छब्बीस जनवरी की जलेबी खरीद

छब्बीस जनवरी को जलेबी खरीदना एक मशक्कत है। एक साल तो मुझे पांच सात दुकानों के चक्कर लगाने पड़े थे और अंतिम विकल्प पर भी आधा घण्टा इंतजार करना पड़ा था। छब्बीस जनवरी और पंद्रह अगस्त को जलेबी का मार्केट ग्राहक की बजाय दुकानदार उन्मुख हो जाता है। सेलर्स मार्केट।

महराजगंज की नुक्कड़ वाली दुकान पर – वह दुकानवाला जो मुझे ताजा जलेबियां सहर्ष छान कर देता था, आज कम से कम पचीस ग्राहकों से घिरा था। जलेबी छान रहा था पर बनी जलेबियां खत्म होती जा रही थीं। जलेबियां छनते ही ग्राहक लपक ले रहे थे। ओ-माइक्रॉन विषाणुओं को धता बताते मैंने उससे पूछा – कितना समय लगेगा मिलने में?

महराजगंज की नुक्कड़ वाली दुकान पर – वह दुकानवाला जो मुझे ताजा जलेबियां सहर्ष छान कर देता था, आज कम से कम पचीस ग्राहकों से घिरा था।

और ग्राहकों को तो वह उत्तर ही नहीं दे रहा था। मुझे लिहाज कर बताया कि घण्टा भर लगेगा, कम से कम।

मैं उसकी दुकान की भीड़ का चित्र खींच रहा था तो एक ग्राहक ने बढ़िया टिप्पणी की – “लई ल, लई ल! जलेबी त न मिले, ओकर फोटुयै सही (ले लो, ले लो। जलेबी तो नहीं मिलेगी। उसकी फोटो से ही संतोष करो)।”

जलेबी ग्राहकों की भीड़।

सरकार फ्री में टीका भले न लगाये, लोगों को एक एक पाव जलेबी जरूर दे दे। एक पाव जलेबी की लागत 12-15 रुपया आयेगी और वोट खूब बरसेंगे! :lol:

घर से आदेश मिला था कि जलेबी और दही ले कर आना है। दही तो खरीद लिया। जलेबी के लिये गांव के नुक्कड़ वाले राजेश की दुकान का रुख किया। राजेश की दुकान पर अपेक्षाकृत भीड़ कम थी। वहां मुझे वरीयता भी मिली। ताजा गर्म तुरंत छनती जलेबियां मिल गयीं। जीवन सफल हुआ। मार्केट से एक तिरंगा झण्डा भी खरीदा गया।

राजेश की दुकान में मिली जलेबी।

घर पर हमारे ड्राइवर साहब ने एक बांस की लम्बी डण्डी छील कर तैयार की। उसपर झण्डा लगा कर घर के ऊपर कोने पर सुतली से सीढ़ी के रेलिंग से झण्डा बांध कर फहराया। सब को जलेबी बांटी गयी। देशभक्ति की ड्रिल सम्पन्न हुई। साहबी का जमाना होता तो कहीं झण्डा फहराने को मिलता। गार्ड ऑफ ऑनर टाइप कार्यक्रम होता। कुछ गुब्बारे भी उड़ाये जाते। अब तो खुद ही झण्डा और जलेबी खरीदना था और खुद ही फोटो खींचना।

घर पर हमारे ड्राइवर साहब ने एक बांस की लम्बी डण्डी छील कर तैयार की। उसपर झण्डा लगा कर घर के ऊपर कोने पर सुतली से सीढ़ी के रेलिंग से झण्डा बांध कर फहराया।

खुश होओ जीडी कि तुम्हें गरम जलेबियां मिल गयीं बिना इंतजार किये। जीवन का यह दौर है कि छोटी छोटी खुशियां – गर्म जलेबी, हवा में फहरता झंडा, खिली धूप और बयार – रंग भर दे रही हैं। वह इसलिए कि दिमाग पर बोझ नहीं है! यह दौर बड़ी मेहनत के बाद मिलता है। 😊


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

10 thoughts on “छब्बीस जनवरी की जलेबी खरीद

  1. मतलब अभी भी २६ जनवरी वाले जलेबी का जलवा बरकरार है। दही जलेबी बोलकर आपने Allahabad का याद दिला दिया,मै कभी कभी नास्ते में लाता था। लेकिन उसके बाद बड़ी नीद आती थी 😀

    Liked by 1 person

    1. छात्र जीवन में तो तान कर नाश्ता और उसके बाद क्लास बंक करने का बहाना – इसकी यादें अभी भी मन में उभर आती हैं। 😊

      Like

  2. Sudhir Pandey ट्विटर पर
    पीने वाले को पीने का बहाना चाहिए।जैसा है आप का जलेबी का नशा।महादेव रक्षा करे।

    Like

  3. आलोक जोशी ट्विटर पर
    आपकी बात से सहमत हूँ कि अगर खुशी मिलती है तो उसके विकल्पों के बड़ा होना जरूरी नहीं.. छोटी छोटी खुशियों में अपार आनंद है।
    जैसे कि नौकरी से आने के बाद घर पर रजाई में लेटकर मोबाइल चलाना भी अपने आप मे छोटी मोटी दिवाली जैसा हो जाता है..😊

    Like

  4. शशि पाण्डेय ट्विटर पर
    स्कूलों में मिलने वाली ‘मिठाइयाँ’ देशभक्ति का जोश पैदा करने में जितनी समर्थ होती हैं उतनी बलिदानियों की वीरगाथायें भी नहीं।

    Like

    1. वह भी बढ़िया ही है। लड्डू की बूँदिया महीन हो और उसका घी अच्छा हो तो क्या कहने!

      Like

    1. स्कूल बंद हैं। सो जनता की च्वाइस काम करती है। बूंदी के लड्डू की बजाय गर्म जलेबी बेहतर च्वाइस है! :)

      Like

  5. तरुण शर्मा, ट्विटर पर –
    हमें तो शुरू से स्कूल में ऐसे अवसरों पर लड्डू ही मिलते रह हैं। जलेबी का भी कहीं कहीं प्रचलन है पहली बार जाना।

    Like

Leave a reply to प्रवीण पाण्डेय Cancel reply

Discover more from मानसिक हलचल

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading

Design a site like this with WordPress.com
Get started