मैंने पोस्ट लिखी थी “उनकी गांव में मकान बनाने की सोच बन रही है। बसेंगे भी?“। यह पोस्ट 28 नवम्बर 2020 को लिखी थी। उस समय मेरे साले और उनकी पत्नियाँ इस विचार के थे कि जल्दी ही वे मेरे बगल में बसने जा रहे हैं। उस बात को अब चौदह महीने हो चुके हैं। उसके बाद कोविड संक्रमण की एक और और कहीं ज्यादा घातक लहर आ कर जा चुकी है। आगे भी संक्रमण का खतरा – किसी नये संक्रमण का खतरा – रोज रोज खबरों में रहता ही है। कोरोना संक्रमण का शहरी जीवन पर प्रभाव और वहां घरों/फ्लैटों में सिमटा जीवन उन्हें गांव का विकल्प सोचने को प्रेरित कर रहा था। पर लोग गांव आ कर बसे नहीं।

और लगता नहीं कि आ कर बसेंगे भी। कोरोना की दूसरी लहर पर गांव देहात के रिस्पॉन्स से यह बड़ा साफ भी हो गया है कि संक्रमण और स्वास्थ्य के बारे में जो गांव के खुले वातावरण का लाभ दिखता था, वह नहीं है। कोरोना धीरे धीरे गांवदेहात की ओर पसरा पर उसने गरीब अमीर में भेदभाव नहीं किया। दूसरी लहर में उसकी मारकता का कुछ इलाज शहर में था, पर गांव में तो सब झोलाछाप डाक्टरों और काढ़ा-गिलोय के भरोसे ही था।
कोरोना काल में और उसके अलावा गांव में सड़क बिजली पानी और इण्टरनेट का अभाव जो था, वह कम हुआ होगा पर वाराणसी और प्रयागराज के शहरी विकास की तुलना में वह असमानता (Inequality) बढ़ी ही होगी।

आने वाला समय; इण्टरनेट की उपलब्धता और सड़कों की बेहतर दशा के बावजूद; गांव के पक्ष में नहीं है। यह हो सकता है कि मेट्रो शहरों की बजाय लोग दूसरे और तीसरे दर्जे के शहरों को तरजीह दें। पर वे गांव को शहरी जीवन की बजाय वरीयता देने से रहे। मेरे जैसे कुछ ऑड-मैन-आउट रह सकते हैं – वे जो जानबूझ कर अपनी आवाश्यकतायें कम करने में यकीन रखते हों। अन्यथा लोग वैसा करने/सोचने वाले और गांव में आ कर बसने वाले नहीं हैं।

फरीद जकारिया की पुस्तक – 10 Lessons for a Post Pandemic World में एक अध्याय है – Inequality Will Get Worse. प्रथम दृष्ट्या मुझे यह अजीब लगा था। पर मैं अपने आसपास निहारता हूं और पिछले पांच सात साल या पिछले दो साल के परिवर्तन देखता हूं तो यह लगता भी है। भारत प्रगति कर रहा है। इंफ्रा में जो बदलाव हो रहे हैं वे अभूतपूर्व हैं। पर वे सब गांव की सरहद पर छूते निकल जा रहे हैं। कोरोना के कारण हेल्थकेयर में व्यापक परिवर्तन सुनता हूं। पर व्यापक टीकाकरण के अलावा और कोई परिवर्तन गांवदेहात को नहीं छूते दीखता। कोई भी बीमारी, महामारी या विश्वमारी को डील करने का दारोमदार झोलाछाप डाक्टरों पर ही है। गांव के पोखर-ताल अब ज्यादा थर्मोकोल और प्लास्टिक कचरे से पट रहे हैं। शहर के बच्चे ऑनलाइन या ऑफलाइन पढ़ाई कर रहे हैं पर गांव में वे अपने अपने बोरे ले कर निकलते हैं और शाम-सुबह के अलाव के लिये पत्तियां, लकड़ियाँ ही बीनते हैं। लोगों को प्रधानमंत्री आवास योजना में पक्के घर मिल गये हैं। समृद्धि आयी है। लोग पैदल और साइकिल से चलने की बजाय मोटरसाइकिल पर चलने लगे हैं। पर ज्यादा वाहन सड़कों को पहले से ज्यादा उखाड़ डाल रहे हैं। शहर में कुछ अनुशासित जीवन, कुछ प्लानिग, कुछ नागरिक सरकार है। गांव में जो है सो भेड़ियाधसान है।

