वे भोलेनाथ फूड प्लाजा पर मेरे साथ आ कर बैठे। राघवेंद्र जी ने परिचय कराया कि उनके पिताजी हैं। लड़का उनका यह सफल फूड प्लाजा चला रहा है तो वे अपनी होम टर्फ पर थे और मैं एक अतिथि। चाय राघवेंद्र ने मेरे और अपने लिये बनवाई थी, वह मेरे और उनके पिताजी के लिये हो गयी। कुर्सी मेरे और राघवेंद्र के लिये थीं। अब उनके पिताजी बैठे। राघवेंद्र खड़े रहे। एक कप चाय और आयी और राघवेंद्र ने खड़े खड़े चाय पी।
उनके पिताजी, रविशंकर मिश्र, सेना में थे। पचास की उम्र में सूबेदार के ओहदे से रिटायर हुये। पिछले साल मोटर साइकिल पर जा रहे थे, तो किसी ने पीछे से टक्कर मार दी। जांघ की हड्डी टूट गयी। अब रॉड पड़ी है और चाल में शायद कुछ धीमापन आ गया है। बासठ की उम्र है उनकी, इसलिये ठीकठाक रिकवरी हो गयी; वर्ना सीनियर सिटिजन के लिये घुटना-जांघ-कूल्हा टूटना घातक होता है। मेरे पिताजी की भी जांघ की हड्डी टूट चुकी थी और उनकी रिकवरी में उनको अवसाद में जाते-उबरते मैंने देखा है। रविशंकर जी जांघ के फ्रैक्चर से उबर कर सामान्य जीवन जी रहे हैं; यह जान कर अच्छा लगा। राघवेंद्र ने बताया कि उन्हें अवसाद जैसी कोई समस्या नहीं हुई।

पर उनकी अस्वस्थता का यही अंत नहीं था। इस साल जब कोरोना संक्रमण पीक पर था तो किसी सम्बंधी के दाह संस्कार में गये थे वे। वहां की गर्मी, उमस और उसके बाद कार के वातानुकूलन में आने से उनका स्वास्थ्य बिगड़ा जो अंतत: जांच में उनके कोरोना की चपेट में आने में डायग्नोइज हुआ। अब जा कर वे उबर सके हैं उस कष्ट से। तीन महीने बाद।
मैं वयोवृद्ध लोगों से मिलना क्यों चाहता हूं? एक तो उनसे दीर्घ जीवन के सूत्र मिल सकते हैं (जो तलाशना आजकल मेरा ऑब्सेशन सा हो गया है)। दूसरे, सीनियर लोग अपने अतीत के प्रति नॉश्टॉल्जिया रखते हैं। उनसे ही विगत समाज और हो रहे परिवर्तन के इनपुट्स मिल सकते हैं।
– इसी पोस्ट से
साठोत्तर जीवन के ये कष्ट जब मैं सुनता हूं तो अपने स्वास्थ्य को ले कर भी सतर्क हो जाता हूं। मेरे ब्लॉग के पढ़ने वाले (मेरा अनुमान है) नौजवान (20-50 की उम्र वाले) अधिक होंगे। उन्हें सीनियर सिटिजंस के मसलों में शायद बहुत दिलचस्पी न हो। पर समय बहुत तेजी से बीतता है। जिंदगी के खेल के हाफ टाइम की सीटी कब बज जाती है, वह खिलाड़ी को ध्यान ही नहीं रहता। जिंदगी का सेकेण्ड हाफ, खेल के नियम से नियत समय का नहीं होता। वह कितना लम्बा चलेगा, उसको जितना खिलाड़ी तय करता है उतना ही प्रारब्ध भी। मुझे लगता है, अपने हाथ में जितना है, उसपर ध्यान देते हुये जीवन की स्ट्रेटेजी बनानी चाहिये। रविशंकर जी से मुलाकात छोटी हुई, वर्ना उनसे उनकी अस्वस्थता और उससे उबरने पर उनकी मानसिक प्रतिक्रिया के बारे में पूछता।

वैसे राघवेंद्र जी ने बताया कि उनके पिताजी स्वस्थ हैं – शारीरिक और मानसिक, दोनो प्रकार से। सवेरे कुछ व्यायाम करते हैं। फिर खेत की मेड़ से होते हुये चक्कर लगा आते हैं गांव का। तीन गायें हैं, उनकी देखभाल करना उनकी दिनचर्या का हिस्सा हैं। राघवेंद्र के हिसाब से उन्हें यह करने की आवश्यकता नहीं; वह करने के लिये और लोग हैं। पर जैसा मुझे और लोगों ने बताया है – गाय पालना, सेवा करना, उसपर स्नेह से हाथ फेरना अपना खुद का स्वास्थ्य ठीक रखने का एक सार्थक जरीया है। रविशंकर मिश्र शायद यह बखूबी जानते हैं और तभी गाय को दिनचर्या का हिस्सा बनाये रखना उन्होने जारी रखा है।
मैंने रविशंकर जी से गांव देहात के बदलाव की चर्चा की थी। मेरी इच्छा वयोवृद्ध और मानसिक रूप से एलर्ट उन लोगों से मिलने की है, जो अपने परिवेश को सूक्ष्मता से देखे, परखे और जिये हैं। वे, जिनकी अभिव्यक्ति संतोषप्रद है। जो बोलने बतियाने में लटपटाते नहीं। रविशंकर जी ने अपने गांव के दो व्यक्तियों की चर्चा की जो जीवन के लगभग 9 दशक गुजार चुके हैं और शारीरिक-मानसिक रूप से चैतन्य हैं। उनसे निकट भविष्य में मैं मिलना चाहूंगा।
गांवदेहात में पिछले सत्तर अस्सी साल में जो बदलाव हुआ है, उसका कोई फर्स्ट हैण्ड विवरण मिले – यह काम का होगा।
रविशंकर जी कहीं जाने की जल्दी में थे। जाते जाते उन्होने पिछले दशकों का एक परिवर्तन बताया – ऋतु परिवर्तन का असर खेती किसानी पर हुआ है। उनके बचपन में दीपावली तक गेंहूं की बुआई हो जाती थी। किसान उससे खाली हो जाता था; अब तो बुआई कार्तिक के उत्तरार्ध में शुरू ही होती है। … वही हाल शायद खरीफ की फसल का भी हो। अभी तो धान पूरी तरह रोपा नहीं गया है और आधा अगस्त निकल गया है। एक सज्जन ने टिप्पणी की है कि धान की रोपाई अब रक्षाबंधन तक चलती है और रक्षाबंधन 22 अगस्त को है।

