वह पास के गांव में रहता है अपनी “बुढ़िया” के साथ। दो लड़के हैं, दोनो बनारस में खाते-कमाते हैं। एक ऑटो चलाता है और दूसरा मिस्त्री का काम करता है किसी भवन निर्माण की फर्म में। उसके पास दो बिस्सा खेत है और गाय। गाय आजकल ठीक ठाक दूध दे रही है। मुझे दूध सप्लाई करने की पेशकश की थी, पर हमें जरूरत न होने पर वह अपने लड़कों और उनके परिवार के लिये बनारस ले कर जायेगा। “इही बहाने उन्हनेऊं दूध इस्तेमाल कई लेंईं (इसी बहाने उन्हें भी मिल जाये दूध)।
दो बिस्सा जमीन में मटर बोई थी। चार दिन पहले वह लाया था बेचने। 14रुपये किलो दी थी। बहुत अच्छी और मीठी मटर। लम्बी छीमी और हर छीमी में 6-9 दाने। स्वाद लाजवाब था – इस मौसम की सबसे बेहतरीन मटर थी वह। दो बिस्वा (1 बिस्वा बराबर 125 वर्ग मीटर) खेत में बहुत ज्यादा तो होती नहीं। आज दूसरी बार तोड़ी तो आसपड़ोस वाले ही ले गये। किसी तरह से 3 किलो बचा कर लाया हमारे लिये।
सवेरे सवेरे घर के दरवाजे का ताला भी नहीं खोला था। मैं परिवार भर के लिये चाय बना रहा था। घर की पहली चाय का अनुष्ठान मुझे करना होता है। इधर चाय के खौलने का नम्बर लगा, उधर बाहर से किसी की आवाज आयी। पत्नीजी ने जा कर गेट खोला। श्रीराम थे मटर लिये। मटर दे कर दूध ले बनारस जायेंगे वे।
हमने उन्हें बिठाया और चाय पिलाई। साथ में बिस्कुट। वह व्यक्ति जो हमारे लिये सवेरे सवेरे मटर ले कर आ रहा है, उसको चाय पिलाना तो बनता ही है। पत्नीजी ने कहा कि श्रीराम की चाय में खुले हाथ से चीनी डाल दूं – गाँव में चीनी मजे से लेने की परम्परा है। चीनी शायद ऊर्जा का सबसे सस्ता साधन है, पर वह सफेद जहर भी है – यह भावना अभी व्यापक नहीं हुई है। यद्यपि मधुमेह के मामले बहुत से सुनने में आते हैं और जितने सुनने में आते हैं, उससे ज्यादा तो अज्ञात हैं। अधिकांश लोग कभी जांच कराते ही नहीं।
मेरा लड़का सवेरे घूमने जाता है और अपनी आदत के अनुसार रास्ते में जो भी मिलता है – बिना ऊंच-नीच, जाति-वर्ण का भेद किये – उससे दुआ-सलाम करता है। उनका हाल पूछता है। बहुत अधिक बात नहीं करता। अधिकांश लोगों के नाम भी नहीं मालूम उसे। पर मैने पाया कि आसपास उसे जानने चाहने वाले मुझसे ज्यादा हैं। पुरानी सामंती सोच त्याग कर सबसे धुल मिल कर चलना उसने बिना किसी प्रयास के सीखा है। ऐसा वह सहज भाव से करता है; किसी प्रकार का जातीय विश्लेषण करने की जहमत नहीं उठाता। श्रीराम बिंद से दोस्ती उसने ही की है। अन्यथा हम लोगों को श्रीराम तो जानते ही नहीं।
बिन्द उपनाम केवट जाति का हैं। नाव और मछली उनके पारम्परिक व्यवसाय के अंग हैं। गंगा नदी पर निर्भर रहते आए हैं वे पीढ़ी दर पीढ़ी। पर अब बहुत कम ही हैं जो इस परम्परागत व्यवसाय में हैं। बहुत कम के पास नावें और जाल हैं। ज्यादातर वे बुनकर बन गए हैं। मेरी नातिन पद्मजा (चिन्ना) के स्कूल के मालिक कैलाशनाथ जी भी बिन्द हैं और उनके परिवार ने पापुलर कार्पेट्स नामक बुनकर कम्पनी से ही समृद्धि अर्जित की है।
श्रीराम बिंद मार्जिनल किसान हैं और उनके लड़के शहर में काम तलाश या कर रहे हैं। शायद कभी कार्पेट बुनने का काम भी किया हो।
अब कार्पेट बुनकर नहीं बन रहे नयी पीढ़ी के लोग। पुराने कारीगर आँख में मोतियाबिंद होने पर काम बंद कर देते हैं और नए यह बुनकरी सीख नहीं रहे। यह धंधा खतम हो रहा है। कारीगरी अगर कला है तो कला मर रही है।
इधर देखता हूँ कि ब्राह्मणों में लोग पढ़ने लिखने, अध्यन अध्यापन की बजाय ट्रक ड्राइवर बन रहे हैं – विक्रमपुर गांव मूलत: ट्रक चालक ब्राह्मणों का है। ट्रक चलाने के कारण उनमें गुण (अवगुण) भी वैसे ही आगए हैं। समाज गड्डमड्ड हो रहा है। करहर के चौबे जी की कपड़े की बड़ी दुकान हो गयी है कस्बे में। बाभन बजाजा खोल लिए हैं। इस इस जाति व्यवस्था में आने वाले दशकों में और भी बहुत मंथन होंगे। अमृत भी निकलेगा और हलाहल भी। देखते जाइए।
खैर, अब मेरा श्रीराम बिंद से परिचय हो गया। है। सवेरे की चाय पर परिचय। चाय पीने के बाद वे पेशोपेश में थे कि कहां धोयें वे कप। उनसे मै ने कहा कि छोड़ दें, बाद में सभी बर्तनों के साथ धुलायेगा। जातिगत ऊंच-नीच से अभी यह ग्रामीण समाज पार नहीं पाया है और श्रीराम बिंद भी।

हां, मटर जो वे लाये थे; उसका भी चित्र ले लिया है। कभी कोई पूछ बैठें कि देखने में कैसी है?
आज पंद्रह रुपये किलो दी उन्होने। बाजार से सस्ती भी है और मिठास में तो कोई मुकाबिला ही नहीं। बाजार की मटर अब कड़ी होने लगी है और उबालने पर भी नर्म नहीं होती। दाम भी 20रू किलो हो गया है। मिठास तो खत्म होती जा रही है उसकी। श्रीराम बिंद की मटर वैसी ही है जैसी 20-25 दिन पहले मिला करती थी। शायद उनकी पछेती की बोई मटर है ये।
आज सवेरे एक नए व्यक्ति भी मिले और नयी ब्लॉग पोस्ट भी बन गयी!