मैं अपने घर को निखलिस्तान बनाने में सफल रहा हूं। बस। उसके बाहर निकलने पर मुझे कच्ची सड़क जिसमें गड्ढे हैं और जिसपर बरसात में पानी भर जाता है; जिसपर दांये बांये स्विंग करते ट्रेक्टर वैध-अवैध बालू और मिट्टी का परिवहन करते दिखते हैं और वातावरण में धूल के कण व्याप्त रहते हैं – बावजूद इसके कि देश के इस हिस्से में पराली जलाने की प्रथा नहीं है। और ये धूल की व्यापकता बढ़ी है। कोरोना के लॉकडाउन के समय जब सब कुछ ठप था, तब हवा और पानी साफ था। उसके पहले और उसके बाद तो नरक है।
कोरोना के बाद यह यकीन होता है कि परिवर्तन होगा। स्वास्थ्य सुविधाओं में कुछ बदलाव होगा। डिजिटल अर्थव्यवस्था व्यापक होगी। पर वह गांव और शहर को समानता पर नहीं लायेगी। डिजिटल युग अपने स्वभाव में मोनोपोली का पक्षधर है। वह महराजगंज के गुलाब विश्वकर्मा की टेक्सी सेवा को बढ़ावा नहीं देगा। अभी गुलाब की टेक्सी हम घर बैठे फोन पर बुक करते हैं पर भविष्य ओला-उबर का है। मार्केट भी पिण्टू साव के किराना स्टोर से निकल कर अमेजन और रिलायंस की ओर जायेगा। यह पहले भी हो रहा था; अब और तेजी से होगा।

ऐसा नहीं कि गांव गर्त में जायेगा। यहां भी विकास होगा। प्रगति होगी। यह 10 से 11 पर पंहुचेगा। पर उसी समय शहर 100 से 120 या उससे आगे छलांग लगायेगा। गांव और शहर के बीच गैप कम होने की बजाय बढ़ेगा।
कोरोना काल में और उसके अलावा गांव में सड़क बिजली पानी और इण्टरनेट का अभाव जो था, वह कम हुआ होगा पर वाराणसी और प्रयागराज के शहरी विकास की तुलना में वह असमानता (Inequality) बढ़ी ही होगी।
अमेजन प्राइम पर कोरोना काल की एक सीरीज है – Unpaused. उसके पांचवें एपीसोड में श्मशान घाट – वैकुण्ठ – की दीवार पर एक वाक्य लिखा है – यहां अमीर और गरीब को एक ही बिस्तर मिलता है। पर श्मशान के अलावा और कहीं वह समानता नहीं है!
विद्वान लोक कोरोना के समापन की घोषणा कर रहे हैं। कुछ दिन पहले टाइम्स ऑफ इण्डिया के सम्पादकीय पृष्ठ पर देवी शेट्टी का लेख था हाउ टु लिव विद कोविड। उसमें यह था कि कोविड का भय गो-वेण्ट-गॉन होने का समय आ गया है। हम सब को न्यू-नॉर्मल तरीके से रहना सीख लेना चाहिये।

आज टाइम मैगजीन का मुखपृष्ठ है जो कोविड समाप्ति की बात करता दीखता है। लोग अब अपने अपने कम्फर्ट जोन में जीने की शुरुआत कर लेंगे। सो केवल रहने भर के लिये मेरे साले साहब लोग गांव में आने से रहे।

