अभी अभी रेल मन्त्री महोदय ने नई ट्रेनें एनाउन्स की हैं। एक्स्प्रेस टेनें, पैसेंजर ट्रेनें, मेमू/डेमू सेवायें, यात्रा-विस्तार सेवायें और आवृति बढ़ाने वाली ट्रेन सेवायें। रेल बजट के पचास पेज में आठ पेज में यह लिस्ट है। हर रेल बजट में जनता और सांसद इस लिस्ट का इन्तजार करते हैं। कुछ सांसद तो अपने क्षेत्र की ट्रेन सेवायें जुड़वाने के लिये सतत लॉबीइंग करते रहते हैं। रेल सेवायें अगला चुनाव जीतने का रामबाण नुस्खा है। जनता को भी पांच परसेण्ट माल भाड़ा बढ़ने का ज्यादा गम नहीं होता; पर दो परसेण्ट किराया बढ़ जाये “मंहगाई डायन” वाले गीत बजाने की सूझने लगती है।
यात्रायें बहुत जरूरी लगती हैं लोगों को। जबकि वर्तमान युग में; जब संचार के साधन इतने विकसित हो गये हैं कि आदमी की वर्चुअल-प्रेजेंस का दायरा बहुत विस्तृत हो गया है; यात्रा की आवश्यकता उत्तरोत्तर कम होती जा रही है। इसके उलट लोग यात्रायें ज्यादा कर रहे हैं। शायद यह बढ़ती समृद्धि से जुड़ा मामला है।

अभी हमने देखा कि प्रयागराज में कुम्भ के अवसर पर बेशुमार भीड़ रही। यह धर्म से जुड़ा मामला था, या संस्कृति से – यह जानना समाजशास्त्रियों के डोमेन में आता होगा। पर कहीं यह सोच नहीं दिखी कि धर्म के आधार पर कुम्भ उस युग की आवश्यकता थी, जब सम्प्रेषण के बहुत एलॉबरेट साधन नहीं थे और एक स्थान पर इकठ्ठे हो कर ही विद्वत चर्चा सम्भव थी। आज एसएमएस, ईमेल, फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग… जाने कितने तरीके से लोग जुड़ सकते हैं और धर्माचार्य लोग भी इन साधनों का प्रयोग कर कुम्भ के प्राचीन ध्येय को कहीं बेहतर तरीके से सम्पादित कर सकते हैं। तब भी उन्हे कुम्भ के स्नान की पवित्रता और स्वर्ग-प्राप्ति की आशा से जोड़ने की कथायें प्रचारित-प्रसारित करने की जरूरत महसूस होती है।
फ्रैंकली, मुझे इस तरह के विशाल जमावड़े का औचित्य समझ नहीं आता। मैं यह भी जानता हूं, कि मैं एक अत्यन्त अल्पसंख्यक गुट में हूं इस मामले में। पर अगर मैं कभी किसी प्रकार का धर्माचार्य बना (हाईली अनलाइकली) तो इस तरह के जमावड़े को पूरी तरह अनावश्यक बनाऊंगा अपने धर्म में।
गुरुनानक या आदिशंकर की यात्रायें मुझे लुभाती हैं। आप घर से लोटा-डोरी-सतुआ ले कर निकल लें और अनचले रास्तों पर चलते चले जायें। कितना अच्छा हो वह। पर यह भी क्या कि एक ही जगह पर उफन पड़े मानवता – भगदड़, संक्रामक रोगों और अव्यवस्था को इण्ड्यूस करते हुये। पवित्र नदी को और गंदा करते हुये। …. हमारी धार्मिक सोच बदलनी चाहिये!
यात्रा की अनिवार्यतायें समय के साथ कम होनी चाहियें!
विवेक जागृत रहे लेकिन अगर लोग रुक गए होते तो सारी प्रगति रुक जाती आदमी को चाँद से आगे जाने दीजिये, ताकि अन्तरिक्ष यान भी चलते रहें और रेलगाड़ियां भी, … चरैवेति चरैवेति … चले चलो, चले चलो …
LikeLike
aapke in vichaaron se main purn rup se sahmat hoon. pranaam.
LikeLike
धर्म के नाम पर ऐसा जमावडा मुझे तो अपने अपराध बोध का सामूहिक सार्वजनिक स्वीकार लगता है।
LikeLike
बैठे ठाले अच्छा विचार.
