महानगरों से लोग चले आ रहे हैं। आशंका थी कि उनके आने से कोरोना संक्रमण अनियंत्रित हो जायेगा। लोग इतने बीमार होंगे और मरने लगेंगे कि सम्भाल पाना मुश्किल होगा।
कई दिन हो गये हैं लोगों के आते। कोई पैदल आया है, कोई साइकिल से, कोई छिपते छिपाते किसी वाहन में बैठ कर। अब ट्रेनें भी ला रही हैं। पर जो आया है उसे ले कर गांव वाले आशंकित हैं। उसे यथासम्भव अलग थलग रख रहे हैं। और प्रशासन भी उनको चिन्हित करने तथा क्वारेण्टाइन करने के लिए मुस्तैदी दिखा रहा है। हालात भयावह हो गये हों, और मामले तेजी से बढ़े हों, ऐसा नहीं दिखता।
पास के गांव मेदिनीपुर में कुछ लोग बम्बई से आये थे – ऐसा बताया गया। उनको पुलीस ने खोज निकाला। निकाल कर पास के स्कूल में क्वारेण्टाइन में रख दिया है। आसपास के सभी स्कूल क्वारेण्टाइन स्थल बना दिये गये हैं। उस गांव का बाहर से आया व्यक्ति उसी गांव के स्कूल में ही क्वारेंटाइन कर दिया गया है। पुलीस ने धमका भी दिया है कि अगर क्वारेण्टाइन तोड़ा तो पकड़ कर जेल में रख देंगे। लोग अपने घर के पास क्वारेण्टाइन किए गए हैं तो सामाजिक तनाव नहीं उपज रहा।
मेरे घर के पास भी प्राइमरी स्कूल है। उसमें सात आठ लोग क्वारेण्टाइन में रखे गये हैं। बगल में ही उनकी बस्ती है – पसियान। शाम के समय छत पर दो क्वारेण्टाइनार्थियों को देखता हूं। स्कूल की छत पर वे रात बिताने के लिये अपना बिस्तर बिछा रहे हैं। बगल के खेत में महिला बकरी चरा रही है। ऊपर खड़े क्वारेण्टाइनार्थी नौजवान की वह कोई रिश्तेदार लगती है। मास्क लगाये नौजवान उससे बतिया रहा है। लगभग समान्य सा माहौल है।
घर से उन लोगों को खाना मिल जा रहा है। सड़क चलते को रोक कर वे सुरती-गुटका भी मंगवा ले रहे हैं। स्कूल बड़ा है और केवल 8 आदमी क्वारेण्टाइन में हैं, सो सुविधाओं की किल्लत नहीं है। उनके घर एक दो कमरे वाले होंगे, पर यहां स्कूल में तो बहुत बड़ा परिसर उन्हें मिला है और बिजली-पानी-शौच की सुविधा है। मजे में ही होंगे वे क्वारेण्टाइन में।
सामान्यत:, एक स्कूल में एक ही जाति के लोग क्वारेण्टाइन किये गये हैं। सो जातिगत तनाव की भी समस्या वहां नहीं है।

यह तो पसियान का हाल है। बभनान (ब्राह्मणों की बस्ती) में भी जटा का लड़का बऊ आया है बम्बई से। बताया गया कि प्रयाग से तो बेचारा पैदल ही आया। पैर में छाले पड़ गये थे। घर वालों ने पहले घर में अलग थलग रखा था, अब स्कूल में क्वारेण्टाइन कर दिया गया है। चाहे पसियान हो, अहिरान हो, केवटान हो या बभनौटी/चमरौटी हो – सब में ग्रामीण लोगों में संक्रमण का भय है और (कम या ज्यादा) सभी दूरी बना कर ही मिल रहे हैं।
पत्नी भी पति को दूर से ही मिल रही है उसके प्रवास से वापस आने पर। यह बड़ी बात है और ढाढस बंधाती है कि संक्रमण ज्यादा नहीं फैलेगा। इक्कादुक्का केस तो सामने आयेंगे ही। उनके बारे में सुन कर एकबारगी धुकधुकी बढ़ेगी और भय की लहर उठेगी, पर कुल मिला कर दो तीन दिन में जैसे हालात प्रकटित हो रहे हैं, हालत बेकाबू जैसी नहीं दिखती गांव में।

किसी क्वारेण्टाइनार्थी से बात चीत नहीं हुई मेरी। अन्यथा पता चलता कि हजार किलोमीटर चल कर आने से उनकी मनस्थिति क्या है। पर दूर से देखने पर स्कूल के ये लोग (जिनके चित्र मैंने बगल में अपने परिसर से लिये हैं ) ठीकठाक ही दिख रहे थे।

