उम्र बढ़ने के साथ साथ दीर्घ और स्वस्थ्य जीवन के बारे में आकांक्षा स्वाभाविक रूपसे बढ़ती जाती है।
ब्ल्यू जोंस की साइट पर मैं अपनी और अपनी पत्नीजी के दीर्घ जीवन की क्विज के परिणाम में पाते हैं कि हमारा और सब तो ठीक ठाक है, पर अपना लाइफ स्पॉन (और उससे भी अधिक महत्वपूर्ण, अपना हेल्थ स्पॉन) लम्बा करने के लिये हमें सामाजिक रूप से लोगों/समूहों/धार्मिक संगठनों से और जुड़ना चाहिये।

आप अपने लिये इस क्विज को भरना और परिणाम जानना चाहते हैं तो इस लिंक पर जा सकते हैं।
ब्ल्यू जोंस के डान बटनर ने विश्व भर के दीर्घ जीवी लोगों के समूहों और उनके स्थानों का अध्ययन किया है। यह नेशनल ज्योग्राफिक वाली संस्था के साथ है। उनकी दीर्घ और प्रसन्नता युक्त जीवन विषयक पुस्तकें तथा पठनीय सामग्री रोचक भी है और काम की भी। यह विशेषत: जीवन के दूसरे पारी के लोगों के लिये महत्वपूर्ण है।
कल गिरीश सिंह जी हमारे घर पर थे एक घण्टे के लिये। वे अपने गांव आये हुये हैं। नवरात्रि के दौरान उनका मन बना विध्यवासिनी देवी के दर्शन करने का। सो वे मोटर साइकिल पर अपने गांव से निकल लिये। करीब पचास किमी यात्रा कर उन्होने विंध्याचल में दर्शन किया। वहीं एक पूरी कचौरी वाली दुकान पर नाश्ता किया और लौट लिये। वापसी में जब वे मेरे गांव के समीप पंहुचे तो फोन पर मेरी उपस्थिति टटोली। यह जान कर कि मैं घर पर ही हूं, वे मिलने चले आये। … बहुत अच्छा रहा उनसे मिलना। मेरी पत्नी जी और मैं गिरीश से मिलने पर हमेशा आत्मीय प्रसन्नता से सराबोर होते रहे हैं। इस बार भी हुये।

गिरीश ने बताया कि वे पचपन के हो रहे हैं। अपना कारोबार अगली पीढ़ी को लगभग थमा दिया है। वे तभी उसमें ध्यान देते हैं, जब बेटा उनसे देखने को या सलाह देने को कहता है। अन्यथा वे अपने समय को अपने अनुसार व्यतीत कर रहे हैं। घूम रहे हैं, लोगों से मिल रहे हैं और संघ का काम कर रहे हैं। संघ अर्थात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ।
गिरीश की बातों से लगा कि संघ के लोग बहुत मिलनसार, मितव्ययी, लोगों को देखने परखने और उनकी संघ के लिये उपयोगिता तोलने में दक्ष हैं। ऐसे लोग अगर मिलते हैं तो उनसे जुड़ाव का वे एक कदम आगे बढ़ कर प्रयास करते हैं। और वे लोग, जो जुड़ना चाहते हैं पर जिनमें अपने आप को दिखाने की, अपनी राजनैतिक आकंक्षा की राजसिक वृत्ति का लेश भी होता है, उसे वे अगला दरवाजा टटोलने को इंगित करते हैं।
अरविंद आश्रम के आदरणीय माहेश्वरी जी ने एक बार एक सत्संग में कहा था कि आश्रम के लोग आपको देख परख कर अगर आपकी चोटी पकड़ लेते हैं और आजीवन आपकी चोटी छोड़ते नहीं। उनसे जुड़ाव उस स्तर का प्रगाढ़ होता है। गिरीश की बातों से लगा कि संघ के लोग भी चोटी पकड़ने पर छोड़ते नहीं! 😆
गिरीश का कार्यक्षेत्र मुम्बई और महाराष्ट्र का है। वहां के कई संघ से जुड़े लोगों के बारे में उन्होने चर्चा की। वे लोग जीवन के अनेक क्षेत्रों में – वैज्ञानिक, लेखक, व्यवसायी, शिक्षक आदि – उत्कृष्टतम लोग हैं। वे लोग सरल हैं और अपनी उपलब्धि की डींग नहीं हाँकते। वे बड़ी सहजता से मिलते हैं। उनका हास्य भी निश्छल और संक्रामक होता है। “हहाई क मिलथीं भईया ओ पचे! ( पूरी तरह अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते मिलते हैं वे भईया)” – गिरीश ने उनमें से एक दो सज्जनों के बारे में बताया।

