हेमेन्द्र सक्सेना जी के संस्मरण – पुराने इलाहाबाद की यादें (भाग 3)

यह हेमेंद्र सक्सेना जी की इलाहाबाद के संस्मरण विषयक अतिथि ब्लॉग पोस्टों का तीसरा भाग है।

भाग 2 से आगे –

सन 1948 में एक अत्यंत मेधावी विद्यार्थी और वाद-विवाद का वक्ता छात्र संघ का चुनाव हार गया। यह कहा जा रहा था कि विरोधी उम्मीदवार और उसके समर्थक यह फैला रहे थे कि एक “किताबी कीड़ा” विश्वविद्यालय प्रशासन का “चमचा” ही बन कर रहेगा और बहुसंख्यक विद्यार्थियों के हितों के लिये पर्याप्त आंदोलन नहीं करेगा। राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं और लालच ने कुटिलता का वातावरण बना दिया था और औसत दर्जे की सोच ने उत्कृष्टता को कोहनिया कर अपना स्थान बनाना प्रारम्भ कर दिया था। नैतिकता का वलयाकार रास्ता नीचे की ओर फिसलने लगा था और “नेतागिरी” धीरे धीरे “गांधीगिरी” का स्थान लेती जा रही थी।


हेमेन्द्र सक्सेना, रिटायर्ड अंग्रेजी प्रोफेसर, उम्र 91, फेसबुक पर सक्रिय माइक्रोब्लॉगर : मुलाकात

हेमेन्द्र सक्सेना जी के संस्मरण – पुराने इलाहाबाद की यादें (भाग 1)

हेमेन्द्र सक्सेना जी के संस्मरण – पुराने इलाहाबाद की यादें (भाग 2)


हेमेन्द्र सक्सेना, संस्मरण लेखक

वह प्रश्न जो हर सही सोच वाले के दिमाग को मथने लगा था, वह था कि क्या हर छोटे मुद्दे पर आंदोलन करना, भूख हड़ताल पर बैठ जाना या “सत्याग्रह” करना उचित है? चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य ने शुरुआत में ही चेताया था कि सिविल डिसओबीडियेंस (असहयोग) क्रिमिनल डिसओबीडियेंस नहीं है और यह करने वाले को सत्याग्रह का हथियार प्रयोग करने के पहले ही अपने को संयत कर लेना चाहिये। उन्होने तर्क दिया था –

जैसे हमारे पास राष्टों का संघ (लीग ऑफ नेशंस) है जो युद्ध की सम्भावनायें खत्म करता है; उसी तरह हमें लीग ऑफ नेशंस बनाना होगा जो “सत्याग्रह” को सीमित और कम कर सके। महात्मा गांधी की सोच है कि उनके हथियार में अटोमेटिक चेक है और सत्याग्रह का बारूद काम ही नहीं करेगा अगर ध्येय सही और न्यायसंगत नहीं है। यह पूरी तरह विस्फोट नहीं करेगा, पर यह उन लोगों को, जो उसके आसपास हैं, बहुत नुक्सान पंहुचायेगा। हम पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है इस औजार के प्रयोग करने में।

कौन सही हैं – महात्मा गांधी या चक्रवर्ती राजगोपालाचारी? यह वाद-विवाद सतत जारी रहेगा। प्रजातंत्र एक खुली व्यवस्था है। राजनैतिक आदर्श हमेशा बनते रहते हैं। दोनो ओर से बहुत कुछ कहा जा सकता है। अमर्त्य सेन के अनुसार भारत की तर्क करने की लम्बी विरासत रही है और प्रजातंत्र पश्चिम विश्व का स्वतंत्रता के समय देश को दिया उपहार नहीं है, जिसे भारत ने स्वाधीन होते समय जस का तस स्वीकार कर लिया हो।

चालीस के दशक की शुरुआत में विद्यार्थी, राजनीतिक एक्टिविस्ट और लेखक यूनिवर्सिटी रोड के रेस्तरॉओं में मिला करते थे। जगाती का रेस्तरॉं पहले ही प्रसिद्ध हो चुका था – भगवती चरण वर्मा ने अपना उपन्यास “तीन वर्ष” मनोहर लाल जगाती को समर्पित कर दिया था, जो रेस्तरॉं के मालिक थे। भगवती बाबू उस समय अपनी प्रसिद्धि के शीर्ष पर थे चूंकि उनके उपन्यास पर बनी फिल्म “चित्रलेखा” बॉक्स ऑफिस पर हिट हो चुकी थी। इसके अलावा हम लोग उनकी कवितायें और कहानियां हिंदी की टेक्स्ट बुक्स में महादेवी वर्मा और सुमित्रानंदन पंत की रचनाओं के साथ पढ़ चुके थे। इसलिये इस रेस्तरॉं में हम लोग जिज्ञासा के वशीभूत जाया करते थे, एक कप चाय पीने के लिये। चाय टी-पॉट में सर्व की जाती थी और साथ में एक बर्तन में चीनी और दूसरे में दूध अलग से हुआ करता था। सामान्यत: पॉट में दो कप चाय की सामग्री होती थी। खौलता पानी पॉट में फिर से भराया जा सकता था, जो बिना पैसे के मिलता था। पहले कप की कड़क चाय के साथ चर्चा प्रारम्भ होती थी जो बाद में मुफ्त मिलने वाले गरम पानी की हल्की चाय की चुस्कियों में भी चलती रहती थी और जो वेटर बिना ना-नुकुर के सप्लाई कर देता था।


