घुमंतू ऊंट वाले

Camel Keepers

महराजगंज कस्बे के बाजार का किनारा। वह हुसैनीपुर गांव के नाम से दर्ज है राजस्व रिकार्ड में। कोने पर पीपल का पेड़ और उसके आस पास खड़े थे दो ऊंट। कोई उंट पालने वाला यहाँ नहीं रहता। मैंने आसपास देखा तो पीपल के नीचे ही जमीन पर बिस्तर बिछे दिखे। समझ में आ गया कि ऊंटों के मालिक रात में यहीं डेरा डाले होंगे।

एक ऊंट वाला मुझे चित्र खींचते देख मेरे पास आ गया। वह खैनी मल रहा था। मुझे देख उसका खैनी मलना जारी रहा। खैनी बनाना और बतियाना दोनो एक साथ हो सकता है। शायद खैनी बनाने वाला तमाकू, चूना सोते सोते मिला कर मल सकता है। मोटे टुकड़े बीन कर अलग भी कर सकता है और फटक भी सकता है। यह सब करने या उसे ओठ और दांतों के बीच दबाने के लिये मनुष्य के जागृत होने की शायद जरूरत नहीं होती। सब यंत्रवत होता है। जैसे सांस लेना और सांस छोड़ना।

महराजगंज कस्बे के छोर पर पीपल के नीचे बंधा ऊंट

वह मुझसे कुछ पूछना चाहता था, पर मैंने ही बात प्रारम्भ कर दी – ये ऊंट आप लोगों के हैं? कहां से आ रहे हैं? कहां जायेंगे? ऊंटों से क्या करते हैं?

“हां, हमारे ही हैं। गोपीगंज के हैं हम लोग। ऊंटों से बच्चों को सवारी कराते हैं। बोझा भी ढोते हैं। चना, धान, गेहूं; जो भी अनाज मिल जाये वह लाद कर पंहुचाते हैं। कुछ न कुछ काम मिल जाता है। इतना कि हमारा और ऊंट का पेट भरता रहे। वैसे कोई खास आमदनी नहीं होती।”

ऊंट वाला मुझे चित्र खींचते देख मेरे पास आ गया। वह खैनी मल रहा था।

“आगे कहां तक जायेंगे?”

जहां तक काम मिलता रहे। चुनार तक। वह कोई निश्चित उत्तर शायद देना नहीं चाहता था या कोई निश्चित उत्तर उसके पास था भी नहीं। घुमंतू के पास अगले दिन, पखवाड़े या महीने की कोई खास योजना नहीं होती। मेरा घुमंतू मित्र भी जब निकलना होता है तो यूं ही निकल देता है। बहुत कम सामान, बहुत कम पैसे और बहुत धुंधली योजना के साथ। वह बताता कहीं जाने के बात है और पंहुच कहीं और जाता है।

मेरे पास भी वाहन (ऊंट हो), लादने को ऊंट की काठी हो और अपने बिस्तर, कुछ बर्तन और थोड़ा सीधा-पिसान हो तो यूं ही निकला जा सकता है – बशर्ते घुमंतू होने की मनस्थिति हो। यह व्यक्ति, शायद देखने में मुसलमान लगता था, और कोई परिचय नहीं; पर कोई भी हो सकता था। हिंदू भी। घुमंतू पर कोई धर्म का टैग लगा होता है?

मेरे पास भी वाहन (ऊंट हो), लादने को ऊंट की काठी हो और अपने बिस्तर, कुछ बर्तन और थोड़ा सीधा-पिसान हो तो यूं ही निकला जा सकता है – बशर्ते घुमंतू होने की मनस्थिति हो।

वह मुझसे ज्यादा बातचीत करने के मूड में नहीं लगते थे। या यह भी कि निराले बैठ कर मेरे पास उनसे बतियाने का समय नहीं था। पर इतना जरूर समझ आया कि पेट पालने को बहुतेरे उद्यम हैं। और उसके लिये सरकार को निहोरते निठल्लों की तरह बैठा रहना कोई सम्मानजनक समाधान नहीं है। आपके पास ऊंट हो तो ऊंट से, गदहा हो तो गदहे से, सामर्थ्य हो तो छोटा मोटा वाहन या सग्गड़ (ठेला) खरीद कर भी सामान ढो कर अर्जन किया जा सकता है। एक जगह ईंट भट्ठे पर ईंटें इधर उधर ले जाने का काम करते मैंने खच्चरों को भी देखा है, घोड़ा जुती ठेलागाड़ी को और ऊंट को भी।

ऊंट के ऊपर बैठायी जाने वाली काठी (सीट) पीपल के जड़ के पास रखी थी।

कमाने के तरीके हजार हैं। ये घुमंतू ऊंट वाले थोड़े लीक से हट कर अलग लगे; गरीब, साधन विपन्न पर अनूठे; सो ब्लॉग पोस्ट पर लिखने का मन हो आया उनके बारे में।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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