स्कूल बंद हैं; पढ़ाने का जिम्मा दादाजी का हो गया है।

अक्तूबर के महीने में मैंने पोस्ट लिखी थी – स्कूल बंद हैं तो घर में ही खोला एक बच्चे के लिये स्कूल। मैंने अपने घर में अपनी पोती पद्मजा (चिन्ना पांड़े) को पढ़ाने के अपने प्रयोगों के बारे में लिखा था। उसके बाद एक अन्य पोस्ट –पद्मजा के नये प्रयोग में भी पद्मजा को पढ़ाने के प्रयोगों का जिक्र किया था।

मैंने सोशल मीडिया पर भी बच्चों के बाबा-दादी को इस प्रकार के कार्य में रत पाया है। उनके खाली समय का सदुपयोग हो रहा है और बच्चे कुछ समय पढ़ रहे हैं। वैसे भी शायद बच्चों और उनके ग्राण्ड पेरेंट्स के बीच बेहतर समीकरण होते हैं। मां-बाप तो उनपर अपनी हसरतों का बोरा लादते रहते हैं। बाबा-दादी को उस तरह का कोई खास मतलब नहीं होता। वे हसरतों की सार्थकता-निरर्थकता देख-जान चुके होते हैं।

कल बटोही (अपनी साइकिल) को मैंने अचानक रोका। उमरहा गांव से गुजर रहा था तो सड़क के बगल के खेत में एक वृद्ध कुर्सी पर बैठे तीन बच्चों को पढ़ा रहे थे। वे डिक्टेशन दे रहे थे और बच्चे लिख रहे थे – “रमेश किसान है। पर सुरेश तो नेता है।…”

मैंने साइकिल स्टैण्ड पर लगायी और खेत में उतर कर उनके दो-चार चित्र लिये। वृद्ध से पूछा तो उन्होने बताया कि स्कूल तो बंद ही हैं। कभी कभार एक आध घण्टे के लिये वहां बच्चों को बुलाते हैं; पर उसका कोई खास मतलब नहीं। वे रोज घण्टा दो घण्टा बच्चों को पढ़ाते हैं। घर ही के बच्चे हैं। उनके नाती।

एक बच्चे से मैंने पूछा – पढ़ना अच्छा लगता है? उस बच्चे ने तो जवाब दिया, बाकी दोनो भी बोल उठे – “हां, लगता है”।

शायद दादाजी प्यार से पढ़ाते हों।

दादाजी मैली सी धोती या लुंगी पहने थे। ऊपर सर्दी के हिसाब से पूरी बांह का स्वेटर। सिर पर गमछा लपेटे थे और आंख पर चश्मा। दाढ़ी मूछें उन्हे गरीबी में भी गरिमा प्रदान कर रही थीं। पैर प्लास्टिक की कुर्सी पर ही मोड़े हुये थे। कपड़ों से सम्पन्न तो नहीं लगते थे, पर स्वास्थ्य ठीक लगता था। उनका और बच्चों का धूप में बैठ अध्यापन-अध्ययन बरबस ध्यान खींचने वाला था। बच्चे भी पूरी गम्भीरता से अपनी अपनी बोरी बिछा कर और अपने बस्ते ले कर बैठे थे।

खाली पड़े खेत की बजाय किसी घर के सामने या ओसारे में ये लोग बैठे होते तो मैं साइकिल से चलता चला जाता। खेत में बैठने का दृष्य ही कुछ ऐसा बन रहा था कि मैं रुका; भिन्न कोणों से चित्र लिये और दादाजी तथा बच्चों से बात भी की। दादाजी मुझसे उम्र में कुछ ज्यादा होंगे या बराबर भी हो सकते हैं। बच्चों को जो सिखा रहे हों; वह महत्वपूर्ण है ही; महत्वपूर्ण यह भी है कि उनसे आदान प्रदान में उनकी जिंदगी और सोच में भी कुछ बदलाव आ रहा है या नहीं। मेरी पीढ़ी ने बड़ी तेजी से बदलाव देखे हैं और उसकी चकाचौंध में गहन जीवन मूल्य ध्वस्त भी हुये हैं। बच्चों से यह आदान प्रदान सार्थक जीवन मूल्यों की वापसी या निर्माण को अगर बढ़ाये तो अच्छा हो। अन्यथा सब कुछ और भी गड्डमड्ड होता जा रहा है।

कोरोना काल में इस बूढ़ी पीढ़ी के पास एक काम आ गया है। और वह काफी मेहनत से उसे करती दिखती है। … जय हो, इन दादाजी की!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

One thought on “स्कूल बंद हैं; पढ़ाने का जिम्मा दादाजी का हो गया है।

  1. “वे हसरतों की सार्थकता-निरर्थकता देख-जान चुके होते हैं।”
    बिलकुल सही! बल्कि “parenting” की अपनी गलतियों से भी काफी कुछ सीख चुके होते हैं !

    Liked by 1 person

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