मुझे कोई इस तरह की घरेलू बात कहे, सुनाये – यह कुछ अटपटा लगा। और वह भी एक अपरिचित महिला कहे?
शायद बाढ़ की विभीषिका अपने घर के आगे देख कर व्यक्ति सन्न हो जाता है और एक अपरिचित से भी मुखर हो जाता है अपना दुख सुख बताने के लिये।
घर से निकला तो पक्का नहीं था कि गंगा जी की बाढ़ देखने कहां जाना है। रास्ते में सड़क किनारे बाढ़ू मिल गये। उन्होने खबर दी कि गंगा की बाढ़ अब कम होनी शुरू हो गयी है। बाढ़ू रोज मुझे गंगा तट पर जाते देखते थे। उन्हें मालुम था कि मैं गंगा जी की बाढ़ देखने ही जाता हूं। आज उन्होने अपनी ओर से कहा – रोज तूं जाई क गंगा क बाढ़ बढ़वत रहे, आज हम कम कई दिहा (रोज तुम जा जा कर गंगा की बाढ़ बढ़ा देते थे, आज मैंने कम कर दिया)
बाढ़ू का जन्म ही सन 1948 की बाढ़ के समय हुआ था। उसके बारे में मैं पहले ही लिख चुका हूं कि बाढ़ू का नाम कैसे पड़ा?

बाढ़ू की खबर अनुसार उनके घर तक नहीं आया था गंगा जी का पानी। उनका घर ऊंचाई पर है। पर उन्ही की बस्ती को छू रहा था। और बढ़ता तो शायद कुछ घरों में पानी घुस जाता। पर कल रात से पानी उतरना चालू हो गया। अब दो लाठा (करीब 9 गज) पानी दूर हट चुका है।
बाढ़ू अपने घर से दूर सड़क किनारे पाही पर गाय गोरू पाले हैं। मैंने पूछा – आपके घर तक जाने का कच्चा रास्ता ठीक है न? उसमें तो पानी नहीं आया है?
“नाहीं। जा जा। देखि आवअ। (नहीं, जाओ, जाओ। देख आओ पानी की दशा)।” बाढ़ू ने मुझे गंतव्य स्पष्ट कर दिया। आज मैं द्वारिकापुर-कोलाहलपुर घाट की ओर नहीं; द्वारिकापुर के बाहरी भाग की बाढ़ू की अहीर बस्ती की ओर मुड़ा। उनकी बस्ती कुछ ऊंचाई पर है, पर उसके बाद गंगा जी के एक नाले का नीचे का हिस्सा आता है। उस नाले में बरसात का पानी तो नहीं होता पर गंगा जब उफान पर होती हैं तो उन्ही का पानी बाढ़ के रूप में फैल जाता है।
बाढ़ू की बस्ती का रास्ता खेतों की मेड़ से बना था। पगडण्डी। उसपर साइकिल चलाने के लिये वैसे भी कुछ गंवई दक्षता चाहिये और अब तो मिट्टी गीली होने के कारण कई जगह धंस रही थी। साइकिल कई जगह फंस गयी। मुझे उतर कर पैदल चलना पड़ा। साइकिल में कीचड़ फंसा और मेरे बरसाती जूते भी कीचड़ से सन गये। अंतत: मुझे साइकिल से उतर कर एक डेढ़ किलोमीटर का रास्ता लगभग पैदल, साइकिल धकेलते हुये नापना पड़ा।

एक जगह दो बच्चे, किसी भी बाढ़ या किसी अन्य चिंता से बेखबर, कबड्डी खेल रहे थे। केवल दो ही बच्चे थे। एक बच्चे की एक टीम! आम के पेड़ों के नीचे वे बहुत दिनो बाद खुले आसमान और सूरज निकलने का आनंद ले रहे थे।