कॉफ़ी हाउस अगस्त 1945 में अस्तित्व में आया पर यह रचनात्मक लेखकों, शिक्षाशास्त्रियों, वकीलों और पत्रकारों के बीच लोकप्रिय स्वतन्त्रता के बाद ही हुआ। पार्टीशन के बाद अनेक हिन्दी के लेखक और विद्वान इलाहाबाद में रिहायश बना लिये। इस शहर की सामाजिक और बौद्धिक आबोहवा को उन्होने उनके जीवन और साहित्य के प्रति लीक से अलग नजरिये के लिये मुफ़ीद पाया। यहां तक कि वरिष्ठ कवि और उपन्यासकार जैसे अज्ञेय और भगवतीचरण वर्मा इलाहाबाद में होने पर कॉफी हाउस में जाना नहीं भूलते थे।

कॉफी हाउस शुरू में क्लाइव रोड (लोहा मार्ग) और कनिंग रोड (महात्मा गांधी मार्ग) के क्रासिंग पर एक बड़े बंगले में था। एक बड़ा हॉल सुरुचिपूर्ण तरीके से फर्निश किया गया था, जहां लोग घण्टों एक कप कॉफी के साथ चर्चा किया करते थे। साथ का एक कमरा “महिलाओं और परिवार” के लिये रिजर्व था। रसोईघर के पास एक कमरा पार्टीशन कर उन अध्ययन करने वालों के लिये रिजर्व किया गया जो मुख्य हॉल के शोर शराबे से हट कर पढ़ना या लिखना चाहते थे। कुछ नौजवान कम्पीटीटिव परीक्षाओं की तैयारी करने के लिये भी वह कमरा पसन्द करते थे जो इलाहाबाद की प्रचण्ड गर्मी के महीनों में भी ठण्डा और आरामदायक था (उस जमाने में कूलर और एयरकण्डीशनर के बारे में सुना ही नहीं गया था)। कुछ लकीर से हट कर लोग तो उस इमारत के पीछे के हिस्से में छायादार पेड़ के नीचे नहा भी लिया करते थे। इसके लिये वे मित्रवत वेटर से तौलिया या डस्टर मांग लिया करते थे। कॉफी हाउस एक ब्रिटिशकालीन क्लब जैसा था, पर इसका कुछ चरित्र इसके वर्तमान स्थान, दरबारी बिल्डिंग्स, में स्थानान्तरित होने के साथ जाता रहा।

दशक के उत्तरार्ध में यह भीड़ सिविल लाइंस के कॉफी हाउस में स्थानांतरित हो गयी।


मेरा (ज्ञानदत्त पाण्डेय का) नोट
जगाती रेस्तराँ के बारे में मैने सामग्री छानने का प्रयास किया। भास्वती भट्टाचार्य की पुस्तक Much Ado Over Coffee में जिक्र है कि इलाहाबाद में अड्डा संस्कृति (जहां मुक्त रूप से लोग बैठते और चर्चा किया करते थे) के अनेक केन्द्र थे। दारागंज इलाके में कादरी का रेस्तराँ में सुमित्रानन्दन पन्त जाया करते थे और उनका उधार खाता वहां चलता था। चौक इलाके में रसिक मण्डल की बैठकें हुआ करते थीं, जिनमें रामप्रसाद त्रिपाठी, रमाशंकर शुक्ल “रसाल” और रामनारायण चतुर्वेदी मिला करते थे और ब्रज भाषा की कविता पर चर्चा किया करते थे। इलाहाबाद के उत्तरी भाग में यह जरूरत जगाती रेस्तराँ और कॉफी हाउस पूरी करते थे।

जगाती रेस्तराँ के बारे में नॉर्दन इण्डिया पत्रिका के वी.एम. दत्त का एक रोचक संस्मरण है। लीडर अखबार के सी.वाई. चिन्तामणि के पुत्र सी.बी. राव (जो बाद में सिविल सर्विसेज के टॉपर बने) की अटेण्डेंस एक दिन से कम पड़ गयी थी। बेचारे वाईस चांसलर इकबाल नारायण गुर्टू के पास, जो उनके पारिवारिक मित्र थे और उन्हें राव “अंकल” कहते थे; के पास जा कर रोये। गुर्टू जी ने कहा कि उन्हें सी.बी. राव प्रिय है, पर नियम-कानून उनसे ज्यादा प्रिय हैं।
सी.बी. राव दिन भर पागलों की तरह घूमते रहे। फिर उन्होने अपना बदला निकाला। उन्होने जगाती रेस्तराँ को फोन कर कहा कि मैं वाईस चांसलर बोल रहा हूं और शाम को मेरे घर 100 लोगों की चाय पार्टी का इन्तजाम करना है। ऐसा ही फोन टेण्ट हाउस वाले के यहां भी शामियाना लगाने के लिए किया। जगाती और टेण्ट हाउस वालों ने ऑर्डर कन्फर्म करने की जरूरत नहीं समझी। और जो हुआ, उसकी रोचकता की कल्पना की जा सकती है।
हेमेन्द्र सक्सेना जी के संस्मरण का अनुवाद करते समय यह इस तरह के रोचक स्पिन-ऑफ मेरे लिये महत्वपूर्ण हैं।


भाग 4 में जारी…


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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