संघ के लोगों, प्रचारकों की जैसी बात गिरीश ने की, उससे लगा कि उस प्रकार के लोगों से नियमित सम्पर्क मेरे “दीर्घ जीवन की साधना” के प्रॉजेक्ट के कमजोर सामाजिक पक्ष का सुधार सकता है; जिसकी बात ब्ल्यू जोंस के डॉन बटनर जी वाली क्विज करती है।
गिरीश के पूर्वांचल के इस इलाके के सम्पर्क सूत्र उतने सघन नहीं हैं, पर उनके अनुज हरीश – हरिशंकर सिंह – अपने गांव में रहते हुये कृषि के अपने प्रयोगों के साथ संघ की वाराणसी के आसपास की गतिविधियों से गहन जुड़े हैं। हरीश के सम्पर्क सूत्रों को टटोल कर गिरीश मेरी सामाजिकता का दायरा बनाने के लिये लोगों को तलाशने का यत्न करेंगे – ऐसा गिरीश जी ने मुझे आश्वासन दिया।
“मैं बहुत सक्रिय नहीं हो सकता। वे लोग अगर अपेक्षा अधिक करेंगे तो जमेगा नहीं।” – मैंने अपनी शंका व्यक्त की। जीवन के इस दौर में कोई मुझे सामाजिकता में बहुत ‘पेरना’ चाहे तो मेरे अंदर रस नहीं, मात्र खुज्झा ही मिलेगा। मैंने गिरीश को अपनी अंतर्मुखी प्रवृत्ति स्पष्ट की। गिरीश ने बताया – भईया, आप निश्चिंत रहें। वे लोग आपमें आपके जुड़ाव लायक चीज तलाश ही लेंगे।
संघ कितना दक्षिण पंथी है और मुझसे कितनी दांई ओर है उसकी विचारधारा – यह प्रश्न मेरे मन में विश्वविद्यालय के दिनों से उठता रहा है। पिलानी में एक साल मुझसे सीनियर काबरा जी ने मुझे संघ में कुछ ज्यादा ही लपेटने की कोशिश की थी, तो मैं अपनी लाठी, गणावेश खरीदने के बावजूद भी छिटक गया था। तब से अब तक संघ को हाशिये से ही देखता रहा हूं। अब – चार पांच दशक बाद – सामाजिकता की जरूरत महसूस होने के साथ संघ की याद आ रही है। अब गिरीश जी ने आश्वासन दिया है कि वे मेरे लिये संघ के एक ऐसे सामाजिक लपेटक की तलाश करेंगे जो मेरी वृत्ति के साथ तालमेल कर सकें। देखते हैं, क्या होता है!
अपनी विचारधारा का दक्खिन-वाम तौलना मेरा एक मानसिक व्यायाम रहा है। बहुत कुछ वैसे ही जैसे हम अपनी नेट-वर्थ की गणना हर साल या कुछ महीने में हम करते हैं; उसी तरह वाम-दक्षिण के स्केल पर अपनी स्थिति तलाशता रहता हूं। अपने आप को क्या समझता हूं, मैं ठीक ठीक पिनप्वाइण्ट नहीं कर सका। अपने आसपास गरीबी-विपन्नता और शोषण देख कर कभी कभी साम्यवादी सोच मन में जोर मारती है। पर फिर यह भी लगता है कि वे लोग अगर कुछ कर रहे होते तो विश्व की विपन्नता कम हो गयी होती। उनके उदग्र-नक्सली तौर तरीके तो कभी भाये नहीं। धुर दक्षिणपंथ से भी भय लगता है। शायद कभी थ्रू एण्ड थ्रू सोचा नहीं समाज की सोशियो-इकनॉमिक समस्याओं पर। … और साम्य-समाजवाद के वे आइकॉन – लेनिन, माओ, ग्वेवेरा, कास्त्रो आदि कभी मुझे भाये नहीं। उनकी बजाय राजा राम का आदर्शवाद और उस समय का समाजवाद ज्यादा मनमाफिक लगता है।
ऐसे मुझ जैसे व्यक्ति को संघ वाले बुद्धिजीवी कितना लपेट पायेंगे? कितना काम का समझेंगे मुझे?
संघियों को तोलने का भी मन है। कहीं पढ़ा, या सुना है कि संघी अब वाया भाजपा सत्ता मिलने के कारण वे तपस्वी संघी नहीं रहे। भाजपा का शीर्ष नेतृत्त्व भी राजसत्ता का ग्लैमर दिखा कर, उन्हें प्रोटोकॉल की, सुविधाओं की रेवड़ी बांट कर उनके बड़े काडर को हड़प रहा है। अब संघ के लोग सरसंघचालक के प्रभुत्व में कम, भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के प्रभाव में ज्यादा हो रहे हैं। … इस बात को भी तोलने का मन है।
गिरीश उस दिन घण्टा भर मिलने के बाद चले गये। उनसे बिछुड़ने का मन तो नहीं हो रहा था, पर जाना तो था ही उन्हें। हां, अब गिरीश के फोन की प्रतीक्षा है – मेरे लिये वे कोई संघी लपेटक तलाश पाये या नहीं! 😆

गिरीश जी और उनके भाई हरिशंकर सिंह के ट्विटर हेण्डल आप देख सकते हैं।
पढ़ कर बहुत अच्छा लगा |
LikeLiked by 1 person
जय हो, जय हो बंधुवर 🙏🏼
LikeLike