सवेरे सवा सात बजे वहां कोई नहीं दिखा। बच्चे गड़ौली धाम की महुआरी में टपकता महुआ बीन रहे थे। लड़कियां – जो अब किशोरियाँ हो गयी थीं, ने बताया कि सवेरे पांच बजे वे आ गयी थीं और बहुत सा महुआ इकट्ठा कर लिया था। अभी डेढ़ घण्टा और बीनेंगी वे।
सुंदर थीं लड़कियां। मोबाइल के सामने आने में झिझक रही थीं। अगर वह झिझक नहीं होती तो सवेरे की सुनहरी रोशनी में उनके चेहरे बहुत सुंदर आते चित्रों में। बहुमूल्य चित्र होते वे। पर शायद उनके चित्र लेने की बात कहना-करना उपयुक्त नहीं होता। मैंने अपने आप को चेक किया। लड़कियां, बच्चे और महुआ के भरे बर्तन – उन्हें देखना ही बहुमूल्य अनुभव था। सात किलोमीटर साइकिल चला कर वहां जाना सार्थक हुआ।
उनमें से एक ने पूछा – महुआ का फोटो का क्या करेंगे?
“जो कुछ अनुभव कर रहा हूं, उसके बारे में लिखने के काम आयेंगे फोटो।” – मेरा यह कहना उन्हें बहुत समझ नहीं आया होगा। ब्लॉग तो लोग समझते ही नहीं गांवदेहात में। बकौल उनके; मैं आसपास का जो देखता हूं, ह्वात्साप्प पर डाल देता हूं। “अऊर ऊ वाइरल होई जा थअ। गुरूजी तोहार फोटो लेत हयेन त इ मानि ल कि सगरौं पंहुचि जाये ( और वह ‘वाइरल’ हो जाता है। गुरूजी अगर तुम्हारी फोटो लेते हैं तो मान लो कि वह सब जगह पंहुच जायेगी।)”


गंगा किनारे, बालेश्वर महादेव के समीप यज्ञशाला की कुटी में वह तख्त और उसपर कम्बल वैसे ही पड़ा है जैसे मैंने दो दिन पहले सवेरे देखा था। तब सुनील ओझा जी उसपर अपना दैनिक प्राणायाम कर रहे थे। आज सुनील जी और उनके संगी – विनायक – वहां नहीं हैं। नदी में नहा कर गंगाजल लाते सतीश ने बताया कि बाबूजी तो कल रात बनारस गये। दीदी साथ थीं। वे ही ले गयीं।
सुनील ओझा अब यहां रहने रुकने का मन बनाते दीखते हैं। दो रात रुके भी। रात में मच्छर से बचाव को मच्छरदानी में सोये। गंगा किनारे की रात में ठंडक हो जाती है। सो कम्बल भी ओढ़े। बकौल उनके, वे तो कहीं भी, खुले में या किसी ढाबे पर रात गुजारने के आदी हैं। शायद सक्रिय राजनीति में जन सम्पर्क की जरूरत यह सब आदत डाल देती है। नरेंद्र भाई मोदी भी वैसा ही करते रहे होंगे। … पर उनकी बिटिया नहीं चाहतीं कि बिना उपयुक्त सुविधा का निर्माण हुये, उनके पिता यूं गंगा किनारे “जंगल में” रात गुजारें। पिता-पुत्री की आत्मीय कशमकश का मैं साक्षी हूं। आज मैं गड़ौली धाम आया तो यही जिज्ञासा थी कि कौन भारी पड़ा – पिता या पुत्री?! 😀

पुत्री भारी पड़ी! यूं, गांव देहात में घूमते मुझे लोग कहते भी हैं – ओझाजी सीधे हैं। लोग उन्हें चरा लेते हैं। पर उनकी बेटी ‘कड़क’ हैं। डांट देती हैं। … पता नहीं, कड़क हैं या नहीं। संध्या जी मुझे और मेरी पत्नीजी का चरण स्पर्श कर लेती हैं। बाभन को कोई चरणस्पर्श कर प्रणाम कर दे तो वह व्यक्ति स्वत: प्रिय हो जाता है।
कहा जाता है कि अगर दो व्यक्ति साथ साथ पांच सात कदम चल लें तो मित्र हो जाते हैं। सुनील जी और मैं तो दो-तीन घण्टे साथ गुजार चुके हैं। सो मित्र तो हो ही गये। वैसे वे उम्र में मुझसे दो-ढाई महीना बड़े हैं। दोनो की प्रवृत्ति और डोमेन अलग अलग हैं। वे सक्रिय राजनीति में हैं और मैं रिटायर नौकरशाह। फिर भी कुछ ट्यूनिंग हो गयी है। उनके बारे में अलग से ब्लॉग पर लिखूंगा। वैसे उसकी जरूरत क्या है? उनके बारे में तो बहुत कुछ इण्टरनेट पर उपलब्ध है।


