आज के चरित्र थे बऊ यादव। पास के गांव इंटवाँ के हैं। साथ में पांच छ डिब्बे, प्लास्टिक के बर्तन आदि ले कर आये थे।
गांव का आदमी बऊ! एक छोटी सी वार्ता में मुझे कई शब्द सिखा दिये – मरता, निछौंछे, अरररर!
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डेयरी से परिवर्तन, अजय दुबे, मटकीपुर
आज के चरित्र थे अजय दुबे। वे पांच सात अलग अलग पशुओं का दूध अलग अलग डिब्बों में ले कर आये थे। सब की पर्चियां एक साथ निकलीं। एक मीटर लम्बा था प्रिण्ट आउट। सब पर अंकित मूल्य को मैंने जोड़ा तो नौ सौ- हजार के आसपास निकला।
मडैयाँ डेयरी और जंगला के संतोष यादव
संतोष सवेरे चार बजे उठते हैं। अपने घर के गाय गोरू की देखभाल करते और दुधारू पशुओं को दुहने के बाद अपने गांव के करीब 35-40 भैंसों-गायों को दुहते हैं।
[…] दुहने में लगी मेहनत से उनकी उंगलियों की बनावट ही बदल गयी है।
दिनेश पगला
ऐसे चरित्र रोज रोज नहीं मिलते। पहले मुझे लगा कि वह कुछ मानसिक रूप से सरका हुआ है। पर उसने बताया कि गांव के आसपास के भगत लोगों के साथ उत्तराखण्ड, झारखण्ड, गया आदि कई जगहों पर पैदल यात्रा कर चुका है।
दैनिक दूध के विकल्प की तलाश
दैनिक जरूरतें हैं – आटा, दाल, चावल, सब्जी, दूध। जब इनकी कीमतें बढ़ती हैं तो उनको सस्ता पाने के विकल्प तलाशने में लग जाते हैं हम। यह पोस्ट उसी कवायद पर है।
प्रमोद शुक्ल और गड़ौली धाम की गायें
वे गौ पालन में किसी तरह के शॉर्ट-कट के पक्ष में नहीं नजर आये। “गांव वाला आदमी चारे में कॉम्प्रोमाइज कर दस रुपया बचाता है पर उससे वह 100 रुपया खो देता है। मैं वैसा काम कत्तई नहीं करूंगा।” – प्रमोद शुक्ल ने कहा।