गांव से बाहर निकलते ही हाईवे के अण्डरपास के सामने ही मिल गये मुराहू पण्डित। वे रोज अपने गांव लीलापुर से ईंटवाँ घाट तक जाते हैं गंगा स्नान करने। आज मैं उन्हें पैलगी-परनाम कर उन्ही के साथ हो लिया। उनके साथ उनके स्नान अनुष्ठान देखने का अवसर था। वह मैंने गंवाना उचित न समझा। वैसे भी मुझे किसी काम की कोई जल्दी न थी। घर पर नाश्ता मिलने में अभी दो घण्टे थे। तब तक तो वापस आया ही जा सकता है।

मुराहू उपाध्याय जी रास्ते भर मुझे वह सब सुनाते गये जो कई बार बता चुके हैं। पर और भी बातें की। यह भी पता चला कि उनके पास दो बंदूक-पिस्तौल भी हैं; जिनका लाइसेंस रीन्यू कराना भी झंझटिया काम है। एक उम्र के बाद डाक्टर साहब से प्रमाणपत्र लेना होता है मानसिक-शारीरिक संतुलित होने का। बताने लगे कि डाक्टर साहब नये थे, सो उनके साथ चुहुलबाजी भी की। अपने लिये कहा कि वे अपढ़ गंवार हैं और उन्हें अपनी जन्म तारीख नहीं मालुम। डाक्टर साहब ने उनकी उम्र उनकी फिटनेस के अनुसार बहुत कम आंकी – उनको कोई रोग नहीं है। न हाइपर टेंशन और न मधुमेह। डाक्टर साहब के पास भी अपनी साइकिल चला कर पंहुचे थे। वह तो एक दारोगा जी, जो मुराहू जी के शिष्य रह चुके थे और जो डाक्टर साहब से मिलने आये थे, ने पोलपट्टी खोल दी – “मास्साब सत्तासी साल के हैं। राष्ट्रपति पदक पाये प्रधानाचार्य रह चुके हैं।”

मुराहू पण्डित सरल व्यक्ति हैं, पर चुहुल, मजाक, अपने स्वास्थ्य के बारे में बोलना बतियाना, अपनी विशिष्टतायें लोगों को व्यक्त कर देना बहुत पसंद है। इस उम्र में भी सवेरे उठ कर दो घण्टे गाय-गोरू की सेवा करना, घर की सफाई करना, बारह-चौदह किलोमीटर साइकिल से चल कर गंगा स्नान के लिये बिला नागा आना-जाना – यह बताने में वे संकोच नहीं करते।
मेरे साले साहब, शैलेंद्र का कहना है कि मुराहू पण्डित में सब ठीक है – “सज्जन हैं, विद्वान हैं, कर्मठ हैं और स्वास्थ्य के बारे में सजग हैं। पर उन्हें बात करने का रोग है। आप से उनकी पटरी बैठ जायेगी, काहे कि आप में सुनने की क्षमता है। आजकल के नौजवान लोग कहां सुनने वाले हैं उनके स्वास्थ्य के और वृक्ष लगाने के प्रयोगों के बारे में। … ओन्हन सरये कन्नी काटि क चलि देथीं!”
लॉकडाउन के दौरान, जब वे छियासी साल के रहे होंगे, मुराहू पण्डित प्रयाग में फंस गये थे। वहांंसे वापस गांव आने का कोई साधन ही नहीं था। टेक्सी-ऑटो चल ही नहीं रहे थे। वहां किसी ने अपनी पुरानी साइकिल उन्हे दे दी। एक ही दिन में नब्बे-पचानबे किमी साइकिल चला कर वे अपने गांव लौटे थे। सवेरे छ बजे चले और हंड़िया पंहुच कर पंद्रह मिनट सुस्ताये। एक पाव दही की लस्सी बना कर पी कर ऊर्जा पायी और फिर वहां से चले तो शाम चार बजे गांव पंहुच कर ही रुके।
जब उन्होने यह बताया तो बहुत अचम्भा हुआ मुझे। मैं छियासठ की उम्र में अधिक से अधिक 20 किमी साइकिल चला पाया हूं और ये छियासी के इतना चला सकते हैं!
डाक्टर ने उनकी उम्र कम आंकी तो गलती डाक्टर साहब की नहीं है। मुराहू पण्डित को भगवान ने बनाया ही किसी अलग माटी से है! 🙂