बाढ़ू का घर उसकी बस्ती के पश्चिमी छोर पर है। पूरी बस्ती पार कर पूर्वी छोर पर गंगा जी का बढ़ा हुआ और नाले के जरीये आया पानी दिखा। खड़ंजा का रास्ता आगे पानी से भर गया था। आगे जाना सम्भव नहीं था। मैंने साइकिल रोक कर पानी में साइकिल के पहिये और अपने जूते – जिनपर रास्ते में कीचड़ लग गया था – धोये। उसके बाद दृष्य निहारने में लग गया। जहां करहर से द्वारिकापुर गांव को जाती सड़क थी और जिसपर अब पानी जमा था; उसपर कुछ बंच्चे पानी में खेल रहे थे। निश्चय ही उस जगह पानी बहुत ज्यादा नहीं होगा। पर पूरा परिदृष्य जलमग्न जरूर था।
पूर्वी छोर पर जो घर था, उससे एक लडकी निकल कर मुझे बाढ़ का हाल बताने लगी। उसके बाद उसकी मां भी निकली और उन्होने बताया कि खड़ंजा, जिसपर गाय-गोरू बंधे हैं, पूरी तरह पानी में था। उसके बाद के शेड में उन्हे बांधा जा रहा था। अब, उनका चारा भी नहीं बचा है। आगे इतना पानी जमा है कि गांव में जमा भूसा (गांव 5-6सौ कदम ही दूर है पर अब वहां जाने के लिये 4-5किलोमीटर का चक्कर लगाना होगा) लाया नहीं जा सकता। जो कुछ बचा है उसे जोड़ तोड़ कर खिलाया जा रहा है। पशु ज्यादा हो गये हैं और उन्हे सम्भालना कठिन हो रहा है। एक साहीवाल गाय गाभिन है। चार महीने बाद बच्चा जनेगी। उसे तब बेचना है। “आपकी पहचान में कोई ग्राहक हो तो बताइयेगा।”
मुझे कोई इस तरह की घरेलू बात कहे, सुनाये – यह कुछ अटपटा लगा। और वह भी एक महिला? शायद बाढ़ की विभीषिका अपने घर के आगे देख कर व्यक्ति सन्न हो जाता है और एक अपरिचित से भी मुखर हो जाता है अपना दुख सुख बताने के लिये। वैसा ही वह महिला भी कर रही थी।

आगे अपनी समस्यायें बताने लगी। अपनी आर्थिक समस्यायें। अपनी बीमारी और निकट भविष्य में होने वाला उसका पथरी का ऑपरेशन। “ऑपरेशन क खर्चा होये त गईया बेचाये से ही मिले (आपरेशन के खर्चे के लिये गाय बेचने से ही इंतजाम होगा)। और केऊ करवईया भी नाहीं बा। हमही के दुहे पड़थअ (घर में और कोई दूघ दुहने वाला नहीं है, मुझे ही करना होता है)।”
मैंने लाल (गहरे भूरे) रंग वाली गाय देखी। अच्छी और स्वस्थ लग रही थी। मैंने कहा – “खरीदने को तो मैं ही खरीद लूं, पर मेरे घर में कोई गाय की सेवा करने वाला है ही नहीं। और सेवा करने के लिये कोई नौकर रखा तो बहुत मंहगा पड़ेगा!”
गंगा जी की बाढ़ के विस्तार और उसके उतार का अंदाज लेने के बाद में; जिस रास्ते आया था, उसी रास्ते लौटा। इस लौटानी में मैं सतर्क था। साइकिल के साथ जोर जबरदस्ती नहीं की। चलने के लिये अपने पैरों पर ज्यादा यकीन किया। धूप हो गयी थी। पसीने से तर बतर हो गया था। पर बाढ़ प्रभावित गांव और लोगों के साक्षात अनुभव का थ्रिल मन में था। वही बहुत उपलब्धि थी दिन की।
गंगा जी का जल स्तर उतरना चालू हो गया है तो जल्दी ही तेजी से उतरेगा। अभी मानसून का डेढ़ महीना शेष है। शायद एक बार फिर बढ़े जल स्तर। पर इतना लगता है कि आसपास के गांव डूबेंगे नहीं। परेशानी में भले आयें।

हा हा हा, बाढ़ तो बालकृष्ण के चरण छूने के लिये यमुना में आयी थी। आप कैसे बढ़ा देते हैं?
LikeLiked by 1 person
यह महिला भी कोई पुण्यात्मा है, जिसके दरवाजे पर आ कर लौट गयी बाढ़! 🙂
LikeLike