शारदा परसाद बिंद – चकरी कूटने वाला

chakri sharda prasad bind

प्रयागराज के शिवकुटी वाले घर में अटाले में रखी चकरी मिली। उसके दोनो पल्ले थे पर बेंट नहीं था। मेरी अम्मा अरहर की दाल कहुलाती थीं और दलती थीं। अम्मा नहीं रहीं तो यह अनुष्ठान बंद हो गया। चकरी सहेज कर अटाले में रख दी गयी। इस बार जब उसे मेरी पत्नीजी ने देखा तो गांव पर उठा लाईं। यहां अरहर दलने के लिये आसपड़ोस से चकरी मांगनी पड़ती है। अब उसकी जगह अपनी चकरी इस्तेमाल होगी।

सुग्गी इस बारे में जानकार है और मेरी पत्नीजी की सलाहकार-इन-चीफ भी। उसने बताया कि चकरी काफी समय से यूंही पड़ी थी, तो उसके पल्ले कुंद हो गये होंगे और इस्तेमाल से पहले एक बार कुटवाने होंगे। गांव का ही एक आदमी चकरी, सिल, जांत आदि की कुटाई करता है। जांत तो अब कोई इस्तेमाल करता नहीं पार सिल और चकरी लोग कुटवाते हैं। उसको बुलाना होगा।

चकरी का पल्ला कूटते शारदा परसाद

आज वह आदमी आया। नाम है शारदा परसाद बिंद। उनसे बीस रुपया प्रति पल्ला, यानी कुल चालीस रुपये पर चकरी कुटवाना तय हुआ। पोर्टिको के बगल में उन्होने अपना तामझाम खोला। पानी और एक कपड़े की डिमाण्ड की। पानी से पहले कुल्ला कर मुंह में भरा ‘जोश’ (जर्दा युक्त गुटखा के पैकेट का ब्राण्ड) साफ किया। बैठ कार चुनौटी से चूना-तमाकू निकाल कर सुरती बनाई और सेवन किया। फिर काम पर लगे।

शारदा परसाद ने बैठ कार चुनौटी से चूना-तमाकू निकाल कर सुरती बनाई। सेवन किया। फिर चकरी कूटने में जुटे

उनके पास दो छैनी थीं। एक हथौड़ी। “दो छैनी काहे वास्ते?” पूछने पर उन्होने बताया कि एक स्पेयर है। छैनी की धार काम करते करते कुंद हो जाती है तो काम न रुके इसलिये दो ले कर चलते हैं। काम शुरू करने के पहले उन्होने छैनी को धार दी। धार देने के लिये चकरी के पत्थर को पानी से भिगो कार उसपर छैनी की नोक को घिसा।

छैनी की नोक पर धार देने का अनुष्ठान

कुल्हाड़ी से काम करने वाला हो, या छैनी से। बार बार धार देना आवश्यक होता है। इसी को देख कर स्टीफन कोवी ने इफेक्टिव लोगों की एक आदत “sharpen the saw” बताई है। आदमी की कुशलता समय निकाल कर औजार को धार देने में निहित होती है। अच्छे अच्छे लोग यह काम नहीं करते। :-(

धार देने के बाद चकरी के पल्ले पर पानी का लेप कर काम शुरू किया। टक टक की आवाज से वे सीधी रेखा में दांये हाथ से हथौड़ी चलाते और बांये से छैनी को बढ़ाते हुये समान दूरी पर पत्थर कूटते रहे। शारदा परसाद के सधे हाथ तालमेल से बड़ी तेजी से चलते रहे। करीब बारह मिनट में एक पल्ला पूरी तरह कूट लिया।

टक टक की आवाज से वे सीधी रेखा में दांये हाथ से हथौड़ी चलाते और बांये से छैनी को बढ़ाते हुये समान दूरी पर पत्थर कूटते रहे।

दूसरे पल्ले पर, जो ऊपर वाला पल्ला था, जिसमें दाल डालने का अर्ध चंद्राकार छेद भी बना था; पहले पानी से धोया, फिर छैनी के नोक पर पुन: धार दी और तब उसकी कुटाई प्रारम्भ की। मैं बीच बीच में शारदा से प्रश्न भी पूछता जा रहा था। उसका उत्तर देने के लिये वह रुकते और फिर काम शुरू कर देते।

दूसरे पल्ले की कुटाई

शारदा ने बताया कि उसके दो बच्चे हैं। लड़के। आठ और चार साल के। वह कह नहीं सकता कि आगे यही कारीगरी करेंगे या नहीं। सिल, चकरी का प्रचलन अब कम होता जा रहा है। आगे यह काम शायद खतम हो जाये।

इसके अलावा वह टीन और लोहे का काम भी करता है। कनस्तर से डिब्बे, सूप, झरनी, छन्नी आदि बनाता है। पुरानी लोहे की बालटी में अगर पानी चूता हो तो वह भी सुधार देता है। जीविका के लिये मूलत: यही काम वह करता है। सिल-चकरी कूटने का काम नहीं। एक बार आंख में छैनी से छिटक कर पत्थर उसकी आंख में चला गया था, तब से पत्थर कूटने का काम बंद कर दिया है। गांव भर का किसी का कुटाई का काम हो तो कर देता है। अन्यथा नहीं।

वह लकड़ी का काम भी जानता है। फरसा, खुरपी का बेंट बना देता है। चारपाई का ढांचा बना सकता है। तख्त भी बना सकता है पर औजार नहीं हैं। उस सब को खरीदने के लिये तीन हजार चाहिंये, उसका इंतजाम नहीं हो पा रहा।

