
कई कुत्ते दीखते हैं गंगा के कछार में। रोज सवेरे इधर उधर चक्कर लगाते हैं। लोग जो स्नान करते समय पूजा सामग्री चढ़ाते हैं, उसमें से खाद्यपदार्थ उनके काम आता है। गंगा में कोई मरा हुआ जीव बहता दीखता है तो उसे ये पानी में हिल कर खींच लाते हैं। अगर वह सड़ा हुआ नहीं होता तो वह उनका भोजन बनता है। इस ओर दूर दूर तक – रसूलाबाद से दारागंज तक श्मशान घाट नहीं है। इस लिये उन्हें मानव शव में मुंह मारने का अवसर नहीं मिलता।
कुछ साल पहले मैं एक दाह संस्कार में शामिल हुआ था अरैल के घाट पर। वहां मैने देखा कुछ कुत्तों को। वे जलती चिता से भी मांस लुचकने का प्रयास कर रहे थे। एक कुतिया भी थी। उसका थूथन इस प्रक्रिया में कुछ जला हुआ भी दिख रहा था। वह ज्यादा ही चपल थी लाशों में मुंह मारने में। डोम लोग इन कुत्तों को यदा कदा भगाते थे। अन्यथा डोम और इन कुत्तों – घटहा कुकुरों – में एक प्रकार का शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व था।

कल मैने गंगा तट पर सात आठ कुत्तों को देखा। वे मेरे पास चले आये थे। इस आशा में कि सफ़ेद रंग का मेरा मोबाइल शायद कोई खाने की वस्तु हो। जब उन्हे अहसास हो गया कि ऐसा नहीं है, तो एक एक कर छिटक गये। इन कुत्तों को मैने किसी तीर्थयात्री पर आक्रमण करते नहीं देखा। यही नहीं, किसी स्नान करने वाले के झोले पर मुंह मारते भी नहीं पाया। इनमें से कुछ कुकुरों को मैं चीन्हता हूं – वे हमारी गलियों में भी दिख जाते हैं। गली-घाट के हैं सो उनके शरीर पर खाज-खुजली, किलनी, आपस में लड़ने के कारण होने वाले घाव आदि भी होते हैं। उन्हे छूने का मन नहीं करता; पर वे आक्रामक या खतरनाक भी नहीं प्रतीत होते। सम्भवत: वे घटहे कुकुर नहीं हैं।

कल एक चित्र इन कुत्तों का फ़ेसबुक पर लगाया था मैने। मुझे सन्दीप द्विवेदी और विनोद तिवारी ने बताया कि ये घाटिये या घटहा कुकुर हैं – घाट के कुकुर। खतरनाक होते हैं। शायद वे श्मशान घाट के कुकुर होते हों। अन्यथा ढाई साल पहले मेरी एक पोस्ट थी – श्वान मित्र संजय। उसमें भी इन कुकुरों को देखा जा सकता है।

जो भोज्य शेष है, उसी में अपना निबाह कर लेते हैं श्वान। हम विश्व में अपना स्पष्ट भाग चाहते हैं।
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एक बार हम लोग पंचघनी के जंगल में हफ़्ते भर की ट्रैकिंग पर थे. जब कहीं जंगल में हमें कुत्ते मिलते थे तो पता चल जाता था कि आस पास कुछ घर ज़रूर मिलेंगे. कुत्ते और मनुष्यों का साथ रहता ही है.
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