
डेढ़ी के उत्तरी छोर पर एक अमराई/महुआरी है। कुछ और भी वृक्ष हैं। वहां एक झोंपड़ी है। कुछ लोग यदा कदा वहां दिखते हैं। झोंपड़ी की बगल से एक कच्ची सड़क डेढ़ी से निकल कर करहर गांव की ओर जाती है। मानो डेढ़ी की बांयी भुजा हो।
महुआ के पत्ते झर चुके हैं। बहुत से पत्ते जमीन पर दिखते हैं। एक छोटी गड़ही भी है जिसमे काफ़ी हद तक महुआ के पत्ते भरे हैं। पेड़ों पर नये पत्ते आ चुके हैं। एक दो महुआ के पेड़ों से महुआ के फूल टपकने भी लगे हैं। सड़क पर कुछ बच्चे महुआ के बीने फूलों की पन्नियां लिये जाते दिखे भी।
गड़ही के पास अचानक खरखराहट हुई तो साइकिल चलाते हुये मैने देखा – एक बूढ़ा आदमी रंहठा (अरहर के डण्ठल) की झाड़ू से पत्तियां समेट कर गड़ही में डाल रहा था। अकेला वृद्ध व्यक्ति। शरीर में ज्यादा दम नहीं होने से धीरे धीरे झाड़ू चला रहा था। उससे बातचीत करने के ध्येय से मैने सड़क के किनारे साइकिल खड़ी कर दी।

उनका नाम है झल्लर। उम्र के बारे में बताया चार कम सौ। पर यह भी बताया कि सन बयालीस में वे दर्जा तीन में पढ़ते थे। बरतानवी सरकार के स्कूल में। अगर मैं उस समय उनकी उम्र दस साल की मान कर चलूं तो अब झल्लर की उम्र छियासी साल की होनी चाहिये। यानी चार कम नब्बे। मैं छियासी साल मान कर चलता हूं। उस उम्र के अनुसार भी झल्लर काफी स्वस्थ हैं। बस थोड़ा ऊंचा सुनते हैं। बातें समझने के लिये वे मेरे पास तक चले आये; पर इतना ऊंचा भी नहीं सुनते कि कान के पीछे हाथ लगा कर सुनने का प्रयास करना पड़ता हो।
जो झोंपड़ी है अमराई/महुआरी में। उसमें अकेले रहते हैं झल्लर। भरा पूरा परिवार है, पर वह सब गांव में रहता है। उनके पेड़ों के अलावा अन्य गांव वालों के पेड़ भी हैं। दूर एक और झोपड़ी दिखती है। पर और कोई दिखता नहीं रहता हुआ।
गांव की बस्ती आधा किलोमीटर दूर होगी। झल्लर का खाना गांव से पंहुचा जाते हैं परिवार वाले। पानी के लिये करहर की पाइप्ड सप्लाई है जिसका एक पॉइण्ट उनकी झोंपड़ी के पास है। नल नहीं है। दिन में जब पानी आता है तब वे अपने लिये भर लेते हैं। शेष पानी एक कच्चे टैंक में भरता जाता है। बिजली बत्ती का इन्तजाम नहीं। लालटेन नहीं है उनके पास। बताया – “आजकल मिट्टी का तेल कहां मिलता है?!”

एक इलेक्ट्रॉनिक बत्ती है। उन्होने बताया कि सौर ऊर्जा से चार्ज होती है। मैने दिखाने को कहा तो मुझे अपनी मड़ई के पास ले कर गये। बाहर के चबूतरे पर एक बोरी बिछा कर मुझे बैठने को कहा और मड़ई से बत्ती निकाल कर लाये। मैने देखा वह सोलर नहीं नोकिया के पतले पिन वाले चार्जर से चार्ज होने वाला एलईडी लैम्प था। जाने कैसे उनके सूर्य की रोशनी दिखाने से चार्ज होता था?! शायद घर वाले इसे चार्ज कर ला दिया करते होंगे। उसकी रोशनी भी कम थी।

मुझे लगा कि एक सोलर लैम्प ला कर अकेले रहने वाले इस वृद्ध को दे देना उचित होगा।
झल्लर से पूछा – जब परिवार गांव में रहता है तो वे अकेले यहां झोंपड़ी में क्यूं रहते हैं? उन्होने जवाब दिया कि न रहें तो आम के फल, महुआ का एक भी फूल/कोईया आदि न बचे। लोग बीन ले जायें। यहां रह कर वे पेड़ों की देखभाल करते हैं।
घर से भोजन आने में देर हो तो यहां भी कुछ बनाने का इन्तजाम है झल्लर के पास। कपड़े उनके फटे तो नहीं हैं पर मैले हैं। नहाने और कपड़े धोने के साबुन का प्रयोग नहीं करते होंगे झल्लर।
इस इलाके के बारे में और बीते काल के बारे में जानना हो तो झल्लर बहुत सही व्यक्ति होंगे। पर्याप्त वृद्ध – जिनकी इन्द्रियां ठीकठाक काम कर रही हैं और जो डिमेंशिया से पीड़ित भी नजर नहीं आते। झल्लर से मैत्री करना मुझे अपने ब्लॉगिंग के लिये बहुत काम का और बहुत महत्वपूर्ण लगा। इनसे जरूर मिलता रहूंगा मैं!

गांव का इतिहास जानने-बूझने के लिए बहुत उपयुक्त और प्रामाणिक स्रोत मिल गया आपको झल्लर बाबा के रूप में . लगभग 100 साल पुराने समय के बारे में उनसे विस्तार से बात करिएगा . कई-कई टुकड़ों में . और कुछ ऐसे सवाल पूछियेगा जिनके उत्तर अब और कोई समकालीन व्यक्ति देने की स्थिति में नहीं होगा . कुछ सवाल मैं भी भेज दूंगा .
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