मोहन लाल और पच्चीस हजार वाले लोग

मोहन लाल को बीड़ी फूंकते पाया मैने। साथ में हीरालाल से कुछ बात कर रहे थे वे। आसपास गंगाजी की रेती में सब्जियां लगाने – बोने का उपक्रम प्रारम्भ हो चुका था। मैने बात करने की इच्छा से यूं ही पूछा – क्या क्या लगाया जा रहा है?

सब कुछ – कोन्हड़ा, लौकी, टमाटर।

मोहन लाल (बायें) और हीरालाल

लोग काम में जुटे थे; ये दो सज्जन बैठे इत्मीनान से बात कर रहे थे। लगता नहीं था कि खेती किसानी के चक्कर में हैं। पर मोहनलाल प्रगल्भ दिखे। बताया कि गंगा उसपार भी खेती प्रारम्भ हो गयी है। गाज़ीपुर से लोग आ कर किराये पर कछार की जमीन ले कर खेती कर रहे हैं। दो हजार रुपया बीघा किराया है। एक बीघा में तीस पैंतीस क्विण्टल तक की पैदावार तो हो ही जायेगी। फलाने बैंक से लाख लाख भर का लोन लेते हैं। एक बीघा पर हजार-दो हजार का डी.ए.पी. लग जाता है। मुझे लगा कि ये सज्जन जैसे भी हों, दिमाग से तेज हैं। कछारी खेती के अर्थशास्त्र की बात कर ले रहे हैं।

मोहन लाल मेरी पत्नीजी से बात करते हुये।

मेरी पत्नीजी ने उनके खेती के काम में आमदनी से सम्बन्धित कुछ पूछ लिया। इसपर मोहन लाल को गरीब-अमीर की चर्चा करने का सूत्र दे दिया।

उनके अनुसार कई लोग (हमारी ओर ताक रहे थे मोहन लाल) सरकारी मुलाजिम हैं। तनख्वाह मिलती होगी पच्चीस हजार महीना। पच्चीस हजार की बात मोहनलाल ने कई बार कही – मानो पच्चीस हजार बहुत बड़ी रकम हो। सरकारी आदमी को तो फर्क नहीं पड़ता कि कल क्या होगा। कल रिटायर भी हुये तो आधी तनख्वाह मिलेगी। कछार में खेती करने वाले को तो मेहनत पर ही गुजारा करना है।

मेरी पत्नीजी ने कहा – हमें नौकरी का सहारा है तो आप लोगों को गंगाजी का सहारा है। गंगामाई कहीं जा नहीं रहीं। हमेशा पेट पालती रहेंगी आप लोगों का।

मोहन लाल ने हैव्स और हेव-नॉट्स पर अपना कथन जारी रखा। गंगामाई कि कृपा जरूर है; पर गरीब तो गरीब ही है – आगे जाइ त हूरा जाये, पाछे जाइ त थुरा जाये (आगे बढ़ने पर घूंसा मार कर पीछे धकेला जायेगा और पीछे हटने पर मार खायेगा)!

मैने कहा – सटीक कह रहे हैं – गरीब की हर दशा में जान सांसत में है।


मोहन लाल की वाकपटुता कुछ वैसी ही थी, जैसी हमारे यूनियन के नेता दिखाते हैं। उसे भी बहुत देर तक नहीं झेला जा सकता और मोहन लाल को भी। उनमें कुछ बातें होती हैं, जो याद रह जाती हैं। उनका आत्मविश्वास देख लगता है कि अपने में कुछ कमी जरूर है। कौन अपनी कमी का अहसास देर तक करना चाहेगा।

मैने मोहन लाल का नाम पूछा और कहा कि फिर मिलेंगे और मिलते रहेंगे हालचाल लेने को। वहां से चलने पर बार बार गणना कर रहा था मैं कि पच्चीस हजार रुपये, जो बकौल मोहन लाल मेरी तनख्वाह होनी चाहिये, में कितनी साहबियत पाली जा सकती है।


एक सज्जन जो कह रहे थे कि खेती शुरू करने में देर हो गई है!

