पानी उतरने लगा है तो वे जीव जो जमीन में घुस गये थे, बाहर आने लगे हैं। मुझे चींटियों की गतिविधियाँ जगह जगह दिखीं गंगा किनारे। वनस्पति भी जो पानी में डूब कर बदरंग हो चुकी थी, हरियराने लगी है।
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घाट पर राहत महसूस कर रहे हैं लोग। मछली पकड़ने वाले तो जीवट के लोग हैं। जब गंगाजी उफान पर थीं; और करीब दो सप्ताह लगातार बढ़ती रहीं; तब भी वे वहां मौजूद थे अपने साजोसामान और मछलियों के लिये चारे/केंचुओं के साथ। अब तो हैं ही। पर तब सवेरे के नियमित स्नान करने वाले कम हो गये थे। लगभग नगण्य। अब वे वापस आ गये हैं। तट गुलजार होने लगा है।

तट की गीली मिट्टी – कीचड़ – बताती है कि गंगाजी कितना उतरी हैं। इसपर चलना अपने पैरों को बुरी तरह सानना है मिट्टी में। फंसने की भी पूरी सम्भावना बनती है। पर स्नान करने वाले उससे भी जूझ ले रहे हैं। श्रद्धा है तो कीचड़ क्या कर सकती है। वह महिला पूजा की डलिया तो ले कर आयी है पर उसमें फूल नहीं है। स्नान के बाद पूजा में तो फूल चाहिये ही। भारतीय देवों को और कुछ चढ़े न चढ़े, अच्छत-चंदन-रोली-फूल तो चाहिये ही। वह केदारनाथ चौबे जी से फूल मांगती है। चौबे जी ऊंचा सुनते हैं। एक दो बार का अनुरोध तो वे अनसुना करते हैं। जब ऊंची आवाज में महिला अनुनय करती है तो बोलते हैं – अच्छा, एक दुई लई ल (एक दो ले लो)।

चौबे जी पांव साध कर नहाने पंहुच जाते हैं। अभी जहां वे नहाने पंहुचे हैं, सामान्यत: गंगा जी वहां से पचीस फुट नीचे और 100-150 फुट दूर हुआ करती हैं। बाढ़ में तो यह जगह भी जलमग्न थी। अब तो पीपल की जड़ भी कुछ दिखने लगी है वर्ना पीपल के तने पर जांघ की ऊंचाई तक पानी था। वैसे जीवट के आदमी हैं केदारनाथ चौबे जी। अभी थोड़ी सी ही बाढ़ हटी नहीं कि आ गये अपने नित्य स्नान पर। आप उनके गंगा प्रेम और दशकों से चली आ रही स्नान की दिनचर्या पर उनके बारे में लिखी पुरानी पोस्ट पढ़ें।

पानी उतरने लगा है तो वे जीव जो जमीन में घुस गये थे, बाहर आने लगे हैं। मुझे चींटियों की गतिविधियाँ जगह जगह दिखीं गंगा किनारे। वनस्पति भी जो पानी में डूब कर बदरंग हो चुकी थी, हरियराने लगी है।
पानी उतरा है तो कूड़ा करकट छोड़ गया है फुटप्रिण्ट के रूप में। यह कूड़ा तो गंगाजी में आदमी का ही दिया है। उसको वे वापस कर लौट रही हैं। पर आदमी सीखेगा थोड़े ही। नदी को गंदा करना जारी रखेगा। “गंगे तव दर्शनात मुक्ति:” भी गायेगा और कूड़ा भी उनमें डालेगा।

कूड़ा सड़ रहा है। किनारे एक दो जीवों के शव भी शायद आ फंसे हैं। अब उनमें सड़न प्रारम्भ हो गयी है। डाई-हार्ड भक्त लोग तो अपने नित्यकर्म – स्नान पूजा पर आ गये हैं; पर दुर्गंध ऐसी है कि नाक पर रुमाल रखने को हाथ बरबस जाने लग रहे हैं। जल्दी ही वहां से लौटना होता है। अब कुछ दिनों बाद ही वहां जाना होगा। तब तक हवा भी सामान्य हो जायेगी और परिदृष्य भी और बदल जायेगा।
बाढ़ के तुरंत बाद स्नान करना हानिकारक हो जाता है, सुरक्षा और स्वास्थ्य के कारणों से। व्यक्तिगत अनुभव से कह रहा हूँ।
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हाँ. तर्कसंगत लगता है. मटमैले पानी और सडन में नहाना अप्रिय भी है
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