परसों 21 फरवरी को मैं गोण्डा-लखनऊ खण्ड में निरीक्षण के लिये बने दल में बतौर परिचालन विभाग के विभागाध्यक्ष, शामिल था। इस क्षेत्र से परिचय का मेरा पहला मौका।
श्री के के अटल, महाप्रबन्धक, पूर्वोत्तर रेलवे ने दस दिन पहले मुझसे कहा था कि 20 तारीख तक पूर्वोत्तर रेलवे पर अपना पदभार संभाल लूं, जिससे कि इस निरीक्षण में शामिल होने से अन्य विभागाध्यक्षों से मेरा परिचय भी हो जायेगा और वातावरण का अहसास भी। इसको ध्यान में रख कर मैं दो दिन पहले ही गोरखपुर आ गया और इस निरीक्षण में शामिल हो पाया।

परसों सवेरे साढ़े छ बजे रेस्ट हाउस से निकला। निरीक्षण की ट्रेन तैयार थी और लगभग नियत समय पर चली। कुल 14 डिब्बों की गाड़ी। इसमें एक छोर पर इंस्पेक्शन कार (जिसमें चेयर कार की तरह बैठने की सीटें होती हैं और अंत में एक तरफ शीशे की बड़ी खिडकी होती है जिससे बैठे अधिकारी पीछे की रेल पटरियों का चलते हुये निरीक्षण कर सकें) और दूसरी छोर पर ब्रेकवान लगा होता है।
गाड़ी गोरखपुर से गोण्डा तक बिना रुके चली। गोरखपुर से निकलते समय कोहरा था, जो काफी समय तक साथ रहा। डेढ़ घण्टे बाद जब ठीक से दिखने लगा सूरज की रोशनी में, तो मैने पाया कि ट्रैक के साथ साथ समतल भूमि पर खेत थे, पानी पर्याप्त था। खेत हरे भरे थे। गन्ने की फसल परिपक्व थी – कटने की तैयारी में। सरसों के फूल पीले थे। मोहक! उसके अलावा गेंहूं के पौधे हरी चादर के रूप में थे। तीनों फसलें लगभग बराबर बराबर।

मेरे साथ रेल डिब्बे में श्री अरविन्द कुमार थे – मुख्य वाणिज्य प्रबन्धक। वे बता रहे थे कि कैसे उन्होने ई-मेल के माध्यम से कागज के प्रयोग में कटौती की है और सम्प्रेषण/निर्णय की प्रक्रिया त्वरित की है। मैं उन्हे अपने सोशल मीडिया और ब्लॉग के प्रयोगों के बारे में बता रहा था। उनके पास सम्प्रेषणीय कनेक्टिविटी के, और उस कनेक्टिविटी से अपने विभागीय कार्य में दक्षता बढ़ाने के कई विचार हैं। उन्हे केवल तकनीकी प्रयोग और पॉसिबिलिटीज़ का सम्पुट मिलना चाहिये। हम दोनो ने पाया कि तकनीकी पक्ष पर एक पावरप्वाइण्ट प्रेजेण्टेशन ऑर्गेनाइज कर आपस में ब्रेन-स्टॉर्मिन्ग होनी चाहिये।
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गोण्डा में लखनऊ रेल मण्डल के अधिकारी मिले। महाप्रबन्धक महोदय का आरपीएफ बैण्ड ने स्वागत किया और वर्दीधारी कर्मियों ने गार्ड-ऑफ ऑनर दिया। उसके बाद निरीक्षण प्रारम्भ हुआ। महाप्रबन्धक महोदय ने क्र्यू लॉबी में चालकों और सहायक चालकों से आमने सामने बातचीत कर उनकी समस्यायें सुनीं। उनका विचार था कि लोको पाइलट/सहायक को पर्याप्त निर्धारित रेस्ट और मांगने पर छुट्टी मिल जानी चाहिये। श्री अटल, मैकेनिकल इंजीनियरिंग के अफसर हैं और अपनी विभागीय पोस्टिंग्स में ट्रेन चालकों इस केटेगरी के साथ काफी इण्टरेक्ट किया होगा। अत: उनकी जरूरतों और समस्याओं के प्रति उनका सहृदय होना समझ आता है। पर उन्हे मैने अन्य स्ट्रीम के लोगों के प्रति भी तर्कसंगत और सहृदय पाया।

शीर्ष नेतृत्व में सभी के प्रति समभाव और दक्षता का सम्मान एक महत्वपूर्ण गुण है। कर्मचारी और अन्याधीनस्थ यह सूंघते-भांपते रहते हैं और नेतृत्व के प्रति इसी आधार पर अपनी राय कायम करते हैं। रेलवे के डिपार्टमेण्टल तरीके से बंटे होने का यही तोड़ है कि शीर्ष नेतृत्व सभी को उनके संकीर्ण विभागीय लक्ष्यों के टकराव से ऊपर खींचते हुये समदर्शिता बनाये रखे। खैर, मेरा यह पोस्ट रेलवे की आन्तरिक संरचना पर प्रकाश डालने के लिये नहीं है। वह लिखने का अभी समय नहीं आया! 😆

