कल 27 नवम्बर 2020 को भूपेंद्र और विकास, मेरे दो साले साहब वाराणसी से सवेरे सवेरे गांव आये। वे दोनों वहां कारोबार करते हैं। मूलत: बस यातायात से सम्बंधित कार्य। मेरे घर के बगल में अपने मकान बनाने का उनका विचार बन रहा है। पिछले साल भर से वे ऐसा सोच रहे हैं। कोरोना काल में यह विचार और भी प्रबल हो गया है।
मेरे चार साले साहब हैं – एक तो यहीं गांव में रह कर खेती-किसानी-नेताई संभालते हैं। वे (शैलेंद्र) भाजपा के भदोही के बड़े नेता हैं। एक बार भाजपा के प्रांतीय एसेम्बली के उम्मीदवार भी रह चुके हैं। सबसे बड़े, धीरेंद्र बेंगलुरु में किसी कम्पनी के शीर्ष पर थे और अब अपना कोई सलाहकारी का कार्य कर चुके हैं। फेसबुक पर तो शायद उपस्थिति नहीं है – वे लिंक्डइन जैसी साइट के मटीरियल हैं। बाकी दो के बारे में पहले पैराग्राफ में लिख चुका हूं।

गांव में शैलेंद्र के पास अपना मकान है। बाकी तीन बनवाने की सोच रहे हैं।
गांव के बगल से गुजरती नेशनल हाईवे 35 (ग्राण्ड ट्रंक रोड) के 6 लेन बनने का काम भी पूरा हो चुका है। गांव से बनारस के किनारे पंहुचने में कार से आधा घण्टा लगता है। घर के बगल से गुजरती बनारस-प्रयागराज रेल लाइन का दोहरीकरण भी लगभग पूरा हो गया है। एक गंगा एक्स्प्रेस वे के बनने की बात भी सुनने में आती है। वह भी शायद गांव के पास, गंगा किनारे से गुजरे। कुल मिला कर गांव में रहना अब उतना गंवई नहीं रह गया। बड़ी तेजी से बदलाव हो रहे हैं।

इन लोगों ने जमीन का मौका-मुआयना किया। तीन मकान बनने हैं उसमें। दो उत्तर दिशा की ओर मुंह कर बनेंगे, एक पूर्व की ओर होगा। कितनी जमीन है, कितने कमरे बनेंगे, कितनी चारदीवारी बनानी होगी। मकान की कुर्सी कब, कैसे बनेगी और जमीन कितना ऊपर उठानी होगी – इस सब का प्रारम्भिक विचार विमर्ष हुआ। मेरी पत्नीजी और मेरा उसमें योगदान केवल चाय-नाश्ते का इंतजाम था। हमें तो इसी बात की सनसनी और खुशी हो रही थी कि हमारे आसपास लोग बसने जा रहे हैं। मेरा तो यह मानना है कि अभी अगर मकान बना लेंगे और महीने में एक-आध चक्कर लगाने की सोचेंगे तो अंतत: गांव उन्हें अपनी ओर परमानेण्ट रिहायिश के लिये खींच लेगा। शहर से मात्र आधा घण्टा की दूरी और बेहतर आबोहवा के कारण गांव रहने का बेहतर विकल्प होगा! कोरोना काल ने यह और अच्छे से समझा दिया है लोगों को।
गांव के बारे में वर्णन करने को बहुत कुछ अच्छा है। पर बहुत कुछ ऐसा भी है, जिसे मैंने गांव में रहने के पहले नहीं जाना था। लोगों के पास समय बहुत है और वह आजकल परनिंदा में ज्यादा व्यतीत होता है। ईर्ष्या लोगों में उतनी ही है, जितनी शहरों में। अच्छे और बुरे लोगों का अनुपात भी गांवदेहात में वैसा ही होगा जैसा शहर में। पर शहर में लोगों के पास कुटिलता के आधार पर गलत करने के लिये, अपने पड़ोसियों का बुरा करने के लिये समय कम होता है। जिंदगी की भागमभाग जो है। गांव में “खुराफात” के लिये बहुत समय है।
विकास हो रहा है, पर बन रही सुविधाओं का रखरखाव गांव में शहर की बनिस्पत खराब है। सड़कें बनने के साथ ही टूटने लगती हैं। सोलर लाइटें मेरे गांव में आने के साथ लगी थीं – कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉनिबिलिटी के फण्ड से। गांव जगमग नजर आता था। पर अब वे बेकार हो चुकी हैं। उनकी फिटिंग्स या तो चोरी चली गयी हैं; या उनकी बैटरी बेकार हो गयी है। लगाते समय भी लगता है भ्रष्टाचार (और उसमें पंचायत स्तर का भ्रष्टाचार भी शामिल है) के कारण उनमें बेकार बैटरी लगाई गयी थीं। बालू-मिट्टी के अंधाधुंध खनन से उड़ने वाले गर्दे से पूरा वातावरण धूल भरा हो गया है। दिन भर नौसिखिये ट्रेक्टर चालक बालू-रेत लिये दौड़ते रहते हैं। कूड़ा बिखरा रहता है। प्लास्टिक का कूड़ा बढ़ता जा रहा है और वह तालाबों को भी प्रभावित कर रहा है। शहर में वह नहीं होता।
बहुत सी चीजें हैं, बहुत से मुद्दे जिन्हें मैंने गांव में शिफ्ट होने के निर्णय लेने के दौरान अगर जाना होता तो (भले ही गांव में शिफ्ट होता) बेहतर तरीके से इन मुद्दों को फेस करने के लिये जागरूक होता।
कल शैलेश ने कहा “भईया, आप गांव का जो चित्रण करते हैं अपने ब्लॉग या माइक्रोब्लॉगिंग साइट्स पर; क्या वह अच्छा पक्ष भर नहीं रख रहे? क्या आपने लोगों की कुटिलता और बदमाशी फेस नहीं की? क्या आपने अपने को नीलकण्ठ नहीं बनाया। कितना गरल अपने आप में जब्ज किया?”