पैसे की तंगी है। अभी एक हजार रुपये जमा किये थे कथा सुनने के लिये, पर बच्चे बीमार हुये और सारा खर्च हो गया उनके इलाज और दवाई में।

वह चाकू, हंसिया, खुरपी आदि फरगाने (सान देने, धार तेज करने) का काम भी करता था, पर बच्चों ने उसकी मशीन में ढेले डाल दिये। ध्यान नहीं दिया और चालू की मशीन तो उसका पंखा टूट गया। उसको बनवाने के पैसे नहीं हैं।

बताया कि उसका दिल कमजोर है। एक बार पेशाब करने गया था, तब चक्कर आया और बेहोश हो गया। डाक्टर ने बताया कि दिल की बीमारी है। “मैं शायद ज्यादा न चलूं।” – शारदा आशंका व्यक्त करता है। पर उसकी बातों से यह नहीं लगता था कि किसी योग्य डाक्टर ने उसे देखा है। शरीर से वह ठीक ही लगता था। पार यदि दिल कमजोर है तो उसे सुरती-चूना और ‘जोश’ नहीं खाना चाहिये। यह किसी ने सलाह नहीं दी होगी उसे। और शायद यह सलाह वह माने भी नहीं। उसके किसी और नशे के बारे में मैंने पूछा नहीं।

गरीब आदमी शारदा। उसके हाथों में कारीगरी है, हुनर है। शायद उसे आठ दस हजार का माइक्रो फाइनांस मिले तो वह उपयुक्त औजार खरीद कर अपनी आमदनी बढ़ा सके। पर कोई भी कर्ज किसी काम के लिये लिया जाये, बिना संकल्प शक्ति के वह किसी न किसी और मद में खर्च हो जाता है। खर्च की तात्कालिक अर्जेंसी वास्तविक जरूरत पर हावी हो जाती है। यही एक मुख्य कारण है गांवदेहात के लोगों की विपन्नता का। शारदा भी शायद उसी आदत से ग्रसित हो। कह नहीं सकते।

शारदा ने आधे घण्टे में काम खत्म कर लिया। चकरी के ऊपर के पल्ले के ऊपरी हिस्से में फूलपत्ती के डिजाइन बने थे। मैंने कहा कि उनपर भी एक बार कुटाई कर दे जिससे उनका डिजाइन उभर कर सामने आ सके। पर शारदा परसाद ने वह करने से मना कर दिया और न करने के पीछे एक धार्मिक तर्क दिया। उनके अनुसार चकरी बनाने वाला पूजन कर काम शुरू करते समय यह डिजाइन उकेरता है। उसपर एक ही बार छैनी चलती है। दूसरी बार चलाने वाले को पाप लगता है। इसलिये उसको कभी फिर से उकेरा नहीं जाता।

भारत के हर काम में धर्म, पूजा, कर्मकाण्ड निहित है। कहां आप उसका उल्लंघन करने का जोखिम ले रहे हैं, ध्यान रखना होता है!

मेरी पत्नीजी ने उसे नीम की लकड़ी दी मुठिया और बेंट बनाने के लिये। उसने कहा कि एक दो दिन में बना कर दे जायेगा। बाकी, बकौल उसके, हमारी चकरी का पत्थर अच्छा है। “ऐसी चकरी लेने जायें तो छ सौ से कम में नहीं मिलेगी। अब उसकी कुटाई होने पर सही हो गयी है। पांच छ साल के पहले फिर से कुटाई की जरूरत नहीं होगी। ” – उसने कहा।

उसने हमें हिदायत दी कि एक पाव कोई खराब अनाज चकरी में दल कर उसे फैंक दें और फिर चकरी अच्छी तरह साफ कर इस्तेमाल करें। बढ़िया चलेगी।

चकरी, कुटाई के बाद

शारदा परसाद के जाने के बाद मैं सोचने लगा कि गांवदेहात में न बसा होता तो शारदा जैसे चरित्र से कभी मिला न होता। मैं ही नहीं, भारत/इण्डिया के अनेकानेक लोग शारदा जैसे चरित्र से परिचित नहीं होंगे। जांत खत्म हो गये, सिल-बट्टा भी कोई इस्तेमाल नहीं करता शहरों-कस्बों में। दाल दाल मिल से आती है। दलने के लिये चकरी कौन रखता है। घर घर में मिक्सर-ग्राइण्डर का चलन हो गया है। लड़की को विवाह में भी ह्वाइट गुड्स में लोग वही देते हैं। चकरी जांत, सिल-बट्टा तो शादी में मण्डप में शगुन के लिये रखने का काम भी मुश्किल से हो पाता है। वह भी शायद शादी कराने वाले पण्डिज्जी अपने पैकेज में ले कर आते हों और शादी करा कर समेट कर ले जाते हों।

बेंट बनाने के लिये लकड़ी ले कर जाता शारदा परसाद

शारदा परसाद वर्तमान में है, पर अतीत होता जीव है। उसके बारे में जो कुछ है, वह लिख कर या वीडियो बना कर संजो लेना चाहिये। एक दशक बाद शायद वह कार्य विलुप्त हो जाये।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

5 thoughts on “शारदा परसाद बिंद – चकरी कूटने वाला

  1. शारदा का चरित्र हम सबके लिये नया है पर यह कर्म बहुत पुराना है। प्रचलन नहीं रहा, चक्कियाँ जो बन गयी हैं, हर कार्य के लिये.

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    1. गांव में चकरी अब भी दिख जाती है, दाल दलने के लिये। पर जांत गायब हो गये हैं चूंकि आटा चक्कियां हर तरफ खुल गयी हैं।

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