मैं उससे मिला नहीं हूं। पर अपने दफ्तर आते जाते नित्य उसे देखता हूं। प्रयाग स्टेशन से जब ट्रेन छूटती है तो इस फाटक से गुजर कर फाफामऊ जाती है। फाटक की इमारत से सटी जमीन पर चबूतरा बना कर वह बैठता है।
सवेरे जाते समय कई बार वह नहीं बैठा होता है। शाम को समय से लौटता हूं तो वह काम करता दिखता है। थोड़ा देर से गुजरने पर वह अपना सामान संभालता दिखता है। पता नहीं, अकेला रहता है या परिवार है इलाहाबाद में। अकेला रहता होगा तो शाम को यहां से जाने के बाद अपनी रोटियां भी बनाता होगा!
वह जूते मरम्मत/व्यवस्थित करता है, मैं माल गाड़ियों की स्थिति ले कर उनका चलना व्यवस्थित करता हूं। शाम होने पर मुझे भी घर लौटने की रहती है। बहुत अन्तर नहीं है मुझमें और उसमें। अन्तर उसी के लिये है जो अपने को विशिष्ट जताना चाहे और उसकी पहचान बचा कर रखना चाहे।
अन्यथा, उसके आसपास से ट्रेनें गुजरती हैं नियमित। मेरे काम में ट्रेनों का लेखा-जोखा है, नियमित। मुझे तो बहुत समय तक सीटी न सुनाई दे ट्रेन की, तो अजीब लगता है। इस प्रयाग फाटक के मोची को भी वैसा ही लगता होगा।
मेरे जैसा है प्रयाग फाटक का मोची। नहीं?
ज्ञानदत्त जी, आप का लेख पढ़ा अच्छा लगा, सही में कोई फरक नहीं लगता यह शरीर मशीन बन गयी है पैसे के लिए फिर कुछ भी बेंचकर पैसा ही तो हांसिल करना है, ब्यक्तित्व और अस्तित्व बिलुप्त प्रजातियां हो गयी हैं|
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इधर तो एक पोश कोलोनी में एक मोची ने वक्त की नजाकत देखते हुए कई साल पहले पेम्फलेट छपवाकर कोठियों में बंटवा दिए थे| अब एक सहायक भी रखा हुआ है जो घर से जूते चप्पल ले आता है और फिर मरम्मत, पालिश वगैरह के बाद पहुंचा भी आता है| खासा कामयाब है, और कई मैनेजमेंट सेमिनार्स में उसके उदाहरण भी दिए जाते हैं|
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बहुत अच्छी बात कही है…
मानवता की निशानी है यह..
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यदि आप सोचते हैं कि मोची और आप के काम में कोई खास फ़र्क नहीं है तो यह आपकी विनम्रता है।
एक बार एक कार का मेकैनिक ने एक डाक्टर (जो surgeon थे) से कहा
“डाक्टर साहब आप के काम में और हमारे काम में क्या फ़र्क है? हम गाडी के पुर्जों को संभालते हैं और आप शरीर के पुर्जों को। तो हमारी कमाई में इतना अंतर क्यों?
डाक्टर ने उत्तर दिया “अगली बार जब आप रिपेयर के काम में लगे रहते हैं तो गाडी की एंजिन को चलते रहने दिजिए!”
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
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बहुत खूब! हमारे ट्रेक्शन डिस्ट्रीब्यूशन वालों से में बार बार कहता हूं कि वे हॉट-लाइन इन्स्यूलेटर क्लीनिंग करें। पर वे कार मेकेनिक ही रहना चाहते हैं; डाक्टर नहीं बनना चाहते! 😦
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“अगली बार जब आप रिपेयर के काम में लगे रहते हैं तो गाडी की एंजिन को चलते रहने दिजिए!” – वाह !
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हम जो कुछ नहीं हैं, खुद को वही साबित करने के चक्कर में हम वह भी नहीं रह जाते जो हम हैं।
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अच्छा है 🙂
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हम सब अपने अपने क्षेत्र में “प्रयाग फाटक के मोची ” ही हैं…:-))
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