
दो महिलायें गेंहू-सरसों के खेत में से सरसों की कटाई कर रही थीं। एक गट्ठर डेढ़ी सड़क के किनारे रख दिया था। इससे पहले मैं उनसे कुछ वार्तालाप कर पाता, वे खेत के दूर के छोर पर चली गयीं। सड़क पर खड़े हुये उतनी दूर उनसे बात करने में आवाज ऊंची करनी पड़ती। गांव के मानकों में वह सामान्य बात होती पर शहरी शिष्टाचार में वह अशिष्टता से कम नहीं होता। मैं आगे बढ़ गया।
साइकिल के अगले राउण्ड में वहां एक आदमी मिला। उनसे पूछा – इस बार फ़सल कैसी है?
“अच्छी है। गेंहू और सरसों दोनो अच्छी हुई है।“ उसने जवाब दिया। फिर कुछ सोच कर जोड़ा – “कुछ और अच्छी होती, अगर थोड़ा पानी और मिलता।“
आगे वार्तालाप में उस व्यक्ति ने बताया कि मेरे गांव के बगल में मेदिनीपुर में ही रहने वाले हैं वे। नाम बताया लालचन्द। पास में एक अन्य व्यक्ति आ कर खड़ा हो गया था। उसका भी परिचय दिया – “जवाहिर। मेरा छोटा भाई है।“
तीन चार बीघा जमीन है। उसमें खेती भर करते हैं। उसी से गुजर-बसर होती है। अपनी आर्थिक दशा से संतुष्ट नजर आये लालचन्द। बोले – “आदमी मेहनत करे तो खेती भी काम लायक दे देती है। बिना मेहनत के तो कुछ नहीं होता। सवेरा होते ही काम पर आ गये हैं हम। गेहूं की फसल में तो निराई नहीं करनी पड़ती, पर धान की फसल ज्यादा मेहनत मांगती है। मेहनत से मुंह मोड़ने से खेती नहीं होती।“

“आप सब को अच्छी तरह जानते हैं हम। आपके ससुर जी (जब वे जिन्दा थे) ने कई बार कहा था कि उनकी खेती करूं या उनके साथ काम करूं पर मैने कहा कि देवी माता का पूजन कर लिया है मैने, अब कहीं नौकरी नहीं करूंगा।“
लालचन्द एक तरह से अनूठा लगे मुझे। गांव में छोटी जोत के किसान होने पर भी अपनी जमीन और अपनी मेहनत पर यकीन रखने वाले। पूरे आत्मविश्वास से कहने वाले कि फसल अच्छी हुई। अन्यथा जिससे पूछो, वह पहले नियति का रोना रोता है। अपने भाग्य को कोसता है, फिर आगे की बात कहता है।
उनके जैसे लोग अत्यन्त माईनॉरिटी में हैं। पर उन जैसे लोगों के बल पर ही बहुत कुछ कायम है धरती पर। उनके जैसे लोग, जो शॉर्टकट नहीं तलाशते। लोग जो यकीन करते हैं कि उनके पुरुषार्थ से स्थितियां अनुकूल बनती हैं। लोग जो मानते हैं कि प्रकृति जितना देती है, उससे अपनी जरूरतें पूरी की जा सकती हैं। पता नहीं, लालचन्द अपने को इन टर्म्स में सोचते हैं या नहीं, मुझे तो छोटी सी मुलाकात के दौरान वे वैसे ही लगे।
लालचन्द ने कहा कि पहले मैं उनके गांव में जाया करता था; अब वह बन्द हो गया है। मैने अपनी लाचारी बताई कि घुटने के दर्द के कारण मेरा पैदल चलना बहुत कम हो गया है। साइकिल से भ्रमण भर हो रहा है।
पर यह जरूर लगा मुझे कि लालचन्द जैसे लोगों से मुझे मिलते रहना चाहिये।
लालचंद जी के सम्मान में भगवत रावत की एक कविता :
https://anahadnaad.wordpress.com/2006/08/17/bhagawat-rawat-poem1-ve-isee-prithvee-par-hain/
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वाह! वह कविता आपके ब्लॉग से यहीं उतार दे रहा हूं –
वे इसी पृथ्वी पर हैं
कहीं न कहीं कुछ न कुछ लोग हैं जरूर
जो इस पृथ्वी को अपनी पीठ पर
कच्छपों की तरह धारण किए हुए हैं
बचाए हुए हैं उसे
अपने ही नरक में डूबने से
वे लोग हैं और बेहद नामालूम घरों में रहते हैं
इतने नामालूम कि कोई उनका पता
ठीक-ठीक बता नहीं सकता
उनके अपने नाम हैं लेकिन वे
इतने साधारण और इतने आमफ़हम हैं
कि किसी को उनके नाम
सही-सही याद नहीं रहते
उनके अपने चेहरे हैं लेकिन वे
एक-दूसरे में इतने घुले-मिले रहते हैं
कि कोई उन्हें देखते ही पहचान नहीं पाता
वे हैं, और इसी पृथ्वी पर हैं
और यह पृथ्वी उन्हीं की पीठ पर टिकी हुई है
और सबसे मजेदार बात तो यह है कि उन्हें
रत्ती भर यह अन्देशा नहीं
कि उन्हीं की पीठ पर टिकी हुई है यह पृथ्वी ।
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Lal chand,a motivation for others
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