हेमेन्द्र सक्सेना जी के संस्मरण – पुराने इलाहाबाद की यादें (भाग 2)

यह हेमेंद्र सक्सेना जी की इलाहाबाद के संस्मरण विषयक अतिथि ब्लॉग पोस्टों का दूसरा भाग है।

भाग 1 से आगे –

एक छोटे कस्बे से आया नौसिखिया अण्डरग्रेजुयेट बड़ी देर तक बाथरूम में लगाता था। यह 1945-46 की सर्दियों का समय था। गर्म पानी का कोई इन्तजाम नहीं था। कई विद्यार्थी कई कई दिनों तक बिना नहाये रह जाते थे। जो नहाना चाहते थे, उन्हें सवेरे जल्दी नहाना पड़ता था। यह पाया गया कि यह नौसिखिया नौजवान बाथरूम में किसी से बात किया करता है।

हम सभी जानने को उत्सुक थे। हम में से एक ने दरार से झांका। नल चल रहा था और हमारा मित्र एक कोने में अधनंगा खड़ा था। वह अपने आप से बात कर रहा था – “तुम ठण्डे पानी से डरते हो, तुम कैसे ब्रिटिश हुकूमत को देश से खदेड़ोगे, अगर ठण्डे पानी से डरते हो। तुम इण्डियन नेशनल आर्मी के जवानों की सोचो, जो बर्मा में लड़ रहे हैं…” कुछ समय बाद उसमें पर्याप्त साहस आ गया और वह “वन्दे मातरम” का नारा (मानो वह युद्ध-उद्घोष हो) लगा कर नल के बहते पानी के नीचे कूद पड़ा।


हेमेन्द्र सक्सेना, रिटायर्ड अंग्रेजी प्रोफेसर, उम्र 91, फेसबुक पर सक्रिय माइक्रोब्लॉगर : मुलाकात

हेमेन्द्र सक्सेना जी के संस्मरण – पुराने इलाहाबाद की यादें (भाग 1)


हम हंसते हंसते लोट पोट हो गये – जब तक कि हमारी पसलियां नहीं दुखने लगीं। हमारा वह मित्र एक स्वप्नदर्शी था। हम सभी स्वप्नदर्शी थे जब हम नौजवान थे। और दयालु और ध्यान रखने वाले अध्यापकों तथा समाज के लोगों की कृपा से वे सपने सच भी हुये।

मैं इस बारे में फ़िराक को उद्धृत करना चाहूंगा –

जाओ ना इस गुमशुदगी पर, कि हमारे

हर ख्वाब से इक अहद की बुनियाद पड़ी है।

(हमारी अनिश्चय भरी मानसिक दशा से भ्रमित न हो जाओ। हर स्वप्न एक युग की बुनियाद रखता है।)

अन्तत: ब्रिटिश राज पर पर्दा गिर गया। सत्ता भारत को 14/15 अगस्त, 1947 की मध्य रात्रि को हस्तान्तरित हो गयी। हम सभी नेहरू की मशहूर “tryst with destiny” वाला भाषण नहीं सुन पाये, चूंकि हम सब के पास रेडियो सेट नहीं थे।  हम सब खुश थे, पर उस खुशी का गर्मजोशी से इजहार नहीं कर रहे थे। हम मानसिक रूप से एक बंटवारे वाले छोटे भारत के लिये तैयार नहीं थे। किसी स्नातक के विद्यार्थी ने शेली की पंक्ति सही उद्धृत की – “हमारी नेकनीयत हंसी कुछ दर्द से भरी हुई थी – our sincerest laughter with some pain is fraught)”।

एक उदीयमान छात्र नेता ने प्रतिवाद किया – “उसके लिये क्या बेकरार होना, जो है ही नहीं”। उस जमाने के छात्र नेता अपने भाषण अधिकतर अन्ग्रेजी में दिया करते थे। और उनमें हास्य की अच्छी तमीज थी। उनमें से एक ने नारा दिया – Let freedom won be freedom preserved. पण्डित नेहरू ने पहले कहा था – “हमें आजादी की मशाल को किसी भी हाल में बुझने नहीं देना है। भले ही हवा कितनी भी तेज हो और तूफान कितना भी भयंकर हो”।

