यह हेमेंद्र सक्सेना जी की इलाहाबाद के संस्मरण विषयक अतिथि ब्लॉग पोस्टों का चौथा और अंतिम भाग हैैै।
भाग 3 से आगे –
कॉफी हाउस नियमित जाने वाले लोग वेटरों को उनके नाम से जानते और सम्बोधित करते थे। वेटर बड़ी स्मार्ट वर्दी – झक साफ सफ़ेद पतलून, लम्बे कोट और माड़ी लगी पगड़ी – में रहते थे। हेड वेटर के कमर में लाल और सुनहरी पट्टी हुआ करती थी जबकि अन्य वेटर हरी पट्टी वाले होते थे।
वे अधिकतर केरळ और तमिलनाडु के होते थे और इसके कारण इलाहाबाद का कॉस्मोपॉलिटन चरित्र और पुख्ता होता था। अधिकांश व्यवसायी पारसी या गुजराती थे -जैसे पटेल, गुज्डर (Guzder) या गांधी।
दो चाइनीज स्टोर और एक बंगाली मिठाई की दुकान भी हुआ करती थी। देश विभाजन के बाद कुछ पंजाबी भी आये। मुझे अच्छी तरह याद है मिस्टर खन्ना की लॉ की पुस्तकों की दुकान। खन्ना जी अपने छात्र दिनों के गवर्नमेण्ट कॉलेज लाहौर की यादों की बातें किया करते थे।
हेमेन्द्र सक्सेना, रिटायर्ड अंग्रेजी प्रोफेसर, उम्र 91, फेसबुक पर सक्रिय माइक्रोब्लॉगर : मुलाकात
हेमेन्द्र सक्सेना जी के संस्मरण – पुराने इलाहाबाद की यादें (भाग 1)
हेमेन्द्र सक्सेना जी के संस्मरण – पुराने इलाहाबाद की यादें (भाग 2)
हेमेन्द्र सक्सेना जी के संस्मरण – पुराने इलाहाबाद की यादें (भाग 3)
सफेद कुर्ता पायजामा में कई प्रशिक्षु नेतागण कॉफी हाउस दोपहर में आने लगे। कई स्यूडो बुद्धिजीवी बहुत इम्प्रेस करने वाली हार्डबाउण्ड किताबों और पत्रिकाओं के साथ आते थे। एक कमसमझ नौजवान तीन चार दिन लगातार दास्तोवस्की की “द ईडियट” लिये आया। एक सीनियर कॉफीहाउस के रेग्युलर ने उसे सलाह दी कि वह अपनी ऑटोबायोग्राफी ले कर यूं सरेआम न घूमा करे। किसी ने इस निरीह चुहुलबाजी का बुरा नहीं माना।
एक छात्रनेता छुरी से मटन चॉप खा रहा था। किसी ने उसे छुरी की बजाय कांटा इस्तेमाल करने की सलाह दी। वह नेता भड़क गया – “ये कायदे ब्रिटिश लोगों ने बनाये थे। मैँ उनकी परवाह नहीं करता। मैं तो छुरी से ही खाऊंगा और उसका प्रयोग बतौर चम्मच करूंगा”। एक वेटर ने बड़ी नम्रता से टिप्पणी की – “सर, छुरी से आप अपनी ही जीभ काटेंगे, किसी अंग्रेज की नहीं”। सभी उसपर हँस पड़े – उस छात्र नेता समेत। और उस नेता ने वेटर से हाथ मिलाया।
कॉफी हाउस ने इलाहाबाद के अकादमिक और सामाजिक सर्कल में बड़ा महत्वपूर्ण रोल अदा किया। कोई भी वादविवाद के घात-प्रतिघात में भाग ले सकता था। ये चर्चायें बहुत जीवंत, उत्तेजक और सूचनाओं से सराबोर होती थीं।
कई प्रमुख आधुनिक हिंदी साहित्य के वाद इलाहाबाद में शुरू हुये। लगभग सभी रचनात्मक लेखक (कुछ बहुत सीनियर लोगों को छोड़ कर) कॉफी हाउस जाया करते थे। दूर वाले कोने पर एक टेबल सामान्यत: परिमल ग्रुप के सदस्यों द्वारा इस्तेमाल की जाती थी। दूसरी छोर पर प्रगतिवादी लेखक मिला करते थे। परिमल के सदस्य रोज आते थे जबकि वामपंथी सामान्यत: शनिवार को मिला करते थे।
कई साहित्यिक पत्रिकायें और जर्नल जैसे नयी कविता, नये पत्ते, निकाह आदि इन कॉफी हाउस की चर्चाओं से प्रारम्भ हुये। चर्चाओं में मतभेद होते थे पर कटुता नहीं होती थी।
परिमल समूह के प्रमुख सदस्य थे – लक्ष्मीकांत वर्मा, वीडीएन साही, रामस्वरूप चतुर्वेदी, धर्मवीर भारती, जगदीश गुप्त, रघुवंश और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना। प्रगतिशील समूह के रेगुलर सदस्य थे – भैरव प्रसाद गुप्त, अमरकांत, मार्कण्डेय और शेखर जोशी। ये सप्ताह में एक या दो दिन मिला करते थे।
पचास के दशक के उत्तरार्ध में कुछ स्थानीय चित्रकारों ने अपनी पेण्टिंग की प्रदर्शनी कॉफीहाउस में लगाने की सोची। पर वह सम्भव न हो सका। कॉफी हाउस की दीवारों पर पर्याप्त जगह नहीं थी। अन्तत: वह पास के एक रेस्तराँ बम्बूल्ज़ में प्रदर्शित की गयी। उसमें पेण्टिंग्स पारम्परिक बंगाल स्कूल की वाटर कलर के चित्रों से बहुत अलग थीं। इसके चित्रकार बोल्ड थे और रचनात्मक भी। उन्होने मिथकों और एतिहासिक विषयों का दामन नहीं थामा था। ये मुख्यत: आमूर्त चित्र थे – चटक तैल और वाटर कलर के चित्र। प्रदर्शनी सफल रही और एक दो चित्र बिके भी। चित्रकारों में प्रमुख थे – आर.एन. देब, बिपिन कुमार अग्रवाल, माइकल जूनिअस और बालादत्त पाण्डेय।

