पता नहीं भोलेनाथ किसपर प्रसन्न होते हैं; पर मुझे भोलेनाथ की ओर से कांवर यात्रा का अंतिम परीक्षा प्रश्नपत्र बनाने का चांस मिलता तो मैं एक ही प्रश्न उसमें रखता – क्या तुमने यात्रा के दौरान मुझे बाहरी दुनियां में देखा? देखा तो कितना देखा?
किसका अनुशासन ज्यादा है और किसकी उन्मुक्तता ज्यादा है – नर्मदा परिक्रमा की या द्वादश ज्योतिर्लिंग कांवर यात्रा की? यह प्रश्न मेरे मन में कई बार उठता है। नर्मदा परिक्रमा के नाम पर अमृतलाल वेगड़ जी की तीन किताबें मेरे सिरहाने पड़ी रहती हैं – कई दिनों से आसपास रखी हैं वे। और कांवर यात्रा का तो मैं डिजिटल सहभागी हूं। दोनो यात्राओं के कालखण्ड भिन्न हैं। दोनो के ध्येय भिन्न हैं और दोनो का गांवदेहात की संस्कृति छूने का अंदाज अलग है। वेगड़ मंदिर के चबूतरे पर, मड़ई में, ओसारे में और कभी कभी तो किसी पेड़ के नीचे भी डेरा जमाये हैं। उन्हें कभी, पूनम की रात में खीर बनाने के लिये गांव के कई लोगों से दूध इकठ्ठा करना पड़ा है। उनके ट्रेवलॉग में गांव की विपन्नता है पर उसकी दरियादिली और सरलता भी है।

मैं प्रेमसागर से कई बार पूछता हूं कि कभी जंगल में गाय-गोरू चराते चरवाहों से बात हुई? रास्ते में कोई गरीब, विपन्न दिखा? कभी सड़क किनारे ही सही किसी झोंपड़ी के सामने चारपाई पर या जमीन पर घण्टा आध घण्टा व्यतीत किया? मैं कई बार कहता हूं कि ज्योतिर्लिंग के अर्ध्य में ही शिवत्व नहीं है, वे इन मूर्त रूपों में भी हैं। सर्वव्यापक हैं महादेव!
ऐसा नहीं कि प्रेमसागर कोशिश नहीं करते। उत्तरोत्तर उनके देखने और बताने में परिष्कार हुआ है। पर यात्रा के शिवत्व पर गंतव्य का शिवत्व अभी भी भारी पड़ रहा है। अभी उनका औसत चलना 35 किलोमीटर के आसपास हो रहा है। मेरा बस चले तो मैं उन्हें कहूं कि उसे घटा कर पच्चीस किमी पर ले आयें और कस्बों-शहरों के बीच गांव देहात का अनुभव और उसका वर्णन अधिक करें। उन्हें गाकड़ भरता बनाना आता है। कभी कभी अपने सीधा-पिसान और आसपास उपलब्ध आलू और बैंगन का प्रयोग कर वह भी बनायें। वन कर्मी या आसपास के लोग जो उनके साथ पचीस पचास किलोमीटर चल सकते हों, वे एक दो दिन साथ चलें, रहें। महादेव उससे प्रसन्न होंगे! यात्रा की अवधि एक तिहाई बढ़ जायेगी, पर उससे यात्रा की सार्थकता द्विगुणित हो जायेगी। कंकर में शंकर हैं या यूं कहूं कि शंकर कंकर में ही है! 🙂

