गांव को लौटते हतप्रभ और हारे श्रमिकों को भोजन

मैं बार बार कह रहा था राह चलते श्रमिकों को भोजन कराने का उपक्रम पुन: प्रारम्भ करने के लिये। गांव के वे नौजवान भी चाहते थे। शायद इंतजाम करने में समय लगा। कल मुझे कैलाश बिंद जी ने फोन पर बताया कि लोग इकठ्ठा हैं शिवाला पर और भोजन भी बन गया है। “आप वहीं आ जाइये।”

सात-आठ लोग थे वहां। तहरी बन कर तैयार थी एक बड़े से भगौने में। टेण्ट लगा था और उसके नीचे हरी जाजिम बिछा दी गयी थी। थर्मोकोल की थालियां, मिर्च, नमक आदि उपलब्ध था। एक कण्डाल में पानी भरा रखा था।

बांये से – मोहित, नीरज, धीरज, सुशील और कैलाश। इन्होने निस्वार्थ भोजन दान का आयोजन किया। पहले दस दिन तक और अब पुन: प्रारम्भ किया है।

हाईवे (ग्राण्ड ट्रंक रोड) की बगल में शिवाला है। अभी हाल ही में हाईवे के छ लेन का करने के काम में शिवाला पीछे शिफ्ट किया गया है। पुराने मंदिर का मलबा अभी वहीं है। पर परिसर बड़ा है। आम और आंवला के पेड़ भी हैं वहां।

कोरोना लॉकडाउन में घर की ओर पलायन करते श्रमिक और उनके परिवार पश्चिम से पूर्व की ओर चलते हैं। पूर्व की ओर चलते व्यक्ति के लिये शिवाला उसी ओर पड़ता है। सड़क क्रॉस करने का झंझट नहीं। कुल मिला कर भण्डारा आयोजन करने के लिये सही जगह है।

नौजवान लोग राह चलते लोगों से पूछते रहे – “भोजन चाहिये? यहां भोजन का इंतजाम है।”

कई लोग और कई समूह जल्दी में हैं। चलते चलते बोलते हैं कि वे भोजन कर चुके हैं। तभी, धीरज और राहुल एक समूह को बुलाने में सफल रहते हैं। उन्हे कहा जाता है कि अपना सामान रख कर हाथ मुंह धो लें। उसके बाद टेण्ट के नीचे स्थान ग्रहण करें।

राहुल और धीरज राह चलते समूह को भोजन के लिये बुलाने में सफल होते हैं

उन लोगों को सामान रखने, हाथ मुंह धोने और स्थान ग्रहण करने में पांच मिनट लगते हैं। बैठने में भी समूह/परिवार के प्रोटोकोल हैं। महिलायें अपने जेठ के सामने जाजिम पर नहीं बैठतीं। वे बाहर पेड़ के नीचे जमीन पर बैठती हैं। एक व्यक्ति, अधेड़, टेण्ट के डण्डे के सहारे बैठता है। दो छोटे बच्चे अपनी माओं के साथ बैठते हैं। उनमें से एक मां के थाली से खाता है, थोड़ा बड़ा अलग से थाली लेता है।

श्रमिकों का सामान

भोजन परोसने में नौजवान एहतिहाद बरतते हैं। मास्क पहन लिये हैं उन्होने। कड़छुल से तहरी थोड़ा दूरी से ही डालते हैं थाली में। एक अन्य नौजवान नमक मिर्च बांटता है। पानी लेने के लिये प्लास्टिक के ग्लास दिये जाते हैं। पानी परोसा जाता है।

भोजन सादा है। पर नौजवानों में उन श्रमिकों के प्रति आदर भाव है। भोजन कराने में जो आंतरिक सुख का की अनुभूति होती है, वह उनके हावभाव में दिखती है। वे और तहरी लेने का आग्रह भी करते है।

भोजन के लिये बैठे श्रमिक परिवार।

टेण्ट के खम्भे से सट बैठा व्यक्ति बताता है कि वे जलेसर (हाथरस, उत्तर प्रदेश के समीप) से आ रहे हैं। शक्तिनगर के पास गांव है उनका। जलेसर में खेतों में काम करते थे। लॉकडाउन के समय मिर्च तोड़ने का काम था। सब्जी उगाने वालों के यहां मजदूरी करते थे। लॉकडाउन में काम मिलना बंद हो गया तो वापस जाने के लिये रजिस्ट्रेशन कराया। जब भी पूछते थे तो डीएम (जिलाधीश) के लोग दो दिन – दो दिन बाद की कहते थे। भोजन भी दिन में एक बार मिलता था। बताते थे कि तीन बार देते हैं दिन में। हार थक कर उन्होने पैदल ही रवाना होने का फैसला किया। अभी चलते चलते छ दिन हो गये हैं।

