कुछ और चलें – गाडरवारा से उदयपुरा

11 अक्तूबर, रात्रि –

दूरियां जल्दी तय कर लेने का लालच (?) है प्रेमसागर को। उन्होने सोचा था कि पच्चीस किलोमीटर के हिसाब से मुकाम रखेंगे। उसी हिसाब से उन्हें गाडरवारा से चल कर सांईखेड़ा तक चलना था। पर दस-इग्यारह बजे तक उन्हें लगा कि काफी दूरी तय कर ली है। इसके अलावा मौसम भी अच्छा है। सांईखेड़ा तो वे तीन बजे तक पंहुच ही जायेंगे। कुछ और चलें तो नर्मदा पार कर उदयपुरा भी पंहुच सकते हैं। वहां भी रुकने का विकल्प है। वहां के लोग भी फोन कर आमंत्रित कर रहे हैं।

और प्रेमसागर ने आगे बढ़ने का निर्णय किया। दो बजे मैंने नेट पर नक्शे में देखा – बड़ी तेजी से प्रेम सागर आगे बढ़ रहे थे। पर सांईखेड़ा में उन्हें देर तक रुके पाया। रुकने वाली जगह पर कोई गूगल मैप में एक मैडीकल स्टोर दिखाई दे रहा था। हो सकता है वहां कोई दवाई लिए हों। वहां से चलने पर उनकी चाल धीमी लगने लगी थी।

नर्मदा किनारे तो बहुत देर तक कोई गतिविधि नहीं नजर आयी। करीब घण्टा भर हुआ। वे नदी के करीब थे, पर नक्शे के स्टेटस के हिसाब से नदी पार नहीं की थी।

वहीं से उनका फोन शाम छ बजे मुझे आया – “भईया जरा देख कर बतायें यहां से अभी कितना दूर है उदयपुरा।”

सवा आठ किलोमीटर है। पर बहुत देर से आपने नदी पार नहीं की। क्या दिक्कत है?”

“पैर में दर्द हो रहा है। मालिश कर रहा हूं। उदयपुरा से फोन कर रहे हैं। आठ किलोमीटर है तो दो घण्टा लगेगा। पन्द्रह मिनट में एक किलोमीटर चलता हूं मैं।” – प्रेमसागर की आवाज में संतोष था। वे आठ बजे तक तो पंहुच ही जायेंगे!

मुझे अपनी दशा सम्पाती की तरह लगी। रामायण का वह गीध और किसी प्रकार से वानरों की सहायता नहीं कर सकता था। उसके पंख जल चुके थे और वह बूढ़ा भी था। खुद जा कर लंका से सीता की सुधि नहीं ला सकता था। वह केवल यह देख सकता था कि लंका कितनी दूर है और उसमें सीता कहां पर हैं। मैं भी केवल यह बता सकता था कि प्रेमसागर का गंतव्य कितना दूर है। यह बता सकता था कि रास्ते में एक और नदी – मच्छवई नदी – और पड़ेगी। पतली सी नदी दिखती है नक्शे में। हो सकता है सूखी हुई हो। और, कोई शॉर्टकट नहीं है जिसे पकड़ा जा सके। नक्शे के हिसाब से सीधा रास्ता है उदयपुरा का। सड़क लगभग कौव्वा-उड़ान के रास्ते के हिसाब से है।

हनूमान (प्रेमसागर) नर्मदा तट पर थे और सम्पाती (मैं) अपने घर, जिला भदोही में। हनूमान के पास अपना भी गैजेट था, अपना जंतर, अपना मोबाइल। उसमें देख सकते थे कि कितनी दूर है उदयपुरा। पर उन्हे मुझ सम्पाती से जानना था! :lol:

अंतत: वे सात साढ़े सात बजे तक छू ही लिये उदयपुरा। नक्शे में कुल चालीस किलोमीटर है यह गाडरवारा से। नक्शे में दिखाई दूरी में आसपास का और चलना जोड़ लें 42-43 किमी चलना हुआ होगा। पच्चीस किमी चलना तय किया पर चले उससे पंद्रह सत्रह किलोमीटर ज्यादा।