वेगड़ एक जगह लिखते हैं कि उनके गुरू नंदलाल बोस ने कहा था – सफल बनने के पीछे न भागना, सार्थक बनना। द्वादश ज्योतिर्लिंग यात्रा की सार्थकता यात्रा के रस में है, यात्रा में शिवतत्व खोजने और अनुभव करने में है। पता नहीं भोलेनाथ किसपर प्रसन्न होते हैं; पर मुझे भोलेनाथ की ओर से कांवर यात्रा का अंतिम परीक्षा प्रश्नपत्र बनाने का चांस मिलता तो मैं एक ही प्रश्न उसमें रखता – क्या तुमने यात्रा के दौरान मुझे बाहरी दुनियां में देखा? देखा तो कितना देखा?
8 अक्तूबर रात्रि –
आज मैंने आधा पौना घण्टा लगाया प्रेमसागर को यह बताने के लिये कि वे टेलीग्राम या ह्वाट्सएप्प पर किस प्रकार से अपना लोकेशन शेयर कर सकते हैं। उनकी यात्रा को ट्रैक करना उससे आसान हो जायेगा। उन्होने सेट कर लिया टेलीग्राम को शेयरिंग के लिये। मुझे दोपहर दो बजे तक उनका मार्ग और स्थान पता चलता रहा। तब आठ घण्टे पूरे हो गये और उसके बाद आगे आठ घण्टा सेट करने की जहमत उन्होने नहीं उठाई। मैंने उनसे कहा भी, पर वे नहीं कर पाये।
कभी वे काफी टेक-सैवी लगते हैं और कभी बिल्कुल अनाड़ी। आज अनाडीत्व भारी पड़ रहा था। मसलन मैंने सवेरे पाया कि उनके स्मार्टफोन में गूगल मैप ही नहीं है। आधुनिक काल में बिना गूगल मैप के भारतवर्ष की यात्रा का बीड़ा उठा लेना मुझे वैसा ही लगा जैसे जुगनू या एक दिया ले कर अंधेरे को चीरते निकल पड़ना। वह तो महादेव जी ने उन्हें वन विभाग के लोगों और अन्य सुधी जनों की सहायता उपलब्ध करा दी है अन्यथा वे तो बस निकल पड़े थे! बस! सरलता के एक सुदूर छोर पर हैं प्रेमसागर! उतना सरल होना भी खतरनाक (?) है। …. पर उसके उलट एक सोच यह भी है कि लक्ष्य की विशालता का कोई पूरा आकलन कर चलने की सोचे तो शायद शुरू ही न कर पाये। आकलन के जाल में ही उलझ जाये। बड़ी बात यह है कि प्रेमसागर निकल लिये हैं और अब तक करीब एक हजार किमी चल चुके हैं! पर बिना आकलन और आकलन के मकड़जाल इन दोनो छोरों के बीच कोई मध्यबिंदु तो होगा?!
चलते समय नरसिंहपुर में उन्होने वीरेंद्र जी से बात कराई। वीरेंद्र मेहरा (जैसा उनके बोर्ड से दिखता है) व्यवसायी हैं। उनका होटल है जहां प्रेमसागर रुके थे। वीरेंद्र जी परक्कमा वालों की सेवा करते हैं। नर्मदा परिक्रमा वाले उनके यहां ठहरते हैं। और उसके अनुसार उनका होटल सात्विक भोजन वाला है – शाकाहारी, बिना लहसुन प्याज वाला। वीरेंद्र जी ने आगे भी प्रेमसागर को सहायता देने की बात कही। उन्होने रास्ते में पड़ने वाले उन लोगों के फोन नम्बर भी प्रेमसागर को दिये हैं जो सहायता कर सकते हैं।
वीरेंद्र जी बोले – “अब, महराज जी के साथ तो साक्षात भोलेनाथ हैं ही। सो उनको क्या दिक्कत है! यह तो हमारे लिये बड़ी सौभाग्य की बात है कि इतनी बड़ी यात्रा करने वाले की एक दिन सेवा का हमें मौका मिला। हमारे यहां जो संत लोग परिक्रमा पर आते हैं, उनको तो सेवा करने का मौका हमें यहां नरसिंहपुर में होटल होने के कारण तो मिलता ही है। … कराता तो सब ईश्वर ही है। हम तो निमित्त मात्र बना कर यहां बिठा दिये गये हैं।”

वीरेंद्र मेहरा जी कर तो बिजनेस रहे हैं, पर उनका सेवाभाव और उनकी विनम्रता उनको बरक्कत देता ही होगा! उनसे बात करा कर प्रेमसागर निकल ही लिये होंगे आगे की यात्रा पर।

प्रेमसागर ने बताया कि रास्ते में – करीब दोपहर में – एक नब्बे साल के वृद्ध मिले। लंगड़ा रहे थे। बोले कि उनके पांव में कांटा चुभ गया है। निकल नहीं रहा। प्रेमसागर ने अपनी कांवर एक ऊंचे स्थान पर टांगी। पानी ला कर वृद्ध का पैर धोया जिससे उनके तलवे में गड़ा कांटा नजर आ जाये। पर कांटा बहुत ध्यान से देखने पर भी कहीं दिखा नहीं। “तब भईया हम उन्हें पचास रुपिया दिये और कहा कि किसी डाक्टर के यहां जा कर कांटा निकलवा लें। मैं तो उन्हें अपनी सैण्डल भी दे रहा था, पर उनने मना कर दिया यह कहते हुये कि कभी चप्पल पहने नहीं हैं।”
“यह तो आपने बहुत अच्छा किया। उन वृद्ध का चित्र लिये क्या?” – मैंने पूछा। उन्होने कहा – “नहीं, मुझे चित्र लेना अटपटा लगा।”

उसके बाद ही करोली गांव पड़ा जहां तीन लोग रास्ते में मिले – गोस्वामी जी, सोनी जी और यादव जी। उन्हें शायद नरसिंहपुर से किसी ने, शायद वीरेंद्र जी ने खबर की होगी। ये लोग परकम्मा वालों को भोजन कराते हैं। वे लोग अपने साथ प्रेमसागर के लिये भोजन ले कर आये थे। एक आम के वृक्ष के नीचे प्रेमसागरजी को उन्होने भोजन कराया। भोजन करा कर वे लोग चले गये तो वहीं पर प्रेमसागर ने एक नींद निकाली पेड़ की छाया में। यूं इतना चलने, वह भी तेज गर्मी में और दिनों दिन चलते रहने के कारण नींद की कमी तो प्रेमसागर को होगी ही। बाद में मैंने उन्हे कहा कि उन्हें अपना चलने के अनुशासन की अति नहीं करनी चाहिये।