मैं वयोवृद्ध लोगों से मिलना क्यों चाहता हूं? एक तो उनसे दीर्घ जीवन के सूत्र मिल सकते हैं (जो तलाशना आजकल मेरा ऑब्सेशन सा हो गया है)। दूसरे, सीनियर लोग अपने अतीत के प्रति नॉश्टॉल्जिया रखते हैं। उनसे ही विगत समाज और हो रहे परिवर्तन के इनपुट्स मिल सकते हैं।
गांवदेहात में पिछले 70-80 साल में हुये परिवर्तन जानने की मेरी इच्छा है और इसे मैं हर जगह व्यक्त करता फिरता हूं। 😆
आपको भी अगर बदलाव के कुछ बिंदु दिखते हैं – अच्छे या बुरे, कोई भी; तो टिप्पणी में बताइयेगा।
वैसे ब्लाग का कलेवर बहुत अच्छा हो गया है।
LikeLiked by 1 person
सेना की सेवा करने वालों को अवसाद नहीं आता है। हम लोग जो बौद्धिक कार्य में लगे रहते हैं, उसी के उतार चढ़ाव में थक जाते हैं। रोचक अनुभव।
LikeLiked by 1 person
अवसाद का विषय भी बड़ा रोचक है। कभी कभी हम औरों को नसीहत देते रहते हैं और अवसाद हमारे मन में ही घर कर लेता है।
यहां इसका निदान गांवदेहात में यह डीह बाबा, अलाने फलाने बरम, ओझा, सोखा के डोमेन में आता है।
LikeLike
अब 76 का हूं। बचपन में सामान्यतः ज्वार बाजरे की रोटी खाते थे। गेहूं विलासिता की वस्तु थी। बहुधा किसी अतिथि के आने पर ही गेहूं की रोटी बनती थी। सब्ज़ी के नाम पर अपने खेत में उपजी दाल या सरसों के साग पर निर्भर थे। आलू की सब्ज़ी किसी विशेष अवसर या पाहुने आने पर ही बनती थी। यातायात के संसाधनों का नितांत अभाव होने के कारण कोसों पैदल चलना सामान्य था। एक प्रसिद्ध कहावत थी – रेल की सवारी, हैजे की बीमारी और आलू की तरकारी प्रारब्धवश ही प्राप्त होती हैं।
देख रहा हूं कि वही जीवन शैली फिर आ रही है। ग्लूटेन के कारण और अधिक गुणकारी जानकर अब महंगा जौ, बाजरा, ज्वार और कोदो गेहूं का स्थान ले रहा है। ट्रेडमिल पर ही सही, लोग पैदल चलने का महत्व समझने लगे हैं। हरी पत्तेदार सब्ज़ियों ने फिर थाली में स्थान बना लिया है। उस समय प्रयुक्त गोबर की खाद से उत्पादों का प्राकृतिक स्वाद अक्षुण रहता था। अब ऑर्गेनिक के नाम पर फिर उसी स्वाद को खोजा जा रहा है।
परिवर्तन प्रक्रिया प्राकृतिक है। जो जी भर कर जिया है, उसे कैसे भुला दें? शटल के पीले डिब्बे में बैठे हुए कभी कभी आने वाली कोयले के धुएं की गंध और राजधानी के वातानुकूलित कोच में रची बसी केचप के सिरके की गंध की भला क्या तुलना?
बीता हुआ ज़माना आता नहीं…… अब तो बस यादें ही सहारा हैं।
LikeLiked by 1 person
“एक प्रसिद्ध कहावत थी – रेल की सवारी, हैजे की बीमारी और आलू की तरकारी प्रारब्धवश ही प्राप्त होती हैं।”
बहुत बढ़िया. रेल्वे की नौकरी कर लेने के दौरान यह कहावत संज्ञान में नहीं आई. यह बताने के लिए बहुत धन्यवाद शर्मा जी!
और आप का स्वास्थ्य अच्छा बना रहे, आप दीर्घायु हों; उसकी शुभकामनाएं!
LikeLike