गांव में हर एक महिला आजकल दोपहर में अपनी बकरी या गाय के लिये चारा काटने निकलती है। एक दो घण्टे खेतों में निराई कर एक बोझ घास मिल जाती है। हर एक के घर में कुछ बकरियां और/या एक गाय है। गाय घर में काम भर का दूध देती है और बकरी उनका गरीबी का इंश्यौरेंश हैं। साल भर में दो तीन बकरियां भी पल कर बेचने लायक हो गयीं तो 10-12 हजार की आमदनी हो जाती है। बिना खर्च किये एक हजार रुपया महीना की आय।

सुग्गी, उसकी चचिया सास और देवरानी खेत में निराई के लिये गयी थीं। सुग्गी हमारे खेत अधिया पर जोतती है। खेत से वापस लौटते समय हर एक के सिर पर एक गठ्ठर था। सुग्गी का गठ्ठर मैंने उतरवाया और जो जो घास/खरपतवार निराई में निकली थी, उसके बारे में पूछा।

सुग्गी ने अपना गठ्ठर खोल कर दिखाया – “जीजा, हई अंकरी हौ। (जीजा यह अंकरी है।)” उसने अन्य खरपतवार के नाम भी बताये। अंकरी, मटरहिया घास (मटर में उगने वाली और मटर के पौधे जैसी दिखने वाली घास), तीनपत्तिया, गेन्हुई घास (गेंहूं का क्लोन) और बरसीम – इनको निकाल निकाल कर मुझे दिखाया। हर घास को दिखाते हुये वह कह रही थी – “एहू क फोटू लई ल (इसकी भी फोटो ले लीजिये)।”

शाम का धुंधलका हो रहा था। दो मेगापिक्सल के फीचर फोन से हर घास के चित्र नहीं आ सकते थे। पर सुग्गी जानती है कि इस बारे में लिखा जायेगा और उसके लिये चित्र जरूरी हैं। वह मेरे खेत का अधियरा ही नहीं है, मेरे ब्लॉगिंग का भी महत्वपूर्ण पात्र है और इसको वह जानती भी है।
और मैं? मैं यह अनुभूति करता हूं कि गांव में तुच्छ से तुच्छ वस्तु भी उपयोग में लाई जाती है। घूरे से भी खाद बनाई जाती है। खरपतवार पर भी एक अर्थव्यवस्था चलती है। पुरानी बोरी, कपड़े, सुतली, घास, पुआल, लकठा, गंदला पानी … सब का कोई न कोई उपयोग है। सिवाय प्लास्टिक और थर्मोकोल के कचरे के, सब का उपयोग-उपभोग गांव करता है। और यह इतना व्यापक है कि इसके अपवाद ज्यादा चुभते हैं; वरन तुच्छ चीजों के घोर उपयोग की वृत्ति के।
यह गांव है, बंधुवर! और बहुत अवगुण होंगे गांव में पर किसी भी वस्तु को बरबाद न करना और उसकी उपयोगिता का पूरा निचोड़ निकालना तो एक गुण ही है। खूब कार्बन क्रेडिट अर्जन होता होगा इससे। नहीं?