मार्च’5, 2017:

सवेरे की साइकलिंग में हम चले जा रहे थे। राजन भाई और मैं। राजन भाई से मैने कह दिया था कि सड़क-सड़क चलेंगे। पगडण्डी पर साइकल चलाने में शरीर का विशिष्ट भाग चरमरा उठता है। पर राजन जी ने बीच में अचानक पगडण्डी पकड़ ली थी और मैं पीछे चले जा रहा था। मुझे लगने लगा कि आज अच्छा फंस गये हैं। शायद बहुत ज्यादा साइकल चलानी पड़े। पता नहीं, अंगद जैसी दशा न हो जाये! वापसी के लिये अपने ड्राइवर को फोन कर वाहन मंगवाना पड़े घर से।
वैसे पगडण्डी समतल थी। जमीन ठोस। डामर की सड़क अगर उधड़ गयी हो, तो उसमें जितना डिस-कम्फर्ट होता है, उसके मुकाबले कहीं कम था इस रास्ते में। दोनों ओर गेंहूं के शानदार खेत थे। हरे, विशाल गलीचों जैसे। लगता है इस साल फसल बम्पर होगी। जीडीपी ग्रोथ में कृषि का योगदान बढिया रहेगा चौथे क्वार्टर में भी।
अचानक मानव निर्मित खेत खत्म हो गये और गंगा माई की खेती प्रारम्भ हो गयी। गंगा माई के इस ओर के खेत करारी मिट्टी के हैं। ऊबड़-खाबड़। उनमें सरपत लगे हैं। बहुत ऊंचे-ऊंचे नहीं थे सरपत। पर वह स्थान था मानव रहित। पगड़ण्डी भी अपनी ढलान से बताने लगी थी कि आगे नदी है।

नदी दिखने लगी। तब एक दो झोपड़ियां दिखीं – उनपर झंडे लगे थे। एक फ्लैक्सी बोर्ड भी टंगा था। उस पर यह लिखा था कि यह जगह रात्रि में माताओं, बहनों के ठहरने की नहीं है। उसमें ऊपर “जय बाबा कीनाराम” लिखा था। जैसा मुझे मालुम है बाबा कीनाराम (सिद्ध) तान्त्रिक थे। अघोरी।

टीन के शेड के नीचे काली माँ की काली/भयावह प्रतिमा थी। उनके पास चार मानवी खोपड़ियां रखी थीं। सामने एक थाले में श्मशान की लकड़ियों के दो बोटे सुलग रहे थे।
कोई तान्त्रिक या कोई भी व्यक्ति आसपास नहीं दिखा। मैने झोपड़ियों में ताक झांक की। वहां भी कोई न था। हम दोनो अपनी साइकलें रख गंगा तट की ओर बढ़ लिये।
तट का ढलवां रास्ता साफ़ था। पगडण्डी। सरपत और बबूल की बाड़ लगे बड़े बड़े सब्जियों के खेत थे नदी के किनारे। बस पगडण्डी की जगह छोड़ दी थी खेती करने वालों नें। खेत की रखवाली करने वालों के लिए सरपत की मड़ईयां भी थी। एक खेत, जिसमें कोई नहीं था, बड़ी सुन्दर मड़ई थी। मैं उसका चित्र लेने के लिये बाड़ हटा कर चला गया। यह सावधानी रखी कि किसी पौधे या बेल को न कुचल दूं।


नदी में कुछ लोग नहाने के लिये पंहुचे थे। केवल दो-चार लोग। एक सज्जन वापस आ रहे थे तो उनको मैने नमस्कार किया। उत्तर न मिलने पर फिर से बात करने पर पता लगा कि वे ऊंचा सुनते हैं। उन्होने बताया कि कोई पाठक (ब्राह्मण वर्ण का सरनेम) हैं। पास के गांव कमहरिया के। रोज नहाने आते हैं।
अचानक एक छरहरा, गौर वर्ण, बड़े बाल और दाढ़ी वाला, सफ़ेद कपड़े पहने नौजवान तपस्वी नहाने के ध्येय से वहां पंहुचा। उससे पूछने पर पता चला कि पास के आश्रम में रहते हैं वे सज्जन। आश्रम अघोरी आश्रम के बगल में है। पहले ये तपस्वी केवटाबीर (पास के गंगा तटीय गांव) के जगतानन्द आश्रम में रहते थे। दो-चार दिन पहले यहां चले आये। यह आश्रम खाली पड़ा था। यहीं डेरा जमा लिया है उन्होने।
अकेला, नौजवान तपस्वी। बहुत आकर्षक व्यक्तित्व। काहे जवानी बरबाद (?) कर रहा है इस निर्जन स्थान पर। अघोरी आश्रम के बगल में। अटपटा लगा हमें।