हेमेंद्र सक्सेना। पोस्ट के लेखक।

यह आश्चर्य की बात थी कि उस समय कोई भी नारा ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ़ नहीं लगा। गांधी जी की भावना अब भी थी। अहिंसा का अर्थ घृणा हीनता भी होता है। इसके अलावा जवान लोग, अगर उन्हें संकीर्ण सोच वाले राजनेता भ्रमित न कर दें, लम्बे समय तक घृणा को नहीं पाले रहते। उन्हें भविष्य की सम्भावनायें ज्यादा रिझाती हैं। यह दुर्भाग्य की बात थी कि आजादी के सात या आठ साल बाद कुछ राजनेताओं ने ऋणात्मक सोच को अपनाया। यह कठिन नहीं था कि छात्रों को तोड़ फोड़ के लिये उकसाया जा सके। कुछ गैरजिम्मेदार भाषण हुये और अल्फ़्रेड पार्क में क्वीन विक्टोरिया की प्रतिमा को क्षति पंहुचाई गयी। अन्तत: उस प्रतिमा को पार्क से हटा दिया गया। अंग्रेजी भाषा के खिलाफ़ आन्दोलन हुआ और विद्यार्थियों को अंग्रेजी विभाग की कक्षाओं को अपने जूते फर्श पर घिसने की आवाज से विघ्न डालने को उकसया गया। पर छात्र सुलझे हुये थे और कक्षायें निर्बाध चलीं।

यह आश्चर्य की बात थी कि उस समय कोई भी नारा ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ़ नहीं लगा। गांधी जी की भावना अब भी थी। अहिंसा का अर्थ घृणा हीनता भी होता है।

मुझे स्वतन्त्रता दिवस के बाद के कुछ वाकये याद हैं। राजनैतिक कैदियों को छोड़ दिया गया था और अन्य कैदियों को भी कुछ क्षमादान दिया गया था। विद्यार्थी परीक्षा परिणामों में कुछ रियायत चाहते थे। सभी छात्रों को पाच या दस अनुकम्पा अंक दिये गये। परिणाम स्वरूप कुछ विद्यार्थी, जो फेल थे, पास घोषित कर दिये गये थे। इससे तो पेण्डोरा बॉक्स खुल गया। अगली मांग थी कि इस तरह के पास हुये विद्यार्थियों को परास्नातक कक्षाओं में प्रवेश दिया जाये। अंत: प्रवेश की अन्तिम तिथि बढ़ा दी गयी और इससे अन्तिम तिथि की “पवित्रता” सदा के लिये जाती रही।

पर एक आदमी का भोजन दूसरे का विष होता है। कई छात्र एक या दो पेपर की परीक्षा देने के बाद ड्राप-आउट हो जाया करते थे – अगर वे यह अनुमान लगा लेते थे कि उन्हें प्रथम श्रेणी नहीं मिलने वाली। वे रिस्क नहीं लेना चाहते थे। मेरे एक मित्र एस.बी. जैन 1947 में एम.ए. प्रीवियस की परीक्षा से दो पर्चे देने के बाद ड्राप आउट कर लिये। पर रियायत वाले नियम के अनुसार उन्हें थर्ड डिवीजन में पास घोषित कर दिया गया। बेचारे एस.बी. जैन वास्तव में वाइस चांसलर और एग्जीक्यूटिव काउंसिल के हर एक सदस्य के सामने रो पड़े। वे यह रियायत नहीं चाहते थे। पर जो इस रियायत से फायदा पा चुके थे, नर्वस हो गये। उन्होने तर्क दिया कि प्रजातान्त्रिक स्वतन्त्र भारत में नियम बहुसंख्या के लाभ के लिये बनाये जाने चाहियें।

खैर, एग्जीक्यूटिव काउंसिल की एक विशेष बैठक हुई और उसमें एक विशेष प्रस्ताव पारित कर एस.बी. जैन को फेल घोषित किया गया।

भाग 3 में जारी…

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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