समय, वर्ग, वर्ण और मैं

समय के साथ साथ समाज भी बदलता गया है मेरे लिये। स्कूली शिक्षा, और उसके बाद विश्वविद्यालयीय शिक्षा में मेरे लिये न कोई वर्ण था, न वर्ग। स्त्री और पुरुष का भी भेद न था – कक्षा में स्त्रियां लगभग थी ही नहीं। मित्रों में हिन्दू, मुसलमान सब थे। पिलानी में गुजराती, मराठी, मदरासी सभी थे। पोस्ट आफिस के डाकिये – महेश जी की हम अपने ताऊजी की तरह इज्जत करते थे। उनके साथ चाय पीते थे। वह शायद सामाजिकता का गोल्डन पीरियड था।

नौकरी, और सरकारी नौकरी में क्लास से बहुत तगड़ा परिचय हुआ। ग्रुप ए, बी, सी, डी में बंट गयी दुनियां। ग्रुप ए में होने के कारण हम अंगरेजों के उत्तराधिकारी थे। शेष सब के लिये डेमी-गॉड सरीखे। शुरु में यही सिखाया गया।

रेलवे में क्लास कॉंशियसनेस काफी है। शायद मिलिटरी में भी है। इस कॉंशियसनेस को दूर करने का बहुत प्रयास किया मैने अपने में। पर क्लास का अन्तर बना रहा, रेल सेवा के अन्त तक।

मुझे याद है कि भटनी में रनिंग रूम का इन्स्पेक्शन करते समय इतनी बढिया सफ़ाई दिखी थी कि मैने सफ़ाई वाले को गले लगा लिया था। वह अचकचा गया था। मुझे यह भी याद है कि पूरी नौकरी के दौरान मैने किसी अन्य ग्रुप ए अधिकारी को ऐसा करते नहीं देखा। फिर भी, गांधीजी के सत्य के प्रयोग की तर्ज पर यह जरूर स्वीकार करूंगा कि क्लास का वर्गीकरण मेरे पर्सोना में जो आया, सो मिट नहीं पाया। अब वह चला गया है, नौकरी के साथ साथ।

नौकरी के बाद रिटायर होने पर क्लास तो नहीं, वर्ण/कास्ट सशक्त तरीके से दिखने लगा है अपने परिवेश में। गांव में आने पर; उत्तर प्रदेश के सामन्ती अतीत की बदौलत; आसपास जातिगत विभाजन जबरदस्त दिखता है।

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रेल लाइन के किनारे गांव का बभनान

मेरा घर गांव के बभनान से अलग जगह पर है। मुझे बताया गया कि गांवों में सवर्णों की बस्ती के (सामान्यत:) दक्षिण में चमरौटी होती है। मेरा घर सवर्णों की बस्ती से दक्षिण-पूर्व में है। मेरे घर के पश्चिम में चमरौटी है, उत्तर में पासी और दक्षिण में बिन्द (केवट) रहते हैं। इन सभी के सोशल ट्रेट्स/करेक्टरस्टिक्स में बड़ा अन्तर है। पहले पहल मैं उन्हे उन ट्रेट्स के आधार पर देखने के नजरिये को अनदेखा करता था। इन सभी बस्तियों में घूमा। घर घर जा कर लोगों के मिला। मुझे लगा कि ऐसा कर मैं उनके साथ समांग (होमोजीनियस) बन जाऊंगा। पर वैसा हुआ नहीं। अभी भी मैं अपने लिये समाज में अपने को-ऑर्डिनेट्स तलाश रहा हूं।

गांव में क्लास खत्म हो गया, पर उसका स्थान कास्ट ने बहुत तेजी से ले लिया। मैं क्लास-व्यवस्था में असहज था। कुछ कुछ मिसफ़िट। अब कास्ट-व्यवस्था में भी असहज हूं। बहुत हद तक मिसफिट। देखता हूं कि कास्ट/वर्ण मुझे लील लेता है या मैं उसका सहजीकरण कर पाता हूं।

यह भी सम्भव है कि निस्पृह बन जाऊं अन्तत:।  … रमानाथ अवस्थी की पक्तियां याद आती हैं – भीड़ में भी रहता हूं वीराने के सहारे, जैसे कोई मन्दिर किसी गांव के किनारे।

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

6 thoughts on “समय, वर्ग, वर्ण और मैं

  1. हमको कभी किसी क्लास से कोई अलगाव महसूस नहीं हुआ। दिहाड़ी वाले मजदूरों से हम रोज खूब बतिया लेते हैं, उनके घर, परिवार, बीबी-बच्चों के हाल पता कर लेते हैं। आप भी लगे रहिये। क्लास के साथ कॉस्ट भी हवा हो जायेगी। :)

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  2. न जाने कितनी उपाधियाँ लादे घूम रहे हैं हम। हम उतारते हैं तो दूसरे हमें उढ़ा जाते हैं। चढाई उतराई में जीवन निकल गया।

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  3. आख़िरी पंक्ति ने मनको छू लिया है। सर, अच्छा लेख है।

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