गंगा किनारे ईंटवाँ में बहुत गहरे में हैं गंगा जी। 30-40 फिट स्टीप नीचे उतरना मेरे बस का नहीं था। मैंने उन्हे कहा कि वे ही नहा कर वापस आयें। मैं इंतजार करूंगा। नीचे झांका तो दो दर्जन लोग नहा रहे थे – बच्चे, महिलायें और पुरुष। मुराहू पण्डित काफी दूर जल में हिल कर पश्चिम और पूर्व की ओर मुंह कर चार पांच डुबकी लगाये। शरीर को अच्छे से मल कर साफ किया और स्नान पूरा कर सूर्यदेव को गंगाजी के बहते जल से लेकर अर्पण किया। फिर किनारे आ कर अपना जरीकेन और लोटा ले कर गये और उसमें गंगाजल भरा।
वापस आ कर मुझे भी तीन अन्जुरी गंगाजल दिया। वह मैंने आचमन कर और अपने ऊपर छिड़क कर अपना गंगाजल से कव्वा-स्नान सम्पन्न किया।

वापसी में मुराहू पण्डित ईंटवाँ के शैव मंदिर में ले कर गये। मुझे घर लौटने की तलब हो रही थी, पर मुराहू पण्डित जी को मैंने कम्पनी दी। मंदिर छोटा है, पर पुराना है और अच्छा लगता है। उस मंदिर की चारदीवारी बनाने की कथा भी पण्डित जी ने बतायी। ईंटवाँ के ही फलाने जी का छ क्विण्टल गांजा पकड़ा गया था। उस मामले में बरी होने पर उन फलाने जी ने यह जीर्णोद्धार कराया। गांजा वाले का भला शंकर जी न करेंगे तो कौन करेगा। और उस भक्त ने बम भोले की मनौती भी पूरी श्रद्धा से सम्पन्न की। मैं यह नहीं पूछ पाया कि इस मनौती के बाद गांजा व्यवसाय चला, फला-फूला कि नहीं। बहरहाल इलाके में इतने गंजेड़ी दिखते हैं कि उससे गंजेड़ी, गांजा व्यवसाई और पुलीस वाले – सभी बमबम होंगे। भोलेनाथ की सब पर फुल किरपा दीखती है।
पूरे रास्ते भर मुराहू पण्डित जी मुझसे बोलते बतियाते आये। मेन हाईवे पर आ कर हम दोनो ने अपना अपना रास्ता पकड़ा। मैं अपने घर की ओर चला और मुराहू पण्डित सौदा-सुलफ के लिये महराजगंज बाजार की ओर।
लॉकडाउन के दौरान, जब वे छियासी साल के रहे होंगे, मुराहू पण्डित प्रयाग में फंस गये थे। वहांंसे वापस गांव आने का कोई साधन ही नहीं था। टेक्सी-ऑटो चल ही नहीं रहे थे। वहां किसी ने अपनी पुरानी साइकिल उन्हे दे दी। एक ही दिन में नब्बे-पचानबे किमी साइकिल चला कर वे अपने गांव लौटे थे। सवेरे छ बजे चले और हंड़िया पंहुच कर पंद्रह मिनट सुस्ताये। एक पाव दही की लस्सी बना कर पी कर ऊर्जा पायी और फिर वहां से चले तो शाम चार बजे गांव पंहुच कर ही रुके।
उन्हें देख कर यह इच्छा बलवती होती है कि (कम से कम) मैं सौ साल की उम्र पाऊं। मुराहू पण्डित की तरह बीस किलोमीटर रोज साइकिल चलाता रहूं। गंगास्नान की आदत पड़े न पड़े, वहां जाना और चित्र खींचना बदस्तूर, बिलानागा जारी रहे। मुराहू उपाध्याय जी की तरह मुझे बात-रोग भले न घेरे; ब्लॉग-रोग बना रहे। पढ़ने वाले कम से कम सौ पचास लोग – उतने जितने मुराहू पण्डिज्जी को पैलगी करने वाले हैं – मुझे नित्य पढ़ते रहें। मेरे लिये दीर्घ जीवन का वही सूत्र होगा।
देखता हूं, अगले रेगुलर गंगा नहाने वाले कौन सज्जन मिलते हैं, जिनसे मिला और जिनपर लिखा जा सके।
हर हर महादेव!

मुराहु गुरुजी प्रतिदिन उगापुर मिडल स्कूल हम लोगों को पढ़ाने साइकल से जाते थे, आना जाना मिलाकर क़रीब ३० किलॉमेटर तो हो ही जाता रहा होगा।उनकी भी एक साइकल गैंग हुआ करती थी जिसमें शामिल लोग – धरमधुजा दूबे गुरुजी,बदलू मुंशी जी,श्यामसुंदर दूबे गुरुजी,रामनरेश पाल मुंशी जी और कई अन्य शामिल थे। 🙏🙏
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जय हो 🙏🏼
कभी उनसे इन लोगों की चर्चा करूंगा! 😊
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