मटर और महुआ उबाल कर खाते रहे हैं अतीत में – सत्ती उवाच

सत्ती उपयुक्त चरित्र है दलित बस्ती में आये बदलाव को बताने के लिये। वह लगभग मेरी पत्नीजी के उम्र की होगी। या कुछ छोटी। यद्यपि उसे अपनी उम्र के बारे में खुद कोई अंदाज नहीं है। पूछने पर कहती है – रनिया, नाहीं जानित। तीस चालीस होये ! “रानी (मेरी पत्नी जी को रानी कहती है) – नहीं जानती अपनी उम्र पर तीस चालीस होगी।” हम अनुमान ही लगा सकते हैं। मेरी पत्नीजी की शादी नहीं हुई थी, तब वह ब्याह कर इस गांव में आ चुकी थी। मेरे साले शैलेंद्र से अपने को उम्र में वह बड़ी बताती है और शैलेंद्र की उम्र 55+ की है। उस आधार पर उसे पचपन – साठ के बीच माना जा सकता है।

बातचीत में वह प्रगल्भ है। धाराप्रवाह बोल सकती है। हाजिर जवाब है और यह नहीं लगता कि किसी पूर्वाग्रह से वह गलत सलत बतायेगी। इसलिये मैंने विगत दशकों में हुये परिवर्तन को जानने के लिये उससे बात करने की सोची। उससे बात अपनी पत्नी जी के माध्यम से ही हो सकती है। वे ही उसके साथ उसकी भाषा में और उसकी ट्यूनिंग के साथ बात कर सकती हैं।

सत्ती

उसके साथ यह पहली मुलाकात थी और वह अतीत के बारे में पूरी तरह सोच कर तैयारी के साथ नहीं आयी थी। उसने टुकड़ों में बताया। सिलसिलेवार नहीं। और कई बातों में तो उसे याद दिलाना पड़ा।

सत्ती को हमने कुर्सी पर बैठने के लिये कहा, पर वह जमीन पर ही बैठी। उसके लिये चाय अपने साथ ही परोसी, पर वह कप ले कर अकेले एक कोने में जा कर पी कर आयी। अभी भी, सन 2021 में भी उसकी पीढ़ी पुराने संस्कार नहीं छोड़ पाई है।

सत्ती को हमने कुर्सी पर बैठने के लिये कहा, पर वह जमीन पर ही बैठी।

उसकी चार बेटियां हैं और दो बेटे। बेटे मिस्त्री का काम करते हैं। उसका पति घर बनाने का ठेका लेता है। वह कुशल मिस्त्री है। एक लड़की का विवाह हो चुका है। बाकी लड़कियां भी विवाह योग्य उम्र वाली हैं। एक लड़की बीमार चल रही है। उस लड़की की ओझाई करा रही है। शायद ओझाई पर उसे दवाई से ज्यादा यकीन है। मेरी पत्नीजी उससे कहती हैं कि ओझाई छोड़ ठीक से इलाज कराये। वह बोली – “नाहीं रनिया, डाक्टर के लगे लई गइ रहे – नहीं रानी, डाक्टर के यहां ले कर भी गयी थी। उसने सूई लगाई और दवाई भी दी है।”

मेरे श्वसुर (पं. शिवानंद दुबे) जी के बारे में बताती है। उन्होने बीस रुपये पर रखा था घर में। वे चीनी मिल में जाते थे। बनी (मजूरी) में उसने गेंहू भी मांगा था, वह भी देते थे वे। उस जमाने में उसने पांच सौ रुपये का नोट नहीं देखा था। मालिक (पं. शिवानंद) से चिरौरी की तो धन तेरह के दिन पांच सौ भी दिया था। उसे माथे से लगाया था सत्ती ने। घर पर ले जा कर उसी नोट की धनतेरस को पूजा की थी। मालिक हाता (अहाता, अपना पुश्तैनी घर) छोड़ कर टबेले (ट्यूब वेल की कोठरी) में रहते थे। तभी मालिक और भईया (शैलेंद्र) ने उसे काम पर रख कर ठिकाना दिया था। भईया गरम (नाराज) हो गये थे एक बार और सत्ती ने मालिक को कहा था कि वह काम नहीं करेगी। पर मालिक ने मनाया और कहा कि भईया को समझा देंगे। उसके बाद मालिक के असामयिक निधन के बाद भी लम्बे अर्से तक वह भईया के यहां काम करती रही।