लोग गांव को उन्मुख होंगे नहीं। वे गांव में बसने आये नहीं; और सम्भावना भी नहीं है।
मेरी पत्नीजी इस पोस्ट को देख कर खफा हैं। उनका कहना है कि गांवदेहात को ले कर मैं स्थिर मत नहीं रहता। कभी इसे बहुत अच्छा बताता हूं – और उसी कारण से हम यहां बसने का तय किये; तो कभी उसे पूरी तरह खराब बताता हूं – जैसा अब कर रहा हूं।
और मैं? जैसा जब महसूस करता हूं; जैसा जब सोचता हूं, लिखता हूं। ब्लॉग, ब्लॉग है; कोई थीसिस नहीं! 😆
दोनों स्थानों पर सब नहीं मिल सकता है, पर चिन्तन आवश्यक है। बनारस के एक कोने से दूसरे कोने में एक घंटे लगाने से अच्छा है कि गतिमय स्थान पर रहें। आधुनिक सड़कों ने शहरों के कुछ लाभ अत्यन्त सीमित कर दिये हैं।
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सही है, चिंतन आवश्यक है. शहर और गांव दोनों के अपने अपने लाभ हैं. अपनी प्रकृति को जानते हुए निर्णय करना होगा और उसमें भी मन कभी इधर और कभी उधर दोलन तो करेगा ही. 😊
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अमरनाथ सिंह जी ट्विटर पर –
ब्लॉग, ब्लॉग है, थीसीस नहीं. स्थाईमत कोई हो भी नहीं सकता. निरंतर नये अनुभवों के आधार पर लोगों का मन और मत दोनो बदलते रहते हैं.
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सुधीर पाण्डेय ट्विटर पर –
पूज्य भाई साहेब मैं आपके विचारो से पूरा सहमत हूं!आत्मा है शरीर है और उसमे मन है ,मन मशीन नही है वह समय, स्वास्थ्य और संभावना के अनुसार बदलता है । आप के विचार काल और परिस्थिति के अनुरूप सत्य है । आप को बधाई जमाने की नब्ज पहचानने के लिए।जय महादेव
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राकेश धर द्विवेदी ट्विटर पर –
बिल्कुल सही लिखा है आपने, जहा गांव 10 से 11 होगा, ठीक उसी समय शहर 100 से 120 पहुंच जाएगा। फिर भी कुछ ऐसा है गांव में कि हम लोग भी आपको फॉलो करते हुए है गांव में बसने की सोचते है। हालाकि मेरे लिए कुछ कहना अभी बहुत जल्दी होगा।#गांवदेहात
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मुकुंद द्रविड फेसबुक पेज पर –
कभी कभी मैं सोचता हूँ कि देहात में पीने का पानी की क्या व्यवस्था है नल से या कुवें या ट्यूब वेल ।
प्रकृति के नजदीक रहना तो सबको पसंद है पर मूलभूत आवश्यकता पानी बिजली और आपातकाल में मेडिकल और अस्पताल तक पहुंच ।
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Ravindra Nath Dubey फेसबुक पेज पर –
कोई आए नहीं आए पर आपको प्रकृति की गोद में बिठा दिया। जब तक मन रमे ठीक है वरना जय प्रयागराज।
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संतोष मिश्र, फेसबुक पेज पर –
मैं तो गांव के भविष्य को लेकर आशान्वित हूं। पर आप का कहना बिल्कुल सही है कि गांव शहर के मुकाबले धीमी गति से प्रगति करेगा।गांव से थोड़ा हटकर बड़े कस्बों का भी विकास हुआ है। यहां स्वास्थ्य की बुनियादी जरूरतें पूरी हो जाती हैं।
और प्राइमरी, मिडिल लेवल की स्कूलिंग भी मिल जाती है।
उच्च शिक्षा के लिए और किसी स्पेशल इलाज के लिए शहर का रुख करना ही पड़ेगा।सबसे बड़ी बात है गांव के लोगों की डिस्पोजेबल इनकम।
वो बढ़ने के लिए भी शहर जाना ही होगा।
कुल मिलाकर शहर का विकल्प नहीं दिखता।
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पता नहीं विकास की क्या सही परिभाषा हो, लेकिन अगर आपको लगता है कि उपभोक्तावादी अवसर ही विकास हैं तो मेरा मत आपसे भिन्न हो जाता है।
गांव में सड़कें नहीं हैं, न सही, लेकिन सोलर पैनल से बिजली और बेसिक इंटरनेट हो तो गांव शहर से अब भी कई गुना अच्छे हैं। मजदूरों को लाने ले जाने के लिए ट्रांसपोर्टेशन की जरूरत होती है, गांव में जब कहीं बहुत दूर जाना ही नहीं है तो बिना कारण सड़कें बना बनाकर जमीन रौंद देने का क्या तुक है।
एक आशंका है कि आपका गठिया परेशान करता होगा, सो आपको सड़कों की बेहतर जरूरत होगी। बाकी जैसा नखलिस्तान आपने बनाया है, वैसे अगर आपके गांव में दस बारह भी हों तो शहर की हर कमी पूरी हो जाएगी…
कम से कम वानप्रस्थ के लिए तो गांव ही विकल्प हैं, शहर में वानप्रस्थ असंभव ही है…
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