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शैलेश ने मुझे फोन पर बताया – “भईया, गड़ौली धाम में समर्पित चरित्र खोज रहे हैं आप तो जरा गायों के शेड के आसपास लम्बे शरीर के थोड़े भूरे बालों वाले व्यक्ति को खोजिये। वे प्रमोद शुक्ल हैं। गौशाला वही संभालने वाले हैं और उनका कमिटमेण्ट तो टोटल है। शत प्रतिशत।”
ज्यादा दिक्कत नहीं हुई उन्हें देखने चीन्हने में। गायों के शेड के आसपास ही पुआल का कटा हुआ चारा उतारा जा रहा था। पतले दुबले लम्बे कद के वे सज्जन कह रहे थे – “यह पुआल इन गायों को तो मैं कभी नहीं परोसूंगा। जिसने भी मंगाया है, उससे ही जा कर बात करो। पुआल उतारने की जरूरत नहीं है। मैं समझौता नहीं कर सकता।”

उनसे मौका देख कर मैंने इधर उधर के दो चार सवाल किये। उन्होने उत्तर तो दिये पर अपरिचय में प्रश्नों को फेस करते वे कुछ असहज लगे। मैंने अपना परिचय दिया। उन्हें यह भी कहा कि गौशाला जिस प्रकार से अपना आकार लेगी, उसके बारे में मैं लिखना चाहूंगा। सतत। परिचय देने के बाद हम लोगों की आत्मीयता की केमिस्ट्री बनने लगी।
प्रमोद जी गौ पालन के बारे में गहन जानकारी रखते हैं। ऐसा मुझे लगा। उनके पास गौ पालन के आधार पर आर्थिक रूप से सक्षम ग्रामीण जीवन की परिकल्पना भी है और उसपर वे पूरी तरह यकीन करते दिखे। वे गौ पालन में किसी तरह के शॉर्ट-कट के पक्ष में नहीं नजर आये। “गांव वाला आदमी चारे में कॉम्प्रोमाइज कर दस रुपया बचाता है पर उससे वह 100 रुपया खो देता है। मैं वैसा काम कत्तई नहीं करूंगा।” – प्रमोद शुक्ल ने कहा।

प्रमोद चारे की क्वालिटी की बात कर रहे थे। सुनील ओझा जी ने मुझे पहले पहल मिलने पर बताया था कि गाय की चरनी चारे से सदा भरी रहे। तभी गौ माता तृप्त हो कर आशीर्वाद देगी। प्रमोद शुक्ल और सुनील ओझा की सिनर्जी – चारे की क्वालिटी और क्वांटिटी – दोनो भरपूर हो तो उसमें खर्च भले ही ज्यादा हो, आर्थिक लाभ भी कई गुना ज्यादा होगा।
प्रमोद प्रेक्टिकल आदमी हैं। वे कहते हैं कि गांव का आदमी अगर देसी गाय पालेगा, उसकी माता की तरह सेवा करेगा तो वह एक तरफा श्रद्धाभाव से नहीं हो सकता। गाय की सेवा; अगर उस किसान के अपने बच्चे भूखे रहते हैं; तो कहां चल पायेगी? गौ पालन का ठोस आर्थिक आधार नहीं होगा तो यह प्रयोग सफल नहीं होगा।