पर यह प्रदर्शनी की परम्परा ज्यादा नहीं चल पाई। इससे पहले 1950-51 में सिविल लाइन्स के एक रेस्तराँ आनन्द कॉफी हाउस ने राम गोपाल विजयवर्गीय की कुछ मूल पेण्टिंग्स प्रदर्शित की थीं। वहां कुछ बहुमूल्य पोर्सिलीन पात्र भी प्रदर्शित थे। यह बड़ा अच्छा अनुभव था – कॉफी पीते हुये इस तरह की प्रदर्शनी को देखना। दुर्भाग्य से यह कॉफी हाउस एक या दो साल में बन्द हो गया। इसका मालिक कला प्रेमी तो था, पर अच्छा व्यवसायी नहीं था। अलबत्ता, अल-चीको रेस्तराँ में आज भी इलाहाबाद के कई महत्वपूर्ण लैण्डमार्कों के सुन्दर स्केच टंगे हैं।

उस समय सिविल लाइन्स की सड़कों के किनारे बहुत से घने छायादार वृक्ष थे और ज्यादा भीड़ नहीं हुआ करती थी। कई दुकानें ब्रिटिश कालीन बंगलों के अन्दर थीं। उनके इर्दगिर्द विस्तृत लॉन थे और अमरूद के घने बगीचे भी। हम खरामा खरामा एक दुकान से दूसरी में पैदल आया जाया करते थे।