दूरी तय करने का लोभ प्रेमसागर में है और उसका कोई तोड़ नहीं है। उसके लिये उनके पास तर्क हैं। … पैर में दर्द इसलिये हुआ कि रास्ते में कोई चाय का दुकान नहीं मिला। चाय न मिले तो कोई बात नहीं, आराम कहीं भी किया जा सकता था पर मेन बात कांवर को ऊंचे जगह पर रखने की है; वह चाय की दुकान पर ही हो पाता है। इसी तरह के और तर्क थे प्रेम सागर के पास। “पैर में दर्द है भईया पर एक ठो टैबलेट खा लेंगे, रात में सोयेंगे तो ठीक हो जायेगा।”

पता नहीं, महादेव कह रहे हैं क्या कि टैबलेट खा बेट्टा, और चला चल?! महादेव हैं मूडी देवाधिदेव। ऐसी प्रेरणा दे सकते हैं। … मैंने प्रेमसागर से तर्क करना बंद कर दिया। कांवर प्रेम सागर की, संकल्प प्रेम सागर का, यात्रा प्रेमसागर की; मैं जबरी उनके पैर के दर्द को ले कर दुबला हो रहा हूं। … तुमसे अपने गठियाग्रस्त पैर के दर्द का इलाज तो होता नहीं और तुम नसीहत देते हो प्रेमसागर को, जीडी! बंद करो अपनी एम्पैथी! मैं चुप हो गया।

वैसे भी, कल नीरज रोहिल्ला ने टिप्पणी की थी –

रीताजी की बात में दम है (पूर्ण सहमति नहीं है अभी), इंजीनियरिंग में कहते हैं 1st order effect, 2nd order and 3rd order etc. उनकी यात्रा का 1st order ध्येय किसी भी प्रकार बाधित न हो, एक सूत भी नहीं, तभी बाकी करेक्शन लगाए जा सकते हैं। :-)

नीरज की फेसबुक पेज पर टिप्पणी

प्रेमसागर का फर्स्ट ऑर्डर ध्येय यात्रा को (जल्दी) सम्पन्न करना है। और वे अपनी क्षमताओं का पूरा दोहन उसके लिये करना चाहते हैं। तब सेकेण्ड ऑर्डर, थर्ड ऑर्डर ध्येय का प्रश्न ही नहीं उठता। पीरियड।

मैं सोचता था कि अपनी कुल्हाड़ी की धार तेज करने के लिये प्रेमसागर को ज्यादा ध्यान देना चाहिये पर प्रेमसागर जानते हैं अपनी कुल्हाड़ी की गुणवत्ता। सौ से ज्यादा बार सुल्तानगंज से देवघर कांवर ले कर चल चुके हैं। उन्हें संज्ञान है कि उनकी कुल्हाडी टॉप क्लास है।


सवेरे गाडरवारा से निकल कर प्रेमसागर ने एक दुकान पर चाय पी। चाय सर्व करने वाले का चित्र उन्होने भेजा है। इकहरे बदन का आदमी। कांधे पर एक नेपकिन लिये है और हाथ में चाय का पेपर कप। कुल्हड़ का चलन मध्यप्रदेश में नहीं है। कुम्हार अपनी मिट्टी बारबार उपयोग किये जा सकने वाले उपकरणों को बनाने में करता है एक बार चाय पी कर फैंकने वाले कुल्हड़ में नहीं। वहां गांगेय पीली मिट्टी बहुतायत में नहीं होती। वैसे कुल्हड़ न हो तो पेपर कप अगला उपयुक्त बायो डीग्रेडेबल विकल्प है। यहां उत्तर प्रदेश में तो लोग पैसा बचाने के लिये कुल्हड़ और पत्तल की बजाय प्लास्टिक की ग्लास और थर्मोकोल की प्लेट चलाते हैं जो अंतत: पोखर-ताल-नदी को चौपट करती है। मुझे वह चाय वाला आदमी और वह पेपर कप देख कर अच्छा लगा।