पर क्या व्यापक तौर पर यह प्रयोग सफल हो सकता है? मैं यह सवाल प्रमोद जी से करता हूं। यही सवाल मैं गांवदेहात के बहुत से लोगों से कर चुका हूं। गांवदेहात के लोग अंदाज से पक्ष या विपक्ष में तर्क देते हैं। उनकी सोच में गौ माता की सेवा या मिलने वाले दूध की शुद्धता भर का तर्क रहता है। वे यह भी कहते हैं कि गौ सेवा से स्वास्थ्य ठीक रहता है। पर देसी गाय आर्धारित पूर्णत: आर्थिक समृद्धि की बात वे नहीं करते। गाय बाकी जीवन का ऐड-ऑन ही है लोगों के लिये।
यही सवाल दो महीने पहले मैने कृषि वैज्ञानिक डा. जय पी राय जी से भी किया था। दोनो सज्जन – प्रमोद शुक्ल और डा. राय; जो विषय की गहन जानकारी रखते हैं; मानते हैं कि मार्जिनल किसान की गौ आर्धारित आर्थिक समृद्धि सम्भव है।
साधन की कमी वाले मार्जिनल-खेतिहर किसान की गौ आर्धारित अर्थव्यवस्था के लिये जरूरी है कि किसान इकॉनॉमी के मूलभूत तत्व समझें, गाय के लिये सूखे और हरे चारे का प्रबंधन आपसी तालमेल-सामुदायिक सोच के साथ करें। वे देसी गौ वंश के टाइप 2 प्रोटीन वाले दूध की गुणवत्ता का आर्थिक महत्व समझें और उस दूध के लिये सही बाजार विकसित हो। उपभोक्ताओं की जानकारी बढ़े कि देसी गाय का दूध उनके लिये अनेक आधुनिक जीवन की बीमारियों (मसलन अल्झाइमर और डिमेंशिया) आदि के बचाव का साधन है। जानकारी का प्रसार, लोगों में सहयोग की भावना का विकास और देसी दूध के बाजार के लिये बहुत काम किया जाना मूलभूत आवश्यकता है। … यह बहुत बड़ा काम है और कई समर्पित लोगों की जरूरत होगी उसके लिये। प्रमोद शुक्ल जी सम्भवत: एक स्तम्भ हों उसके लिये। पर एक दर्जन लोग और होने चाहियें। भाजपा के टिकटार्थियों से बिल्कुल अलग प्रकार के लोग! 🙂
मैं प्रमोद जी से फोन कर कहता हूं कि जब वे गड़ौली धाम में हों तो मुझे खबर कर दें। उनसे मिल कर आगे बहुत कुछ समझना है। हो सकता है कि मैं स्वयम भी इतना चार्ज हो जाऊं कि दो-चार गायों को पालने के प्रयोग की सोचूं। यह भी हो सकता है कि मैं लेखन सामग्री भर ही जुटाऊं। ऑफ्टर ऑल, जीडी एक आम बाभन की तरह आलसी जीव है! 😆
दस गायें हैं अभी गड़ौली धाम की कुंदन गौशाला में। दो उनके साथ आये व्यक्ति हैं – भदई और ददन यादव। उस दिन भदई एक कनस्तर में गुड़ फेंट रहे थे। गरम भी कर रहे थे। यह गुड़ गायों को खिलाना है। ताजा व्याई गायें हैं। उन्हे पौष्टिकता मिले और दूध में बढ़ोतरी हो, उसके लिये उपाय है। भदई और ददन आरा जिला के हैं। गौ पालन में दक्ष। यहां के तीन लोग तैयार हो रहे हैं। दो तीन दिन में गायों की देखभाल सौंप कर दोनो लौट जायेंगे।

भदई बताते हैं कि साहीवाल अच्छी गाय है। और भी कई अच्छी देसी गायें हैं। भदई प्रमोद जी को कहते हैं – दो चार तारफार मंगवाइये। तारफार राजस्थान की देसी गाय है। साहीवाल से भी ऊंचे कद वाली और बहुत सीधी – भदई मुझे बताते हैं। भदई और भी गायों की प्रजातियों के नाम मुझे बताते हैं – कांगरेट, राठी, मुलतानी, गंगातीरी आदि। गुजरात की काठियावाड़ी गाय तो है ही।
इन गौ वंशों की 100 गायें अगर कुंदन गौशाला में आयी तो साल भर में ही उतनी ही उनकी नयी जेनरेशन की गायें तैयार हो जायेंगी। आसपास के दस बीस गांवों में कई परिवार देसी गाय पालने वाले हो जायेंगे। मैं त्वरित कल्पना करने लगता हूं (और त्वरित सपने देखने में मेरी महारत है 🙂 ) कि चार पांच साल में आसपास में गौ आर्धारित अर्थव्यवस्था का एक प्रोटोटाइप मॉडल तैयार हो जायेगा। … Ifeel buoyant – मैं उत्फुल्लता और सनसनी महसूस करता हूं।
आने वाले दिनों में गौशाला और गौ आर्धारित गांवदेहात की जिंदगी पर और भी जानकारी मिलेगी। और भी लिखा जायेगा!
मैं अपने बगल के बाढ़ू से पूछता हूं – क्या केवल देसी गाय पाल कर घर पल सकता है? बाढ़ू के पास दो-चार गाय-गोरू हैं। एक जोड़ी हल बैल भी हैं। एक आध बीघा जमीन। कुछ सोच कर बाढ़ू जवाब देता है – “काहे न होये। होई जाये।” पर बाढ़ू के कहने में मजबूती कम ही लगती है। आगे आने वाले समय में शायद मजबूती आये।
तुम ज्यादा ही उत्साहित हो जाते हो जीडी! थोड़ा शांति से देखो कि प्रमोद शुक्ल जी की गौशाला कैसे पनपती है।

तारफ़ार लगता है थारपारकर का देसज उच्चारण है। गायों पर चर्चा करने के लिए आपको अभिनव गोस्वामी के नंबर भेजता हूँ, उन्होंने अलीगढ़ में शुद्ध देसी गौ वंश की गौशाला बनाई, उसके बाद अभी टेक्सास अमरीका में भी एक साहीवाल की गौशाला बना चुके हैं, उनकी जानकारी आपके लेखन के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकती है।
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जय हो! आपने पहले भी अलीगढ़ की गौशाला की चर्चा की थी और शायद मैंने खोज कर वेब साइट भी देखी थी. याद आ रहा है.
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