क्वारेण्टाइन की व्यवस्था ठीक लग रही है। मैंने वूहान, चीन के विषय में एक उपन्यासिका पढ़ी – ए न्यू वाइरस। इसमें क्वारेण्टाइन का जितना तानाशाही, भ्रष्ट और अमानवीय चित्रण है, उसके मुकाबले तो यह देसी क्वारेण्टाइन बहुत सुविधाजनक है – एक पिकनिक जैसा। दोषदर्शी लोग भयावह स्थिति बताने में कसर नहीं छोड़ेंगे, पर मुझे अपने आसपास जो दिखा, वह खिन्न करने वाला नहीं लगता।
मुझे बताया गया कि पास के नेशनल हाईवे नंबर 19 (ग्रांड ट्रंक रोड) से हजारों की संख्या में घर लौटने वाले पैदल या साइकिल पर गुजरे हैं। एक दो तो मुझे भी जाते दिखे। यह भी सुना कि रास्ते में (भय वश) लोग बहुत मदद नहीं करते उनकी। पर कहीं अराजक स्थिति नजर नहीं आयी। दारुण कथायें भी सुनने में नहीं आयीं।
पड़ोस के गांव में बम्बई से राह चलता एक नौजवान आया था। उसका घर 25-50 किलोमीटर दूर है। पैदल चला आ रहा था। यहां गांव में उसकी मौसी रहती हैंं। मौसी और उसके के परिवार वाले सोशल डिस्टेंस रख कर उससे मिले। नहाने खाने की सुविधा दी, पर घर पर रखा नहीं। दूरी बना कर रहे। उसे एक साइकिल दे दी उसके घर तक जाने के लिये, और रवाना कर दिया। बेचारा, थका हारा आने पर उसे अपेक्षा रही होगी कि बहुत आवभगत करेंगी मौसी… कोरोना मूलभूत मानवीयता के नये प्रतिमान ठेल रहा है और समाज उसे अंगीकृत करने को विवश है। गांवदेहात के लिये यह थोड़ी अजीब चीज है।
बशीर बद्र की पक्तियाँ हैं – कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से। ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो।
अब बशीर बद्र की पंक्तियाँ, संशोधन कर, गांव के लिये भी लागू हो रही हैं – कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से। ये नये कोरोना का गांव है; ज़रा फ़ासले से मिला करो।
लॉक डाउन 3.0 में भी शहर और गांव अलग अलग प्रकार की प्रवृत्ति दिखा रहे हैं। शराब की बिक्री से मची अराजकता जो शहरों में दिखी, वह गांव में नहीं है। कुछ रोचक किस्से जरूर हैं शराब पीकर अपने को इंद्र मानने वाले शूर वीरों के। पर दारू के लिए यहां उतना पैसा नहीं है और उस तरह की भीड़ भी नहीं टूटी मधु शालाओं पर।

यह लिखा मिला (New York Times में ) कि भारत में कोरोना केस डबल होना 12 दिन में हो रहा था, वह 9.5 दिन तक खिसक गया है। पर यह खिसकाव शहरी फिनॉमिना है। गांव में वह नहीं दिखता। गांव अपनी जातिगत डिस्टेंसिंग के तनाव से शापित हो सकते हैं, पर संक्रमण का दुष्प्रभाव लॉकडाउन 3.0 में भी नहीं दिखा।
आज जो दशा है, वह अपनी समझ अनुसार मैंने लिख दी है। और लोग अलहदा विचार रखते होंगे। पर गांव में रह कर इस तरह देखना सब को सुलभ नहीं होगा। अत: तुम्हारे ऑबर्वेशन की भी एक अहमियत है जीडी! 😆
“दोषदर्शी लोग भयावह स्थिति बताने में कसर नहीं छोड़ेंगे, पर मुझे अपने आसपास जो दिखा, वह खिन्न करने वाला नहीं लगता।”
🙂
दोषदर्शी लोग तो आईने के सामने खड़े होते ही गरियाने लगते होंगे – अपने आप को भी!
यहाँ भोपाल में भी, भले ही खबरों में हल्ला बहुत मच रहा हो, और रेड जोन में हो, पर ‘कोरोना के गंभीर मरीज’ पहले से ही किसी किडनी/गैस-त्रासदी में एक्सपोज़्ड जैसे गंभीर बीमारियों के कारण ही पाए जा रहे हैं, बाकी अधिकांश (मेरी सोसाइटी के भी कुछ जिनका परीक्षण पॉजिटिव आया है, और क्वारंटाइन में हैं,) अलाक्षणिक ही हैं.
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हाँ, आप सही कहते हैं। ज्यादा हल्ला पश्चिमी देशों की तर्ज़ पर ही हो रहा है।
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thoda sa ayurved ke kvarantine ke bare me bhi janakari kariyega / ayurved me vat rogo ke nivaran ke liye jo bhi upay bataye gaye hai ve snabake sab apako ayurveda ki nakal hi milenge /
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रोचक बात कही आपने बाजपेयी जी। मैं जानकारी पाने का यत्न करूंगा।
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