मेरी पत्नी पूछने लगीं कि नार काटने (बच्चे की नाल हंसिया से काटने) पर क्या मिला करता था? सत्ती ने बताया कि पैसा नहीं मिलता था। उस समय काम के बदले अनाज देने का प्रचलन ज्यादा था। नार काटने के लिये 6-7 पऊआ (पाव) अनाज मिलता था। यह तब की बात है जब जमीन 100 रुपया बिस्वा की हुआ करती थी।

सत्ती कहती है कि उस समय धोती-साड़ी 200 रुपये की आती थी। फेरीवाले आते थे कपड़ा ले कर। साड़ी अनाज के बदले नही, पैसे से मिलती थी। उसकी मां के जमाने में शायद अनाज के बदले कपड़ा खरीदा जाता रहा हो। पर यह जरूर था कि कपड़ा फेरी वालों से ही लिया जाता था।

तब से अब के परिवर्तन के बारे में वह जोड़ती है। बड़ा फर्क हो गया है। काम ज्यादा मिलने लगा है लेकिन उसी तरह से खर्चा भी बढ़ गया है। कई तरह की चीजें मिलने लगी हैं जो पहले कभी सोची भी नहीं थीं।

सत्ती पहले के खाने के बारे में बताती है। दो जून खाना तो बनता ही नहीं था। मटर की दाल के साथ महुआ उबालते थे। वही खाते थे। मौसम में 2-2 बोरा महुआ बीन कर इकठ्ठा किया जाता था। उसी से काम चलता था। बनी (मजूरी) में लोग अरहर देने की पेशकश करते थे, पर दलित बस्ती के लोगों की मांग होती थी कि गेंहू मिले। “लोटन गुरू के हियाँ गेंहू मांगत रहे – लोटन गुरू के यहां गेंहूं मांगते थे अरहर की बजाय। पर गेंहू कम ही मिलता था। उसकी बजाय जौ मिलता था।”

रोटी-चावल कम ही नसीब होता था। ज्यादातर मटर-महुआ उबाल कर खाया जाता था। लोग आग सुलगा कर रखते थे। तम्बाकू पीते थे और उसी आग में जौ के आटे की लिट्टी सेंकते थे। पानी ताल (तालाब) का इस्तेमाल होता था। बड़े लोगों के घर धान कूटने पर जो भूसी निकलती थी, उसे बीन कर लाते थे और उससे किनकी (चावल के टुकड़े) निकाल कर उबाल कर खाते थे।

“रनियां, हमरे बस्ती में एक कुआं रहा। पूरा चमरऊट उही से पानी पियत रहा।”; सत्ती ने बताया। कुआँ शायद कच्चा या जर्जर था जो बाद में भंठ (धसक कर बंद हो) गया। “कौनो हित्त नाथ आये पर पानी बरे दौड़े परत रहा (किसी अतिथि सम्बन्धी के आने पर पानी के इंतजाम के लिये दौड़ना पड़ता था। अब तो हैण्ड पम्प बहुत से लगवा दिये हैं सरकार ने।)।”

सत्ती ने बताया कि वह बेहतर जानकारी देने के लिये अपने साथ तपेसरा और परभतिया को ले कर आयेगी। वे लोग शायद बेहतर बता सकेंगी।

उसके जाते समय हम सोच रहे थे कि कितना परिवर्तन आया है। अब अनाज की तो कोई किल्लत ही नहीं है। गेंहू, चावल, दाल तो राशन की दुकान से साल भर से ज्यादा अर्से से मुफ्त मिल रहा है। दिन में दो तीन बार भोजन की कोई किल्लत ही नहीं है। बच्चों को स्कूल में पढ़ाई भले न हो रही हो, यूनीफार्म-जूते-राशन-कॉपी-किताब सब मिल रहा है। जीवन स्तर बेहतर हुआ है और उसी अनुपात में अपेक्षायें भी बढ़ी हैं। असंतोष तब भी था, अब भी है। अब शायद पहले से ज्यादा हो गया है।

देखें, तपेसरा और परभतिया के साथ सत्ती कब मिलवाती है। तब शायद सामाजिक आर्थिक बदलाव के बारे में और जानकारी मिले।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

2 thoughts on “मटर और महुआ उबाल कर खाते रहे हैं अतीत में – सत्ती उवाच

    1. हाँ और मुख्य बात है कि बदलाव ने सबसे वंचित वर्ग को भी प्रभावित किया है. प्रजातंत्र की सफलता ही कही जाएगी.

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