वहीं उनसे मिलने और उनका सामान आगे ले कर चलने के लिये एक वन कर्मी आ गये। वे अपनी मोटर साइकिल पर सामान ले कर आगे पीछे चलते रहे। एक गांव (नाम बताया था करमदा) में उन्हें रात्रि विश्राम करना था पर जिन सज्जन के यहां ठहरना था, उनके घर में कोई पारिवारिक विवाद हो गया था। वहां रुकना नहीं हो सका। वहां पंहुचते शाम हो गयी थी और रुकने का ठिकाना तय नहीं था। अंतत: प्रेमसागर को दस बारह किलोमीटर और चलना पड़ा और कौड़िया गांव में राजकुमार रघुवंशी जी के यहां रात्रि विश्राम हुआ।

9 अक्तूबर 21, सवेरे –
सवेरे प्रेमसागर को एक बार फिर समझाया कि अपनी लोकेशन शेयर कैसे करनी है। आज वे कहते हैं कि उन्हें ठीक से समझ आ गया है। रात में कुछ आराम मिला है और दिन में आज केवल गाडरवारा तक जाना है जो यहां से पांच सात किलोमीटर की दूरी पर है। रेंजर साहब ने सम्पर्क भी किया है। सवेरे सात-सवा सात बजे तक राजकुमार यदुवंशी जी के यहां से; कौड़िया गांव से; प्रेमसागर निकल लिये। नौ बजे सक्कर नदी पार कर लिये थे। कुछ लोग उनसे मिलने आये थे। चाय की भी दुकान थी।

आगे गाडरवारा है जहां उन्हें रुकना है। अच्छा है कि आज चलना ज्यादा नहीं है। थकान और नींद की कमी की पूर्ति हो सकेगी।
सक्कर नदी, गाडरवारा और उसके बाद की चर्चा अगली पोस्ट में।

*** द्वादश ज्योतिर्लिंग कांवर पदयात्रा पोस्टों की सूची *** प्रेमसागर की पदयात्रा के प्रथम चरण में प्रयाग से अमरकण्टक; द्वितीय चरण में अमरकण्टक से उज्जैन और तृतीय चरण में उज्जैन से सोमनाथ/नागेश्वर की यात्रा है। नागेश्वर तीर्थ की यात्रा के बाद यात्रा विवरण को विराम मिल गया था। पर वह पूर्ण विराम नहीं हुआ। हिमालय/उत्तराखण्ड में गंगोत्री में पुन: जुड़ना हुआ। और, अंत में प्रेमसागर की सुल्तानगंज से बैजनाथ धाम की कांवर यात्रा है। पोस्टों की क्रम बद्ध सूची इस पेज पर दी गयी है। |
दिनेश कुमार शुक्ल, फेसबुक पेज –
न मे द्वेष-रागौ न मे लोभ-मोहौ
मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः |
न धर्मो नचार्थो न कामो न मोक्षः
चिदानंदरूप: शिवोहम शिवोहम |
(श्रीमत् शंकर भगवत्पाद)
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उत्तर –
जय हो!
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जब कहीं पहुँचने की शीघ्रता न हो तो यात्रा को ही ध्येय बना लें। कम दूरी चलें और यात्रा का पूर्ण अनुभव लें। यही चित्र देखने में यात्रा का रस मिला जा रहा है।
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प्रेम सागर की सोच में थोड़ा परिवर्तन हुआ है. यात्रा का अनुभव भी अब महत्वपूर्ण समझने लगे हैं. या बताने लगे हैं…
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मार्ग प्रेमसागरजी को सबकुछ सिखा देगा, नर्मदा यात्रा और द्वादश ज्योतिर्लिंग की यात्रा की तुलना करना ठीक नहीं। दो साल की यात्रा में हो सकता है पहले तीन या पांच महीने नर्मदा मैया साथ रहे, फिर?
कुछ रफ्तार बनी रहेगी तो तेज रफ्तार का भी अपना स्पैक्ट्रम बनेगा, एक और वेगड़ जी बनाने से अच्छा है कि नए स्पैक्ट्रम को देखा जाए… नहीं ??!!
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नर्मदा का साथ तो अब भी दिख जाता है केवल यदा कदा. नदी भी महत्वपूर्ण नहीं है. महत्वपूर्ण है गांव देश के लोग और ऊंचा नीचा होता भूगोल. कदम और दूरी गिनने से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है वह.
यह मैं भी जनता हूँ कि दोयम दर्जे का वेगड़ की बजाय पहले दर्जे का जीडी बेहतर है. 😊
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