मैने पूछा – क्या करते हैं आप यहां रह कर?
“महाकाव्य की रचना कर रहा हूं। बहुत कुछ लिखा जा चुका है। पहले जगतानन्द धाम में लिख रहा था। एकान्त के लिये यहां चला आया।”
उन्होने बताया – “पांच शती पहले भारत वर्ष की दशा खराब थी। उस समय उत्थान के लिये तुलसी ने रामकथा को ले कर काव्य लिखा – रामचरितमानस। आज भी समाज की वैसी ही दशा हो रही है। क्षरण और पतन की दशा है। इसलिये मैं कृष्ण कथा को आधार बना कर यह काव्य लिख रहा हूं। सात अध्यायों का यह काव्य है।”
अपेक्षा नहीं थी मुझे कि इस जगह पर इस प्रकार का कोई व्यक्ति मिल जायेगा। मैने लेखन देखने की जिज्ञासा व्यक्त की। यह भी कहा कि अगर इस प्रकार का कुछ लिखा जा रहा है तो लोगों को पता तो चलना चाहिये। तपस्वी भी (सम्भवत:) यह चाहते थे कि लोगों को पता चले। उन्होने कहा कि हम लोग आश्रम में इन्तजार करें, दस मिनट में नहा कर वे आते हैं।

आश्रम की ओर जाते समय राजन भाई ने अपनी व्यग्रता जताई – “ये बाबाजी के साथ तो बहुत समय लग जायेगा। मुझे आठ बजे घर पंहुचना है। काम है।”
हमने तय किया कि तपस्वी से मिल कर हम लोग किसी और दिन आने की बात कहेंगे। रुकेंगे नहीं। तपस्वी की प्रतीक्षा में मैने आश्रम का मुआयना किया। साफ़-सुथरा था वह स्थान। एक विशालकाय बरगद से आच्छादित। एक ओर शंकर जी का मन्दिर था। दो-तीन कमरे। बाहर एक कुंआ। छत पर जाने के लिये सीढ़ी। कुल मिला कर रमणीय स्थान था। मैने सोचा कि तपस्वी के साथ यहां रुका/रहा जा सकता है।
दस मिनट में ही आ गये तपस्वी। एक गमछा पहने। मैने कहा – हमें जल्दी है। आप अपने लेखन के एक दो पन्ने दिखा दें। विस्तार से बाद में आकर चर्चा करेंगे।

उन्होने सहज उत्साह से अपना लेखन दिखाया। एक मोटा, गत्ते पर लाल कपड़े की जिल्द वाला अच्छा रजिस्टर। मैने एक दो पन्नों के चित्र लिये। वे उत्साह से पाण्डुपि का एक अन्य रजिस्टर भी ले आये जिसमें ग्रन्थ का प्रारम्भ था। सरसरी निगाह से मैने पढ़ा – चौपाईयां और दोहे तुलसीबाबा की भाषा जैसे गठे हुये लगे। अच्छा प्रवाह था उनमें।
तपस्वी की लगन और धुन ने बहुत प्रभावित किया मुझे। आज भ्रमण का अनुभव विलक्षण था। शुरुआत में जैस लग रहा था, उससे बिल्कुल उलट।
मैने तपस्वीजी का मोबाइल नम्बर लिया। नाम पूछा तो बताया कि “व्यास जी” कहते हैं। आश्रम से बाहर निकलने पर दो ग्रामीण मिले। उन्होने बताया कि यह आश्रम योगेश्वरानन्द जी का था। उन्हे देह त्याग किये छ साल हो गये। उसके बाद दो-तीन बाबा लोग आये पर टिके नहीं। अब ये आये हैं। बड़े अच्छे हैं बाबा जी।
कुछ अजीब लगा कि बाबा लोग यहां टिके क्यों नहीं। पास के अघोरियों के आश्रम के कारण तो नहीं? मैं शंका लिये हुये राजन भाई के साथ वापस लौट चला।
करीब 14 किलोमीटर, मुख्यत: पगडण्डी के रास्ते साइकल चलाई आज सबेरे। और ऐसा अनुभव रहा कि कभी भूलूंगा नहीं।
व्यास जी से मिलने और उनका ग्रन्थ ध्यान से देखने फिर जाऊंगा वहां। शायद गिनती के कुछ लोगों को ज्ञात है कि एक तपस्वी एक कोने में बैठा महाकाव्य लिख रहा है।
गंगाजी का तट अपने आप में जाने कितनी विलक्षणता से भरा है।

आपको एक साधक मित्र मिले, बधाई!
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ज्ञानदत्त जी नमस्कार, आपके लेख भी हिंदी भाषा की धरोहर हैं।
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काश ये अपनी रचना डिजिटल फ़ॉर्मेट में (कंप्यूटर/मोबाइल आदि में टैक्स्ट में) लिखते होते. तत्काल नेट पर अपलोड और पूरी दुनिया के समक्ष हाजिर. रजिस्टर से डिजिटाइज करने में तो बहुत सारा समय और श्रम लगेगा. फिर भी, उनकी साधना को सलाम और शुभकामनाएँ!
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धीरेन्द्र वीर सिंह (फ़ेसबुक पर) – सुबह की सैर पर एक पंथ कई काज हो रहे है!
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