वह कॉण्ट्रेरियन विचार रखने वाला प्राणी है। पूरा घर कोविड का टीका लगवा चुका है। परिवार के अस्पताल के प्रबंधन का जिम्मा उसका है, सो उसे और उसकी पत्नी (मेरी बेटी, वाणी) को टीका पहले पहल के दौरान में लगना था। वाणी तो लगवा आयी। पर वह नहीं गया। बकौल उसके – “टीका वीका सब ढकोसला है। फार्स। पानी का इंजेक्शन है।”
अब दामाद है, तो सीधे सीधे उसके साथ किसी प्रकार का तर्क नहीं करता मैं। या यूं कहा जाये कि उस समय करने का मूड भी नहीं था। विवेक की ही बात सुनना चाहता था। और अपनी प्रवृत्ति से अलग, उसने सुनाया भी। शायद इसलिये कि वह अपने कहे पर पुख्ता तौर पर यकीन करता था।

मेरे पूछने पर विवेक ने बोलना शुरू कर दिया –
“लोग टीका लगवा कर सोच रहे हैं कि अमृतपान कर लिया। अब कुछ हो नहीं सकता उनको। पर किसी को नहीं मालुम कि टीका कितना प्रभावी है। कितनी एफीकेसी है। कितने समय तक उसका फायदा होगा। डाक्टर लोग एक दिन कुछ बोलते हैं। दूसरे दिन कुछ और। कहते हैं टीका लगवा लो पर सतर्क रहो। तब लगवाने का क्या मतलब? इसलिये मैं तो सतर्क ही रहता हूं। आगे भी ऐसे रहने का विचार है।”
“जब से यह कोरोना संक्रमण चला है और यह पता चला है कि इससे बचाव के लिये मास्क लगाना, सोशल डिस्टेंसिंग, हाथ धोना और सेनीटाइजर का प्रयोग ही उपाय है; तब से मैं वही कर रहा हूं। और लोग बीच बीच में लापरवाह हो जाते हैं, पर मैंने लापरवाही नहीं बरती। हर्ड इम्यूनिटी कब आयेगी, पता नहीं। वह लोगों में अपने से आयेगी या टीके से, वह भी कह नहीं सकते। पर मैं हर्ड इम्यूनिटी का भी इंतजार नहीं कर रहा। कोरोना का वायरस रोज अपने को बदल रहा है। नये नये प्रकार सुनने में आते हैं। उनपर कौन दवा, कौन टीका चलेगा, कोई श्योर नहीं है।”
“इसलिये, इस प्रोटोकोल को मैंने नॉर्मल लाइफ का हिस्सा बना लिया है। कोरोना हो या न हो, मास्क से मुझे सांस में धूल धक्कड़ से तो बचाव हो ही रहा है।”
वाणी भी बताती है कि विवेक सही में वैसा ही करता है। घर के बाहर मास्क और सेनीटाइजर के बिना नहीं निकलता। उसके काम में यात्रा करना ही पड़ता है। उसके पिताजी कोरोना संक्रमण से उबरे हैं। उनको दिल्ली ले कर भी वह गया था साथ में। उनका पूरे इलाज के दौरान उनके साथ रहा। दिल्ली, रांची, धनबाद, बनारस … जाना आना होता है। अपने वाहन से भी और हवाई जहाज से भी। पर वह मास्क-सेनीटाइजर प्रोटोकॉल में ढील नहीं देता। पूरे घर भर ने टीका लगवा लिया है, पर विवेक ने नहीं लगाया।
वह कुछ अलग प्रकार के लोगों में एक है जो पूरी पेण्डेमिक रिसर्च के केवल सतर्कता वाले हिस्से पर अपना दाव खेल रहा है। उसके कुटुम्ब के कई लोग लापरवाही दिखाते हैं। पर वह अपने दफ्तर में, अकेले में, भी मास्क लगा कर बैठता है।
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वाणी ने कहा – “वैसे क्या पता कोरोना आया हो और इम्यूनिटी दे कर ए-सिम्प्टोमैटिक तरीके से चला भी गया हो। आखिर, घर में सभी को दो-तीन बार जुखाम-खांसी-बुखार हो ही गया था। घर में सभी ने तुलसी, हल्दी, गिलोय, अश्वगंधा ढकेला है खूब मात्रा में। कोरोना उन सब से भी डर कर भाग गया होगा। 🙂 “
विवेक पूरे कोरोना काल में मुझे साइकिल ले कर न निकलने, न घूमने की सलाह देता रहा है। वह हमेशा मुझे अपने को सम्भाल कर रखने-रहने के लिये कहता रहा है। वह सतर्कता के तरीके से इस महामारी को डील करता रहा है और मैं कोरोना के बारे में जितना पढ़ता-सुनता हूं; उतना सतर्क नहीं रहता।

इलाज और टीके को ले कर जो कुछ उहापोह और भविष्य के बारे में अस्पष्टता विशेषज्ञों के कथन में दिखती है; उसके बावजूद पैसे दे कर मैं और मेरी पत्नीजी टीका लगवा आये हैं। अठाईस दिन बाद फिर लगवायेंगे। पर कोरोना के बढ़ते मामले टीका लगवाने के बावजूद हमें आगाह कर रहे हैं कि अगले साल छ महीने तक मास्क-सेनीटाइजर का संग न छोड़ा जाये। टीका लगवा कर हम वही कर रहे या कड़ाई से करने की सोच रहे हैं, जो विवेक टीके के बारे में नकार भावना रखने के बावजूद पूरे दौरान करता रहा है। वह इसे सामान्य जिंदगी का हिस्सा बनाने की बात कहता है।

वह कुछ अलग प्रकार के लोगों में एक है जो पूरी पेण्डेमिक रिसर्च के केवल सतर्कता वाले हिस्से पर अपना दाव खेल रहा है। उसके कुटुम्ब के कई लोग लापरवाही दिखाते हैं। पर वह अपने दफ्तर में, अकेले में, भी मास्क लगा कर बैठता है।
कॉण्ट्रेरियन प्राणी! 🙂
फेसबुक पर टिप्पणियों का स्क्रीन शॉट –

काफ़ी हद तक ठीक ही हैं विवेकजी। टीका उनके लिये हैं जिन्हें अपनी प्रोटोकाल के बारे तनिक भी संदेह है।
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हमने तो जैसे कोरोना रक्षक पॉलिसी ली थी उसी अंदाज में टीका लगवाया. बाकी तो जो करना है, अपने हिसाब से करना है।
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