पतझर, पत्तियां और भरसाँय

पत्ते बहुत झरे। नये आ गये हैं। पर अभी भी कुछ झर ही रहे हैं। सर्दी के मौसम में बच्चे कऊड़ा/अलाव के लिये दिन भर बीनते थे। अब वे नजर नहीं आते। अब बहुत मात्रा में पत्ते हैं तो कंहार लोग, जिनका पुश्तैनी धंधा भुंजवा (भरसायंंमें दाना भूनने) का है; वे पत्तियां इकठ्ठा कर रहे हैं। झाल में पत्तियां ले जाते और कहीं कहीं पत्तियों के ढेर लगे दीखते हैं।

उस रोज कछवां जाते-आते यह बड़ा ढूह दिखा पत्तियों का।

यह बड़ा ढूह दिखा पत्तियों का।

वयस्क लोग एक स्थान से दूसरे स्थान पर झाल में पत्तियाँ ले जाते भी दीखते हैं। गांवदेहात में कोई चीज बरबाद नहीं होती। सूखी पत्तियां भी सहेज कर बटोरी जाती हैं, इकठ्ठा की जाती हैं और उनका संग्रह किया जाता है। यह सूखी पत्तियाँ बरसात के सीजन के पहले तक भरसांय जलाने और दाना भूनने के काम आयेंगी। अभी नवरात्रि के दौरान तो दाना भूनने का काम नहीं हो रहा। आबादी का कुछ हिस्सा तो व्रत उपवास में लगा है। लेकिन उसके बाद भरसांय जलने का काम होगा ही।

सूखी पत्तियाँ ले जाती महिला

कल महिला पत्तियों का बड़ा गठ्ठर ले जाती मिली मुझे साइकिल सैर के दौरान। बरबस सुमित्रानंदन पंत जी की पंक्तियाँ याद हो आयीं। “झरते हैं, झरने दो पत्ते डरो न किंचित”। पंत जी प्रकृति के पुन: नवीन होने को ले कर आश्वस्त थे/ कर रहे थे। मुझे उससे अलग; सूखी पत्तियों का अर्थशास्त्र याद आ रहा था।

निराला शायद लिखते –

वह ले जाती पाती का गठ्ठर;
देखा मैंने उसे गांव के पथ पर

और यह महिला शायद साहित्य में आ जाती। अमर हो जाती। ब्लॉगर वह कहां कर सकता है?! वह केवल चित्र ले कर पोस्ट कर सकता है। 😦

हां, भरसांय की याद आने पर मुझे अपना पुराना खींचा चित्र याद आया जिसमें एक कुकुर भरसांय में सवेरे बैठा था। यही मौसम जब महुआ टपक रहा था। कुकुर एक अंतरिक्ष यान में बैठा एस्ट्रोनॉट सरीखा लग रहा था।

खाली पड़ी भरसाँय में अंतरिक्ष यात्री की तरह बैठा कुकुर।

चित्र 5 साल पहले – अप्रेल 2017 का है। आते जाते देखता हूं, तो गांवदेहात में पांच साल में बदलाव हुये हैं; पर यह भरसांय अब भी वहां वैसे ही है। उसे बराबर गोबर से लीपा जाता है। निश्चय ही रेगुलर उपयोग होता है उसका। गांवदेहात रहेगा, पत्तियाँ झरेंगी, कोंहार का पेशा रहेगा और भरसांय रहेगी। चना, लावा, चिउरा, लाई भुनवाया जायेगा। बच्चे भले ही पॉमोलिन में तली पुपुली खाने पर स्विच कर गये हैं; भूंजा खाने का प्रचलन बना रहेगा।

जय हो!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring village life. Past - managed train operations of IRlys in various senior posts. Spent idle time at River Ganges. Now reverse migrated to a village Vikrampur (Katka), Bhadohi, UP. Blog: https://gyandutt.com/ Facebook, Instagram and Twitter IDs: gyandutt Facebook Page: gyanfb

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