कछार में खेती कैसे चल रही है, यह सवाल वहां के हर आदमी से करने लग गया हूं। एक सज्जन, तो स्वत: मुझसे नमस्ते कर रहे थे और कोन्हड़ा के लिये थाला खोद रहे थे, से पूछा तो बोले कि देर हो गयी है। गंगा माई की बाढ़ सिमटने में देर हो गयी।

अरविन्द मिला तो उससे भी पूछा। वह बोला कि आज पहली बार आया है अपनी जमीन पर। उसके अनुसार देर नहीं हुई है। सवाल देर का नहीं है, सवाल सही प्लानिंग कर खाद-बीज-पानी का इंतजाम करने का है।

मेरे कछार के लोग – वही लोग वर्ग भेद की बात करते हैं वही लोग प्रबन्धन की भाषा में भी बोलते हैं। उन्ही में सरलता के दर्शन होते हैं। उन्ही में लगता है मानो बहुत आई.क्यू./ई.क्यू. हो। इसी जगह में साल दर साल घूमता रहूंगा मैं और हर रोज नया कुछ ले कर घर लौटूंगा में।

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

24 thoughts on “मोहन लाल और पच्चीस हजार वाले लोग

  1. चलिए, नए फसल की तैयारी हो गई, जो बन पड़ा, खाद-पानी हम भी देते रहेंगे.

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  2. काफी रोचक …”आगे जाइ त हूरा जाये, पाछे जाइ त थुरा जाये ” कितना प्रासंगिक है
    शिव कुटी का अर्थ शास्त्र ….फसल काटने तक इसे जारी रखिये …प्रणाम : गिरीश

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  3. मोहन लाल का पच्चीस हजार रुपये महीने वाला कट-ऑफ़ मन मोहन सिंह और मोंटेक सिंह के बत्तीस रुपये रोज वाले कट-ऑफ़ से कहीं ज्यादा प्रैक्टिकल है।
    आपका गंगा कछार भ्रमण यूँ ही चलता रहा और हम भी इस ग्रासरूट अर्थशास्त्र से परिचित होते रहें।
    आपको, आपके परिवार को और जवाहिर, अरविन्द, मोहन ला. हीरालाल, संजय, शंकर और गंगामाई की क्रुपा पर आश्रित सभी घटकों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें।

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  4. किसान का तो सारा हिसाब किताब टिप्स पर होता है . एक एक रुपये करके अपने खेत में लागत लगाता है कुल लागत आई १०० रु. तो उसे फ़सल मे इक्ट्ठे ९८ रु. मिल जाते है इसी में वह सन्तुष्ट है . किसान के उपर कर्जा हमेशा इसीलिये तो बरकरार रहता है

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  5. नौकरी और बिन्निस वालों को दूसरे का व्यवसाय अधिक सुहाता है। गरीबी और अमीरी तो मानसिकता का खेल है, करोड़पति को बहुत कुछ चाहिये और झोपड़ी वाला भी रात में भगवान का धन्यवाद कर सोता है।

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  6. अच्छा विमर्श रहा। वाकई भारतीय किसान मेहनत, किस्मत, बान्ध-बाढ-विनाश विभाग, पटवारी, महाजन, बीडीओ, आढती आदि पर निर्भर रहता है।

    हाँ, 25 हज़ार की बात पर तो आपको अपना प्रोटेस्ट लॉज करना चाहिये था। :)

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  7. ब्यास नदी के कछार में मेरे नाना भी गन्ना उगाया करते थे पर अब वहां वह बात नहीं रही, पोंग डैम के चलते पानी में समा गई है वह ज़मीन. वहां, जहां पहले निर्मल धारा बहती थी अब वहां कीचड़ ही कीचड़ है. जहां पहले हरियाली थी अब वहां पानी उतरने के बाद दूर-दूर तक पानी के साथ वह कर आया गंद ही रह जाता है… पनचक्कियों को भी लील गया है डैम… पहले हम नदी की धारा से अलग हुए पानी में नहाते थे, अब वे बीती बातें भर रह गई हैं. बहुत से परिवारों को तो विस्थापित हो कर राजस्थान के श्रीगंगानगर जाना पड़ा, विकास ने संस्कृति ही छीन ली…

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  8. आप अपने इन संस्मरणों को पुस्तक के रूप मे छपवायें तो पुस्तक का शीर्षक होगा “गंगामाई : पच्चीस हजारी की नजर से”

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