गंगा किनारे धरती को निहारता हूं तो कुशा नहीं दिखती। वह हटा दी गयी है। तभी निर्माण सम्भव हो सका है। पर शायद वर्षा ऋतु में कुशा फिर जनमे। अभी वहां हिंगुआ के पौधे उगते-पनपते दीखते हैं। मजेदार वनस्पति है हिंगुआ। गर्मी तेज होती है तो यह और हरियराता है। कभी कभी मन होता है कि अपने घर के बगीचे में कोचिया की बजाय गर्मी के लिये यही लगा दिया जाये। पूरी गर्मी हरियाली रहेगी। पर हिंगुआ जिद्दी झाड़ है – कुशा की तरह। वह मेरे घर के छोटे से बगीचे पर कब्जा ही जमा लेगा!
हिंगुआ औषध भी है। गुन्नी पांड़े बताते हैं कि कमहरिया में फलाने नाड़ी वैद्य थे। उन्होने एक रोगी को हिंगुआ की जड़ ही पीस कर दी थी और तीन खुराक में ही रोगी चंगा हो गया था। मैं वनस्पति पर शोध में ज्यादा दिलचस्पी नहीं रखता अन्यथा हिंगुआ पर और छानबीन करता। फिलहाल हिंगुआ की झाड़ का जन्म लेना मुझे बहुत रुचा। गड़ौली धाम के निर्माण में चींटे भी बचने चाहियें और हिंगुआ भी। यह मेरी विशफुल थिंकिंग है! 🙂

हिंगुआ का चित्र लेने के लिये मैं घुटनों के बल जमीन पर बैठता हूं। मोबाइल को गिरने से बचाते हुये कठिनाई से चित्र ले पाता हूं। उम्र बढ़ रही है जीडी। गड़ौली धाम जाने के लिये 12-15 किलोमीटर साइकिल चलाना और हिंगुआ का चित्र लेने के लिये झुकना – ज्यादा समय नहीं कर पाओगे!
यज्ञशाला में कमरा नुमा झोंपड़ी में कुछ गर्म होने की गंध आती है। कमरे में घुस कर देखता हूं तो एक सज्जन – संदीप – कुछ औंटा रहे हैं। हीरालाल ने बताया – घी बनत बा गुरुजी (घी बन रहा है गुरू जी)! … मेरी ट्यूबलाइट जल गयी। गड़ौली धाम में; इस गांवदेहात में प्रशीतत और परिवहन की पुख्ता व्यवस्था नहीं हो सकी है। उस दशा में साहीवाल गाय के दूध का A2 गुणवत्ता वाला घी बना देना बहुत सही आर्थिक निर्णय है। मैं बड़ी तेजी से गणना करता हूं – 16किलो दूध से एक किलो घी। [सुनील ओझा जी के अनुसार इसका दुगना 32 किलो की जरूरत होती है। गाय के दूध में फैट कम होता है] अमेजन पर वह घी 2600रुपये किलो है। अपने आप को शेखचिल्ली वाली सलाह देता हूं मैं – पांच ठो देसी गाय पाल लो जीडी!

देसी गाय के दूध घी की गुणवत्ता का अर्थशास्त्र संदीप को घी बनाते देख समझ आ गया। उस दूध घी का मार्केट विकसित हो जाये और आसपास के गांव वाले उससे जुड़ जायें – यह बहुत बड़ा काम होगा। महादेव की कृपा से होगा जरूर!
गड़ौली धाम से चलते समय इन्ही चित्रों-विचारों पर मैं जुगाली करते साइकिल चलाता हूं। सवेरे का डेढ़ घण्टा बहुत अच्छा गुजरा। … ऐसे ही दिन गुजरें। चित्र खींचने और लिखने का मसाला मिलता रहे।
हर हर महादेव!
आपका ब्लॉग मुझे बहुत अच्छा लगा, और यहाँ आकर मुझे एक अच्छे ब्लॉग को फॉलो करने का अवसर मिला. मैं भी ब्लॉग लिखता हूँ, और हमेशा अच्छा लिखने की कोशिस करता हूँ. कृपया मेरे ब्लॉग पर भी आये और मेरा मार्गदर्शन करें.
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