गोण्डा स्टेशन निरीक्षण के आगे निर्धारित लेवल क्रासिंग गेट – मानव रहित और मानव सहित, दोनो प्रकार के; ट्रैक की गोलाई, पुल आदि के निरीक्षण किये गये। मानव सहित रेलवे लेवल क्रॉसिंग गेट पर गेट मैन टोपी पहने थे। वह मुझे बेहद आकर्षक लगी। सामान्यत: गेटमैन लाल फेंटा या साफ़ा बांधे रहते हैं। यहां उनकी टोपी नेपाली टाइप थी। शायद नेपाल नजदीक होने का असर हो। उनके औजार चमकदार और साफ़ सुथरे थे। वे तानव में लग रहे थे, पर सवालों के जवाब सही सही दिये। लेवल क्रासिंग गेट आकर्षक था और ईनाम का हकदार भी।
मानव रहित लेवल क्रासिंग भी हेक्सागोनल टाइल्स लगा होने के कारण सतह से समतल था। दोनो ओर सड़क ढलान पर थी और इस जगह पर लेवल क्रासिंग हटा कर लिमिटेड हाइट सब-वे बनायी जा सकती है जो सड़क और रेल यातायात दोनो के लिये फायदेमन्द है। भविष्य में शायद ऐसा करने की योजना भी हो।

आगे एक बड़े पुल के निरीक्षण का कार्यक्रम था। घाघरा नदी पर 61मीटर 17 स्पान का एक पुराना पुल है, जिसपर सिंगल लाइन के जमाने से रेल जाती रही है। उसी के बराबर एक दूसरा पुल भी बनाया गया है रेल दोहरीकरण के काम में। दोनो पुल लगभग बराबर हैं और पास पास भी।
पुल पार कर इंस्पेक्शन स्पेशल रुकी तो बहुत से अधिकारी-कर्मचारी इस स्थान के चित्र लेने लगे। मोबाइल और टेबलेट्स ने बहुत से आशु-फोटोग्राफर बना दिये हैं पिछले कुछ वर्षों में। उनकी दक्षता और उनका अनाड़ीत्व देखते ही बनता है। … मैने अनुमान लगाया कि अगर एक किलोबाइट एक किलोग्राम वजन बराबर हो, तो जितने चित्र इस निरीक्षण में खींचे जा रहे हैं, वे शायद एक मालगाड़ी (3500टन) के बराबर हों – या उससे भी ज्यादा!

घाघरा का पाट काफी चौडा है। गंगा जितना नहीं, पर नदी बड़ी और आकर्षक है। बताया गया कि इस साल बाढ़ में काफी पानी था। फिर भी, कछार एक विशालकाय पाकड़ का वृक्ष मुझे सही सलामत दिखा। इतना बड़ा पेड़ तो लगभग सौ साल का होगा। न जाने कितनी बड़ी बड़ी बाढ़ झेली होंगी उसने।
पाकड़ – छिउल(पलाश), बरगद, पीपल, गूलर, आम और शमी की तरह का पवित्र वृक्ष एक हिन्दू के लिये। उस बड़े पाकड़ को देख मन हुआ कहने को – पाकड़ायै नम:! घाघराघाट-चौकाघाट के घाघरा दर्शन/निरीक्षण के बाद निरीक्षण स्पेशल लखनऊ तक लगभग बिना रुके आयी। गोमतीनगर में कुछ समय रुकी। यह स्टेशन नया बना है। निकट भविष्य में शायद यहां कुछ ट्रेने रुकने भी लगें। इसके आसपास की जमीन की कीमत यहां रुकने वाली ट्रेनों के समानुपाती वृद्धि करेगी – या शायद उसके वर्ग के अनुपात में! 🙂
मैं जानता हूं कि निरीक्षण के बारे में मैने बहुत कुछ नहीं लिखा है। पर जो भी ऊपर है, उससे आपको कुछ अन्दाज तो हो ही जायेगा। वही ध्येय है!
निरीक्षण (नियमित और आकस्मिक दोनो प्रकार के) करने और उसके माध्यम से नियंत्रण करने, काम करने की रेलवे की पुरानी परम्परा रही है। वह उपयोगी है, या नहीं, इसपर बहस होती रहती है। अन्य संस्थानों की बजाय रेलवे का तंत्र बहुत व्यापक है और पिरामिड बहुत स्टीप (Steep) है। अत: अन्य संस्थानों की बजाय कार्यप्रणाली में अंतर तो होंगे ही। पर निरीक्षणों के स्वरूप में बदलाव पर चर्चा तो चल ही सकती है। चलेगी ही।

अपनी तमाम खामियों के बावजूद भारतीय रेल व्यवस्था देश के लिये एक अनूठी उपलब्धि है। 🙂
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श्रीमान,
आपका लेख रोचक व ज्ञानवर्धक है। इसे पढ़ कर प्रसन्नता हुई।
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जिस रोचकता से आपने निरीक्षण का चित्रण किया है वह सराहनीय है.
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बहुत अच्छा सर….आपने अपने ब्लॉग में निरीक्षण का बड़ी सजीवता से चित्रण किया है. यह एक तकनीकी विषय है.पर आप ने इस तकनीकी विषय को इतने सरल ढंग से प्रस्तुत किया है , जो रेलवे से इतक व्यक्तियों के लिए समझने में सुलभ है.
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