LikeLike
आजकल बड़ी संख्या में लोग यात्राओं में निकल पड़ते हैं और इसका तात्पर्य है लोग संपन्न होते जा रहे हैं. यह सही बात लगती है, वैसे अछा है. रोजी रोटी का भी तो चक्कर है. बड़ी संख्या में लोग बिहार, उत्तर प्रदेश, असम, ओडिशा से दक्षिणी प्रांतों में आ रहे हैं. गंगा जी को प्रदूषण मुक्त रखने के लिए आपको धर्माचार्य बनाना होगा. हम भी साथ देंगे.
LikeLike
अभी त हम निकल रहे हैं कानपुर से जबलपुर की यात्रा पर सो आपका पोस्ट बांचेंगे मोबाइल पर औ टिपियायेंगे संस्कारधानी से। वैसे हम ये बात जानते हैं कि यात्राओं के जरिये आदमी देश, दुनिया और अपने आपको जित्ता जान समझ पाता उतना घर बैठे कब्भी नहीं जान सकता।
हमारा ये भी मानना है कि यात्राओं में बेवकूफ़ियां चंद्रमा की कलाओं की तरह खिलती हैं। त जा रहे हैं कला खिलाने। 🙂
LikeLike
भारत में धर्म के नाम का डमरू बजाने वालों से आप कहते कहते थक जायेंगे , टूट जायेंगे,मगर उन पर असर इतना ही होगा कि आप अफ़सोस ही करेंगे ।
भारतीय रेल आपको हर वो बात महसूस कराने में सझम है जिसकी कल्पना मात्र से यूरोप के किसी छोटे से देश का वाशींदा भी गश खा जाये ।
राजधानी । केप्रथम class से आप बिहार जाती किसी रेल के साधारण डिब्बे में जाइये आपको बैकुणठ से नर्क का दर्शन हो जायेगा ।
रेलगाड़ी की तरह हम भी हो चुके है , असमय आगमन / प्रस्थान , सीट के उपर सफ़ेद चदद्रर और नीचे मूँगफली के छीलके ,,,, अंतहीन कहानी
मेरा स्टेशन आ गया ।
निशी फूना बाशी
नमस्कार
LikeLike
कई लोग तो एक जगह रहते रहते ऊब जाते हैं और घूमने की ज़िद करने लगते हैं। इस विषय पर विस्तृत चिन्तन आवश्यक है। आज़ादी के बाद ५० नये शहर बसाने से सीमित शहरों की ओर आवाजाही कम होती।
LikeLike
“फ्रैंकली, मुझे इस तरह के विशाल जमावड़े का औचित्य समझ नहीं आता। मैं यह भी जानता हूं, कि मैं एक अत्यन्त अल्पसंख्यक गुट में हूं इस मामले में”
इस मामले में मैं आपके साथ हूँ। हम ऐसे काम ही क्यूँ करते हैं जिनसे पाप लगे और फिर हम उस पाप को धोने कुम्भ स्नान करने आयें।जीवन अगर शांत सच्चा और संयमी है तो कहीं स्नान करने जाने की जरूरत नहीं।।।काश इस बात को लोग समझें।
LikeLike
और गंगा मोक्षदायिनी हैं तो ऑफ सीजन में आ कर शान्ति से नहा कर चले जायें न! तब भी तो गंगाजी में पोटेंसी होती है पाप धोने की!
LikeLike
@ पर यह भी क्या कि एक ही जगह पर उफन पड़े मानवता – भगदड़, संक्रामक रोगों और अव्यवस्था को इण्ड्यूस करते हुये। पवित्र नदी को और गंदा करते हुये। …. हमारी धार्मिक सोच बदलनी चाहिये!
कोई नहीं सोंचता यह , सब एक के पीछे एक भागते हैं पुन्य कमाने… गंगास्नान करने…
इसी सोंच को चलते अब कुम्भ की छोडिये अन्य दिनों में भी गंगा स्नान को नहीं जाता , हम तो ऐसे ही सही हैं !
आपकी गंगा को दूषित मन ने गंदा किया भाई जी !
कैसे साफ़ करायेंगे अब ?
शुभकामनायें आपको !
LikeLike
गंगाजी का दूषण एक मुद्दा है। भेड़चाल की यात्रा उससे ज्यादा बड़ा मुद्दा। 😦
LikeLike