मुझे खिन्नता होती है और भ्रष्ट/अकुशल सरकारी व्यवस्था पर क्रोध भी आता है। नराधम! इन निरीह लोगों का भोजन भी मार जा रहे थे। गिद्ध! नोटबंदी के समय भी यह सरकारी जंग लगी मशीनरी एक मिशन में पलीता लगा चुकी है। अब भी वही मशीनरी उसी प्रकार से गरीब लोगों के कष्टों में बढोतरी कर रही है।

अधेड़ महिला अनुरोध करती है कि किसी ट्रक को रुकवा कर अगर कुछ दूर छुड़वाने का इंतजाम हो जाये।
मुझे खिन्नता होती है और भ्रष्ट/अकुशल सरकारी व्यवस्था पर क्रोध भी आता है। …नोटबंदी के समय भी यह सरकारी जंग लगी मशीनरी एक मिशन में पलीता लगा चुकी है। अब भी वही मशीनरी उसी प्रकार से गरीब लोगों के कष्टों में बढोतरी कर रही है।

महिलायें भोजन कर चुकी हैं। उनमें से एक अधेड़ महिला हाथ जोड़ कर अनुरोध करती है कि किसी ट्रक को रुकवा कर अगर कुछ दूर छुड़वाने का इंतजाम हो जाये। पैर टूट रहे हैं। दो नौजवान हाईवे पर जा कर ट्रक वालों को रोकने के लिये हाथ देते हैं। शायद कोई दयालु इन्हे आगे ले जाये। दो युवा महिलायें पेड़ों पर लदे आम देख कर ललचाती हैं। एक नौजवान पेड़ से आठ दस आम तोड़ कर उन्हें दे देता है। महिलाओं के चेहरे पर आयी खुशी का चित्र लेने का प्रयास करता हूं मैं, पर वे दोनों अपना मुंह और आम आंचल में छिपा लेती हैं।

महिलाओं की आम पाने की खुशी मैं कैमरे में नहीं ले पाता। वे अपने को छिपा लेती हैं।

गरीब और विपन्न हैं। छ दिन पैदल चलने पर शरीर और मन टूट गया है। पर फिर भी अपने जेठ का आदर और किसी बाहरी के देखने पर मुंंह छिपा लेने का शिष्टाचार अभी उनमें बरकरार है।

भोजन कर शायद कुछ सुस्ती आ गयी है उन श्रमिकों में। शायद उन्हें कोई ट्रक वाला जगह दे ही दे। वह अधेड़ महिला अपने ही हाथ से अपने पैर मींजने लगती है। जवान स्त्रियां आपस में बोलने बतियाने लगती हैं। खम्भे के सहारे बैठा आदमी अपनी आंख मूंद लेता है। मेरे घर से फोन आता है – वे मेरा इंतजार कर रहे हैं।

मैं शिवाला से चला आता हूं। पर मन उन्ही में लगा रहता है। करुणा और क्रोध – दोनो भाव मन में बहुत देर तक बने रहते हैं।


पोस्ट स्क्रिप्ट – आज 13 मई की शाम को सुशील कुमार मिश्र (बबलू) ने शिवाला पर उत्क्रमित पलायन करते कोरोना वायरस पीड़ित श्रमिक परिवारों को भोजन कराने के चित्र भेजे। बहुत प्रशंसनीय कार्य कर रहे हैं हमारे गांव के नौजवान!
मैने इस विषय पर 2 ब्लॉग पोस्ट लिखी हैं। ये GIF चित्र उसके तारतम्य में कृपया देखें।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

5 thoughts on “गांव को लौटते हतप्रभ और हारे श्रमिकों को भोजन

  1. सरकारी मशीनरी के साथ जो सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं इसके लिए उनपर भी क्रोध एना चाहिए।मात्र 4 घंटे की नोटिस पर बिना कुछ सोचे विचारे जिसने लॉक डाउन किया उसकी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती।

    Like

    1. कह नहीं सकते। बहुत सोच विचार में अनिर्णय भी हाथ लगता है। वह और भी घातक होता।

      Like

  2. बहुत अच्छा काम कर रहे हैं आप और ये नौजवान! क्या हम जैसे शहर में बैठे लोग कुछ मदद कर सकते हैं? कृपया बताएँ।

    Liked by 1 person

  3. सरकारी मशीनरी ने ही हमारा सबसे ज्यादा नुकसान किया है। इनकी भूख शायद ही कभी शांत हो। उम्मीद है यह पथिक जल्द ही अपने घर पहुँच जायेंगे।

    Liked by 1 person

आपकी टिप्पणी के लिये खांचा:

Discover more from मानसिक हलचल

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading

Design a site like this with WordPress.com
Get started