एक घण्टा हो गया था साइकिल चलाते हुये। जहां से गुजरा वहां अधिकतर खाली, घुमावदार सड़क थी। दोनो ओर हरियाली भरपूर थी। और तो और ठूंठ वृक्षों पर भी लतायें यूंं लिपटी थीं, मानो उन्ही से पत्तियां बनी हों पेड़ की। नहीं थी तो साफ सुथरी काम लायक चाय की दुकान, जहां पांच मिनट बैठा जा सके।
गिर्द बड़गांव से गुजरा। कस्बा नुमा गांव। सवेरे सात बज गये थे। पर अभी भी कस्बा उनींदा था। कोई दुकान खुली न थी। रुकने का निमंत्रण देती कोई चाय की चट्टी नहीं थी। मैं गुजरता चला गया।

कुनबीपुर में मचान थे। वे लोग सब्जी की गहन खेती करते हैं और रखवाली के लिये अपने खेत पर ही रहते हैं मचानों पर। सुंदर दृश्य थे। मन हो रहा था कि वहां रुक कर सूरज की सवेरे की रोशनी में कुछ चित्र लूं। उन लोगों से कुछ बातचीत करूं। या फिर यूंही उनसे करेला या नेनुआ खरीदने की पेशकश करूं। पर अभी नवरात्रि के व्रत का समय था। ये सब्जियां घर से खरीदने के लिये लिस्ट नहीं दी गयी थी। सो वहां रुका नहीं। अगले कुछ दिनों बाद वहां रुकूंगा और लोगों से मिलूंगा। अब मौसम बेहतर हो रहा है उत्तरोत्तर और रोज निकलना होगा ही।

धईकार बस्ती में लोग चहल पहल कर रहे थे। तालाब के किनारे पीपल का विशाल पेड़ निमंत्रण दे रहा था। उसे मैंने आश्वासन दिया – दो चार दिन बाद आऊंगा। धईकार लोगों से एक दो टोकनी-दऊरी भी खरीदूंगा। मौसम आ रहा है लोगों से मिलने-बोलने-बतियाने का! अक्तूबर-नवम्बर का समय होता है घूमने का, अपनी अंतर्मुखी खोल को थोड़ा ढीला करने का!
पैडल मारते मारते जब सही में थक गया तो एक पुलिया सी मिली। मुख्य नहर से निकली छोटी नाली सी थी, जिसपर पुलिया बनी थी। ग्रामीण सड़क समय के साथ डामर बिछाते बिछाते ऊंची होती गयी थी और नहर/नाली की मुण्डेर उसकी उंचाई बराबर हो गयी थी। साइकिल रोक कर वहीं बैठ गया। पैर सीधे करने के लिये।

आने जाने वालों को – जो ज्यादा नहीं थे – अजीब सा लगा मेरा व्यवहार। वेशभूषा में भी मैं कुछ अलग लगता हूं। साइकिल भी मेरी टोकरी लगी है। अपेक्षाकृत साफ रहती है और उसमें जंग नहीं लगा है। पर कुछ लोग मुझे पहचानने लगे हैं। कभी कभी नमस्कार-पैलगी भी कर लेते हैं। वैसे कम ही हैं वे। पुलिया पर बैठे वैसा कोई नहीं मिला। लोग कौतूहल से मुझे ताकते गुजर गये। एक स्कूल बस गुजरी, जिसमें बच्चे मुझे झांक रहे थे।
हल्की सर्दी, थकान और पैर सीधा करने की इच्छा। मन हुआ कि अगर पास में चाय का एक थर्मस होता – 250 मिली का छोटा थर्मस तो अकेले यूं ही सड़क निहारते हुये एक डेढ़ कप चाय पी जा सकती थी। आगे घर से निकलूंगा, तो वैसा ही करूंगा। उसकी क्या फिक्र कि लोग क्या सोचेंगे यह व्यक्ति क्या कर रहा है!

इस गांवदेहात में रहते सात साल गुजर गये। यूंही घूमने के अलावा कोई उपलब्धि नहीं है। पहले गंगा जी आकर्षित करती थीं। पर घुटने के उत्तरोत्तर बढ़ते दर्द के कारण करार से नीचे उतर कर घाट तक जाना कष्टकारक होने लगा। वहां जाना कम ही हो गया है। अब यूंही सड़कों को नापा जाता है। पर वह भी कोई कम रोचक नहीं। … मैं बेठे बैठे आसपास के खर पतवार को देखता हूं। चकवड़ के पौधे दीखते हैं। चकवड़ कम ही नजर आता है। मेरे बचपन में बहुत हुआ करता था। लोग कहते हैं कि इसकी पत्तियां पीस कर खाने से हृदय रोग में लाभ होता है।
झरबेरी और बबूल – एकासिया के झाड़ ताजा ही हैं। एक या दो मौसम पुराने। बारिश में खूब पनपे हैं। कुछ पर तो अमरबेल लिपट गयी है। अमरबेल देख कर मन होता है कि उसे उजाड़ कर झाड़ को मुक्त कर दिया जाये। पर बढ़ती उम्र के साथ साथ किस किस को मुक्त करोगे जीडी? क्या क्या बदलोगे? बेहतर है कि बस निहारो और अपने मन की हलचल लिख दो, बस।

उठ ही लिया जाये। अभी टिल्लू की दुकान से दूध खरीदना है। एक पैकेट दही भी लेना है। धीरे धीरे दिनचर्या के अंग याद आने लगते हैं। बहुत देर बैठा नहीं जा सकता। समय मुठ्ठी की रेत है। झरेगी ही। भले ही कितना कस कर मुठ्ठी बांधे रखो।
उठ कर मैं चल देता हूं। साइकिल के पैडल चलने लगते हैं। दांया और बांया पैर उठते हैं – यंत्रवत। आज का दिन की सैर भी खत्म हो रही है। एक और दिन, एक और निरुद्द्येश्य घूमना।
सच है, एक थर्मस में चाय और कुछ कप रख कर चलिये, पीजिये और पिलाइये, बतियाइये और तब सबसे साझा कर बताइये। आनन्द और क्या है जीवन में?
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हाहाहा 😁
चाय के लिये लोग इंतजार करेंगे कि आज साइकिल वाले साहब अभी गुजरे नहीं यहां से! 😊
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गाँव मे सुबह के सैर का सुंदर वर्णन |
शेयर करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद |
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धन्यवाद वर्मा जी। अकेले घूमते हुये फोटो खींचने की बजाय अगर आप कि तरह शब्द की ताकत हो या स्केच करने की क्षमता हो तो अभिव्यक्ति का आनंद दुगना हो जाये!
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