अगर ईमानदारी से कहा जाये तो हर व्यक्ति, जो गांव में रीवर्स माइग्रेट होने की सोचता है, उसे कुछ न कुछ मात्रा में नीलकण्ठ बनना ही होता है। पर मैं अगर गांव में आने के नफा-नुक्सान का अपनी प्रवृत्ति के अनुसार आकलन करता हूं; तो अपने निर्णय को सही पाता हूं। यहां रहने का निर्णय हमने किया है तो पहले सामंजस्य बिठाने में बहुत ऊर्जा और संसाधन भी खर्च किये; पर एक समय ऐसा आया कि पूरा बल दे कर तय करना पड़ा कि यहां रहना हैं तो अपनी शर्तों पर, अपने तरीके से ही रहेंगे। गांव के (अच्छे-बुरे) व्यक्तित्व का तुष्टिकरण कर नहीं रहेंगे। और उससे काफी सुकून मिला। जरूरी है कि गांव से अपेक्षायें न रखी जायें। अपनी सामर्थ्य अनुसार जिया जाये। जो है, उसे देखा जाये और उसका आनंद लिया जाये। बस!
मेरे तीन साले साहब जो यहां रिहायश बनाने की सोच रहे हैं; उन्हें यह नफा-नुक्सान का आकलन कर लेना होगा। शायद कर भी लिया हो। आखिर, वे गांव और गांव के निवासियों की वृत्ति-प्रवृत्ति को मुझसे कहीं बेहतर समझते, जानते हैं। वे यहां के मूल निवासी हैं।
फिलहाल, मुझे बहुत प्रसन्नता है कि मेरे घर के आसपास लोग आने और रहने लगेंगे। उनकी देखादेखी दो-चार और लोग भी यहां घर बनायेंगे ही। यह गांव, गांव नहीं रहेगा आज से एक दो दशक बाद। बनारस का सबर्बिया बन जायेगा। बस, वे लोग मकान भर ही न बनायें; यहां बसेंं भी और गांव की प्रवृत्ति में सार्थक बदलाव लायें।
जी गाँव आना सुकून तो देता लेकिन जिस जहर का जिक्र आपने किया है वह भी पीना ही होता है। मेरे एक रिश्तेदार में कहा था कि अगर गाँव मे खुशहाली से रहना है तो खुद को होशियार की जगह भोला दिखाओ। होशियारी दिखाने वाले का रहना मुश्किल होगा क्योंकि यहाँ समीकरण बनते बिगड़ते रहते है। व्यक्ति समझ ही नहीं पायेगा कि कौन कैसा है? अच्छा लगा कि आपके साले साहब गाँव में बसने का विचार कर रहे हैं। हमारे इधर भी गाँव के घर बनने लगे हैं। लोग गाँव आते हैं फिर भले ही साल में एक बार क्यों न आयें।
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भोला रहने को मैं इस प्रकार से लेता हूं कि अपनी अपेक्षाओं को कम से कम रखा जाए। और यह न सोचा जाए कि किसी को प्रभावित करना है…
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जी…. यही मतलब था….
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जी…. यही मतलब था….
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पांडे जी , अब भूल जाइए वो कहावते की गावों मे भूत रहते है / अब वह गाव ,गाव नहीं रहे है / गाव अब छोटे शहर का प्रारूप है / अब तो नाम के नाम मात्र के गाव रह गए है / मै अपने सभी साथियों से कहता हू की आनेवाले वर्षो मे और जमाने मे वही इस देश का राजा और नवाब माना जाएगा जिसके पास शहर और गाव देहात दोनों जगह मे घर और जमीन होगी / इलाहाबाद या बनारस आना हुआ तो आपके यहा भी एक सरप्राइज विजिट अवश्य करूंगा और अचानक बिना बताए और पूर्व सूचना के /
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जरूर. स्वागत!
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