मुर्दहिया

बहुत पहले – बचपन की याद है। गांव सुकुलपुर। एक ओर किनारे पर चमरौटी और पसियान। तीन=चार साल का मैं और वहां से गुजरते हुये अपने से एक बड़े की उंगली थामे। मन में कौतूहल पर बड़े मुझे लगभग घसीटते हुये तेज कदमों से वहां से ले आये। कुछ इस अन्दाज में कि अगर वहां रुका तो कोई जबरी मुंह में मछरी या मांस डाल देगा।

भय का तिलस्म से गहरा नाता है। चमरौटी/पसियान के तिलस्म में वही सब बनाया गया था मेरे बचपन में। वह तिलस्म अभी भी पूरा टूटा नहीं है। अन्यथा गंगाजी के कछार में घूमते हुये मन में कई बार आया था कि चिल्ला गांव जा कर पासी-केवट-मल्लाह की जिन्दगी देखी जाये। कल्लू ने एक बार निमंत्रण भी दिया था अपने घर आने का। पर वह हो नहीं पाया।

शिवकुटी के गंगा-कछार में कई ब्राह्मणिक वर्जनायें तोड़ी हैं मैने। पर चमरौटी/पसियान में घूम कर वहां के वातावरण को अनुभव करने की बात अभी नहीं हो पायी। खैर, अभी जिन्दगी आगे है। … बाज की असली उड़ान बाकी है। वह सब भी होगा समय के साथ।

इन्ही वर्जनाओं का प्रभाव हो शायद कि दलित-बौद्ध-मार्क्सवादी-जे.एन.यू. छाप साहित्य या दर्शन मुझे दूसरे एक्स्ट्रीम की स्नॉबरी लगते रहे। कभी उनमें पैठने का प्रयास नहीं किया।

अत: उस दिन जब नितिश ओझा ने  आग्रह किया कि मैं डा. तुलसीराम की पुस्तक मुर्दहिया पढ़ूं, तो बिना किसी ललक के वह पुस्तक अमेजन.इन पर ऑर्डर की। जब कल वह किताब मिली तो आशंका सही निकली – डा. तुलसी राम “दलित-बौद्ध-मार्क्सवादी-जे.एन.यू. छाप साहित्य” वाले ही निकले।IMG_20150217_091238

मैने नितिश को सन्देश दिया –

तुलसीराम जी की पुस्तक मिल गयी मुझे – मुर्दहिया। दलित, बौद्ध और मार्क्सवादी – तीनों प्रकार का साहित्य मेरे प्रिय विषय नहीं हैंँ। पर आपने कहा है तो पढ़ कर देखता हूं। :-)

उनका उत्तर मिला –

ओहह !!… सर कभी टेस्ट बदल कर देखिये …. कम से कम मूक दर्शक की भांति ही ….. तो भी न पसंद आए तो मुझे दान कर दीजिएगा ब्राह्मण होने की वजह से मुझे आपसे स्वीकार करने मे संकोच नहीं होगा या फिर अमेज़न पर 30 दिन की रिटर्न पॉलिसी भी है..

पर मैं चाहूँगा की आप पढे … एक नायाब कृति विशेषकर आत्मकथा लिखने का अनूठा ढंग …. पूरब के देसी छौंक के साथ …

मैं मुर्दहिया पढ़ना शुरू कर चुका था। अपने  ‘दलित-बौद्ध-मार्क्सवादी’ विरोधी पूर्वाग्रह को परे रख कर। और उस पुस्तक में वह सब मिल रहा है जो मेरे बचपन से अब तक चले आ रहे कौतूहल का शमन करता है। वह सब; जिसके बारे में बहुत टेनटेटिव तरीके से मेरी जानकारी है। या, जानकारी है भी तो उसके प्रति संवेदनशील नजरिया वैसा नहीं है।

दलित साहित्य की स्नॉबरी युक्त पुस्तकों के एक दो पन्ने पढ़ कर छोड़ चुका हूं कई बार। पर यह मुर्दहिया तो भिन्न प्रकृति की है। भिन्न और बांध कर रखने वाली।

और मुर्दहिया मैं पढ़े चला जा रहा हूं। भूमिका में लेखक ने इसके खण्ड-दो की बात भी कही है – जिसमें गांव से आगे कलकत्ता-बनारस-दिल्ली-इंगलैण्ड-रूस की जीवन यात्रा भी है। लेखक तो इस महीने नहीं रहे। पता नहीं वह खण्ड-दो लिख पाये या नहीं। पर मुझे तो यह आजमगढ़ के उनके गांव का मुर्दहिया का खण्ड-एक बहुत ही रोचक लग रहा है।

नितिश के शब्दों में कहूं तो मुर्दहिया एक नायाब कृति है!     

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

4 thoughts on “मुर्दहिया

  1. अच्छी जानकारी दी आपने। जरूर पढूँगा।
    आजकल आपकी पोस्ट बहुत अंतराल से आ रही हैं क्या बात है? तबीयत तो बराबर है न?

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  2. मुर्दहिया मैंने तद्भव पत्रिका में पढ़नी शुरु की थी। कुछ अंश पढे। अब किताब मंगानी है। बढिया किताब है।

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    1. आज उसका दूसरा भाग – ‘मणिकर्णिका’ मंगवाया। यह पुस्तक भी तद्भव पर दिखती है टुकड़ों मेँ।

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