चाय की वह छोटी दुकान नहीं थी, सड़क किनारे का बड़ा रेस्तरां था। शायद गाडरवारा कस्बे के छोर पर ही होगा। साफ सुथरी जगह। बड़ी जगह पर चाय के पैसे भी ज्यादा लगे होंगे। सवेरे सवेरे उसमें प्रेमसागर के अलावा कोई और ग्राहक नजर नहीं आता था उस चित्र में जो प्रेम सागर ने भेजा था।

रास्ता अच्छा था – स्टेट हाईवे है वह। बबूल के पेड़ बहुत थे सड़क किनारे, जैसा प्रेमसागर ने बताया। मौसम भी साथ दे रहा था। धूप असहनीय नहीं थी। प्रेमसागर प्रसन्न थे और सांईखेड़ा में रुकने की बजाय आगे बढ़ जाने की सोचने और उस हिसाब से मुझे तर्क देने लगे थे।

रास्ता अच्छा था – स्टेट हाईवे है वह।

आसपास खेती थी, गन्ना ज्यादा दिखा प्रेमसागर को। नर्मदा घाटी का इलाका है। सतपुड़ा और विंध्य की ऊंचाइयों से झरता पानी इस घाटी में आता होगा, सो पानी पर्याप्त मिल जाता होगा गन्ने की खेती के लिये – यह मेरी अटकल है। अन्यथा पश्चिमी मध्यप्रदेश – मालवा इलाके में जहां मैंने दो दशक गुजारे हैं, गन्ने की खेती की किसान सोच भी नहीं सकता था। “लोग बता रहे थे कि इस नर्मदेय क्षेत्र में जमीन का ये हाल है कि सब तरह की फसल हो जाती है यहां – धान, गेंहू, गन्ना, चना, मक्का …।”

साईंखेडा से 12 किमी पहले, एक हनुमान जी के मंदिर में एक विरक्त साधू के समीप प्रेमसागर कुछ समय बैठे।

रास्ते में, साईंखेडा से 12 किमी पहले, एक हनुमान जी के मंदिर में एक विरक्त साधू के समीप प्रेमसागर कुछ समय बैठे। वे साधू (या सज्जन) सामान्य साधू वाले वेष में नहीं थे। ध्यानमग्न थे। उनके हाथ “आजानुभुज” थे। कृषकाय शरीर। चेहरे पर शांति थी और शरीर की नसें फूली देखी जा सकती थीं। एक टाट पर बैठे थे। व्यक्तित्व आकर्षक था। ऐसे कई लोग, जो तपस्या करते हैं, मिल जाते हैं। उन्हें ढूंढने बहुत दूर नहीं जाना पड़ता। बस आपकी प्रवृत्ति, आपकी ट्यूनिंग वैसी होनी चाहिये। उनसे बात भी हुई प्रेमसागर की। यात्रा की बात सुनी तो महात्मा जी अपनी मोहमाया की बात करने लगे। विरक्त हो गये हैं पर परिवार अभी भी साथ जुड़ा है। मोहमाया छूटती नहीं। प्रेमसागर से उन्हें तुलना करने की जरूरत आन पड़ी। महात्मा जी शायद तुलना-वृत्ति से उबर नहीं सके हैं।

एक चाय की दुकान वाला बहुत स्नेही जीव था। सड़क से प्रेमसागर को बुला कर ले गया और चाय नाश्ता कराया। फलहारी चिवड़ा भी खिलाया। नाम बताया राकेश। एक फोटो भी लिया प्रेमसागर ने चाय वाले का। चित्र में समोसे के साथ तली हुई बड़ी बड़ी हरी मिर्चें रखी हैं। प्रेमसागर का कहना है कि हरी मिर्च खानी चाहिये। उससे पेट खराब नहीं होता और एक भी बीज अगर पेट में है तो बुखार नहीं आता। मेरा हरी मिर्च का अनुभव शून्य है। कभी गलती से एक टुकड़ा खाने में चला जाये तो ढेर सारा पानी पीना पड़ता है और तुरंत उसके एण्टी-डोट की तरह गुड़ की भेली की याद हो आती है। दुनियां दो खेमे में बंटी है – मिर्च भक्त और मिर्च द्रोही! प्रेमसागर और ज्ञानदत्त दो अलग अलग खेमे के हैं! :lol:

चाय की दुकान वाला राकेश

रात साढ़े सात बजे प्रेमसागर उदयपुरा के महेंद्र सिंह राजपूत जी के घर पर पंहुचे। वहां उनका आदर सत्कार हुआ। ठहरने के लिये पास के एक होटल के कमरे की व्यवस्था थी। महेंद्र सिंह जी दो भाई हैं और ज्वाइण्ट फैमिली रहती है। उन दोनो की पुत्रियां और बेटा हैं और चित्र में उनके बुजुर्ग पिताजी भी हैं। थके थे प्रेमसागर, सो टैबलेट खा कर सोये। मुझे कोई चित्र भेजने-बातचीत करने का अनुष्ठान भी अगले दिन सवेरे पूरा हुआ।

कल सवेरे भोर में ही उन्हें बरेली के लिये निकलना है। मध्यप्रदेश का यह बरेली उदयपुरा से 35-37 किमी दूर है। चलने में, आटे के साथ नमक बराबर उससे ज्यादा ही हो जाता है, जो नक्शे में दिखाया जाता है। दूसरे दूरी रास्ते की दुरुहता का मापदण्ड तो होती नहीं। पर दूरी से एक आंकड़ा तो मिलता ही है। आकलन के अनुसार उदयपुरा तक प्रेमसागर 1083 किमी चल चुके हैं। इससे ज्यादा ही चले होंगे, कम नहीं।

प्रेमसागर पाण्डेय द्वारा द्वादश ज्योतिर्लिंग कांवर यात्रा में तय की गयी दूरी
(गूगल मैप से निकली दूरी में अनुमानत: 7% जोडा गया है, जो उन्होने यात्रा मार्ग से इतर चला होगा) –
प्रयाग-वाराणसी-औराई-रीवा-शहडोल-अमरकण्टक-जबलपुर-गाडरवारा-उदयपुरा-बरेली-भोजपुर-भोपाल-आष्टा-देवास-उज्जैन-इंदौर-चोरल-ॐकारेश्वर-बड़वाह-माहेश्वर-अलीराजपुर-छोटा उदयपुर-वडोदरा-बोरसद-धंधुका-वागड़-राणपुर-जसदाण-गोण्डल-जूनागढ़-सोमनाथ-लोयेज-माधवपुर-पोरबंदर-नागेश्वर
2654 किलोमीटर
और यहीं यह ब्लॉग-काउण्टर विराम लेता है।
प्रेमसागर की कांवरयात्रा का यह भाग – प्रारम्भ से नागेश्वर तक इस ब्लॉग पर है। आगे की यात्रा वे अपने तरीके से कर रहे होंगे।
प्रेमसागर यात्रा किलोमीटर काउण्टर

*** द्वादश ज्योतिर्लिंग कांवर पदयात्रा पोस्टों की सूची ***
पोस्टों की क्रम बद्ध सूची इस पेज पर दी गयी है।
द्वादश ज्योतिर्लिंग कांवर पदयात्रा पोस्टों की सूची

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

2 thoughts on “कुछ और चलें – गाडरवारा से उदयपुरा

  1. प्रेमसागर जी प्रयोगवादी हैं। देश, काल, दिशा, परिस्थिति देखकर निर्णय बदल देते हैं, अपने आराध्य की भाँति। सम्पाती और हनुमान की तुलना बड़ी रोचक है। पथदृष्टा का भी बड़ा महत्व है जीवन में।

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    1. प्रेमसागर जी प्रयोगवादी हैं। >>> यह तो है! और व्यवहार कुशल भी हैं। इतने सारे लोगों से मिल रहे हैं और सबसे सम्पर्क बनाये रहते हैं! :-)

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