एक बार एक दुकान पर छात्रों ने सुमित्रानन्दन पन्त को देखा। वे “counterpane” के बारे में पूछ ताछ कर रहे थे। छात्र यह नहीं जानते थे कि काउण्टरपेन क्या होता है और उनकी स्वाभाविक जिज्ञासा जग गयी। उन्होने डिक्शनरी में तलाशा तो पता चला कि यह बेड कवर के ऊपर बिछाई बाहरी परत होती है। उन्हें इस बात पर हर्ष हुआ कि हिन्दी के एक महान कवि उनकी अंग्रेजी की जानकारी में इजाफ़ा करने के निमित्त बने थे। इस घटना के बारे में कई दिनों तक बातचीत की।
नौजवान विद्यार्थी अपने अपने अध्यापकों, प्रमुख राजनेताओं और फिल्म स्टार्स की नकल उतार कर प्रमुदित हुआ करते थे। कई पीढ़ियों के विद्यार्थियों ने डा. ईश्वरी प्रसाद के फ़्रांस की क्रान्ति पर उनके लेक्चर्स की नकल उतारी है। कई कक्षा में पीछे बैठने वाले विद्यार्थी अपने अध्यापकों के कार्टून बनाते थे और उनपर तुकबन्दी रचा करते थे। यह डा. हरिवंशराय बच्चन द्वारा रची प्रोफ़ेसर एस.सी. देब पर तुकबन्दी है; जो उन्होंने स्नातक का विद्यार्थी होने के समय बनाई थी –
Professor Deb was same in length and breadth. / And a man of encyclopedic depth. / He was humble to a fault. / And humbler to a somersault. / He could talk of Hafiz, Honolulu and Halwa in the same breath.
यह तुकबन्दी मुझे एक घटना की याद दिलाती है। पचास के दशक के उत्तरार्ध के दिन थे। शायद 1956 था जब शिक्षा मन्त्रालय से प्रोफ़ेसर हुमायूं कबीर इलाहाबाद आये। वे विश्वविद्यालय आये और वाइसचांसलर से उनके चेम्बर में मिले। वे प्रोफ़ेसर देब से मिलना चाहते थे और वाइसचांसलर के साथ अंग्रेजी विभाग में चल कर आये। प्रोफ़ेसर देब एक क्लास ले रहे थे। वे लेक्चर देते रहे और कक्षा पूरे समय के बाद 12:10 पर छोड़ी, जब पीरियड खत्म हुआ। प्रोफ़ेसर हुमायूं कबीर और वाइसचांसलर को दस मिनट इन्तजार करना पड़ा।
प्रोफ़ेसर देब ने बहुत माफ़ी मांगी कि वे अपना लेक्चर पूरा किये बिना उनसे नहीं मिले और उन्हें प्रतीक्षा कराई। प्रोफ़ेसर कबीर ने भी उनसे क्षमा मांगी कि उनके कारण उनको कक्षा में विघ्न हुआ। यह लगता था कि दोनो के बीच विनम्रता की प्रतियोगिता हो रही हो।
हम सब यह देख कर आश्चर्य से स्तम्भित थे। एक स्नातक का विद्यार्थी, जो उस समय वहां था, ने अपना मन बना लिया कि वह एक अध्यापक बनेगा, और कुछ भी नहीं। (वह कुछ साल पहले दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर के पद से सेवा निवृत्त हुआ)।
इस तरह के लोगों को अपने बीच पा कर हम यह जान पाये कि शिक्षा, सही मायने में घमण्ड, प्रभुत्व के पीछे भागने और पैसे की लिप्सा से ऊपर उठ कर जीने में है। भारत के उज्वल भविष्य की हमारी आशायें किसी अनिश्चय या भय से कुन्द नहीं हुई थीं। हम यकीन करते थे कि आम आदमी की जिन्दगी आने वाले समय में बेहतर होने वाली है।
मेरा (ज्ञानदत्त पाण्डेय का) फुटनोट –

मैने इस पोस्ट के लिये एल चीको रेस्तराँ की वेब साइट और पोस्ट में सन्दर्भित कुछ चित्रकारों के वेब एड्रेस खंगालने की कोशिश की। एल चीको का एक स्क्रीन शॉट इस पोस्ट में इस्तेमाल कर रहा हूं। बिपिन कुमार अग्रवाल जी का एक पेज भी मिला, पर उसके चित्र केवल आईकॉन साइज में ही थे। बालादत्त पाण्डेय जी का फेसबुक पेज दिखा, जिसमें अन्तिम एण्ट्री 2012 की है। मैने वहां लिख दिया है कि उनके चित्रों के स्क्रीनशॉट इस पोस्ट के लिये लेने की घृष्टता कर रहा हूं।

इस पोस्ट का फ़ीचर चित्र भी उन्ही का है। उस एब्स्ट्रेक्ट चित्र पर उनकी टिप्पणी है – We are destroying the world and cutting the trees but we do not know with each toppled tree we are reducing our chance of survival.
इस पोस्ट के साथ हेमेन्द्र सक्सेना जी का हस्तलिखित दस्तावेज मैने पूरा यहां चार भागों में प्रस्तुत कर दिया है। हेमेन्द्र जी की खुद की प्रतिक्रिया मुझे नहीं मिल पायी है। अगर मिलती तो अच्छा लगता।
बहुत उम्दा पोस्ट ! यह सीरीज बेहतरीन रही !
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बहुत सुन्दर शैली और भाषा प्रवाह में अनूदित तथा शब्द चयन और तात्कालिक भावों की अभिव्यक्ति के साथ तैयार लेख पढ़कर तत्कालीन इलाहाबाद (अब प्रयागराज) मन में जीवन्त हो गया , बहुत बढ़िया………
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वाह बहुत मेहनत से मन लगाकर तैयार किया गया द्स्तावेज । साधुवाद।
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