति होती है …कुछ तो है ..
    गिरीश

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    1. धन्यवाद गिरीश जी, हिन्दी ब्लॉगरी ने यह लेखन परिमार्जित किया है कुछ हद तक। अन्यथा अंग्रेजी के शब्दों की भरमार होती थी लिखने में। अब भी काफी हद तक है!

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  6. 1930 में गांधी जे ने साबरमती आश्रम छोड़ दिया और उन्होंने प्रतीज्ञा की कि स्वराज मिलने के बाद ही वह साबरमती आश्रम लौटेंगे। इसके बाद वे सत्याग्रह आश्रम वर्धा चले आए।
    वर्धा में सेवाग्राम आश्रम बनाया जाने लगा। यह वर्धा से पांच मील की दूरी पर था। बहुत सारे लोग इस आश्रम के बनवाने में सहयोग करने लगे। गांधीजी सेवाग्राम स्थल पर ही झोपड़ी बनाकर रह रहे थे। बाक़ी लोग शाम को वर्धा लौट जाते। वर्धा से अश्रम स्थल का रास्ता बेहद ख़राब था। सड़क उबड़-खाबड़, ऊंची-नीची थी। लोगों को आने-जाने में काफ़ी परेशानी का सामना करना पड़ रहा था।
    कुछ लोगों ने बापू को सलाह दी कि यदि वे प्रशासन को पत्र लिखें तो वह रास्ता प्रशासन के सहयोग से जल्दी बन जाएगा और लोगों को आने-जाने में सुविधा होगी। गांधी जी ने मुस्कुराते हुए कहा, “प्रशासन को लिखे बग़ैर भी यह रास्ता ठीक हो सकता है। ”
    गांधी जी का कहा लोग समझ नहीं पाए। गांधी जी ने उन्हें समझाते हुए कहा, “यदि हर कोई वर्धा से आते-जाते समय इधर-उधर पड़े पत्थरों को रास्ते में बिछाता जाय, तो रास्ता ठीक हो सकता है।”
    अगले दिन से ही लोग आते-जाते समय पत्थरों को रास्ते के लिए डालते जाते और उसे समतल करते जाते। गांधी जी आश्रम का निर्माण सहयोग, सेवा और समर्पण से ही पूरा परवाना चाहते थे। वैसा ही हुआ। अपनी जीवन पद्धति, सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलकर बापू ने हमें बहुत सी सीख दी है, सेवाग्राम उसका एक उदाहरण है।

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  7. कोई सर में धरता है, कोई उससे जूते साफ करता है। गांधी प्रयोग की वस्तु हो गये हैं वर्तमान की राजनीति में, इतना दुख तो उन्हें अपने प्रयोगों से न हुआ होगा। अगला सप्ताह हमारा भी नखलऊ में बीतने वाला है, प्रशिक्षण है।

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  8. प्लेटफ़ार्म धांसू है। यहीं से उतरकर वर्धा विश्वविद्यालय जाया जाता है जहां ब्लागर कार्यशाला होती है और उसके बाद खूब सारे लेख लिखे जाते हैं। :)

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    1. वो आयोजक बन्दा तो नखलऊ चला गया। अब भी आयेंगे क्या हिन्दी ब्लॉगर गण यहां!

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      1. तब तो मेरे ख्याल से अब चारबाग़ स्टेशन की फ़ोटो प्रचारित/प्रस्तारित करना ज़्यादा ठीक रहेगा :)

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      2. अभी प्रेमचंद जयन्ती के मौके पर वर्धा विश्वविद्यालय के कुलपति जी लखनऊ आये थे। अगली गोष्ठी की चर्चा हुई। मैंने जगह बदलने का सुझाव दिया। वे सहमत हो लिए। इस बार गोष्ठी कलकत्ते में आयोजित होने की प्रबल संभावना है।

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        1. अच्छा है। शिवकुमार मिश्र और प्रियंकर जी हैं न वहां! बालकिशन भी हैं!

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  9. कुछ तो बात रही होगी उन लोगों में… आज भी जिनकी परंपरा को यूं ही सादगी से निभाते आ रहे हैं उनके अनुयायी..

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    1. गान्धीजी के कॉसेप्ट्स को री-इनवेण्ट करना होगा। फ्र्यूगेलिटी उनमें से एक है!

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