शाम को देखने के लिये एक कोना तलाशो!

सर्दियों की शाम जल्दी आती है और तेजी से ढलती है। सूरज करीब करीब दक्षिण में अस्त होते हैं। मेरे घर में हमारे लगाये पेड़ बहुत हो गये हैं और उनकी छाया इतनी होती है कि अस्ताचल को जाते सूरज को निहारना सहज नहीं है। उसके लिये जरूरी है कि आपके और ढलते सूरज के बीच कोई व्यवधान न हो। लोग इसीलिये सवेरा और सांझ देखने के लिये नदी का किनारा तलाशते हैं।

सवेरे और शाम के सूरज में ज्यादा महत्व सवेरे का है। इसीलिये गंगा किनारे के अधिकांश नगर इस तरह बसे हैं कि किनारे पर खड़े व्यक्ति को नदी के जल में से उठता सूरज दिखे। वह देखने का जुनून मुझे कई-कई-कई दिनों रहा है। प्रयाग में शिवकुटी में मैं वही करता रहा हूं। और उस सवेरे गंगा कछार के भ्रमण पर अनेक ब्लॉग पोस्टें भी हैं।

शैलेंद्र के घर से दिखती सांझ

यहाँ आजकल स्वास्थ्य नरम होने के कारण गंगा तट पर जाना नहीं हो रहा है। वैसे भी, साठ के पार की उम्र के लिये सर्दियों के मौसम में बहुत सवेरे और सांझ के समय घूमना उचित नहीं कहा गया। सो मैं अपना पैदल चलने और साइकिल चलाने का अनुष्ठान घर-परिसर में ही कर रहा हूं।

यहां गांव में मेरा और मेरे साले साहब – शैलेन्द्र दुबे का गृह-युग्म है। दोनो का घर का परिसर जोड़ लिया जाये तो एक बीघे से ज्यादा ही होगा। उस परिसर में घुमावदार तरीके से साइकिल चलाने में एक चक्कर करीब 215 मीटर का होता है। उसमें मैं पचास साठ चक्कर लगाता हूं। चक्कर लगाने में मुझे बहुत सतर्क नहीं रहना होता – कोई यातायात का भय नहीं होता। सो बड़े मजे से साइकिल चलाते हुये पुस्तक संक्षेप सुनता जाता हूं। यह करते हुये मैंने इस महीने में करीब 200 पुस्तकों की समरी सुन डाली है।

सवेरे जब घर के बाहर नहीं निकलता तो ड्राइंग/बेड रूम के लम्बे चक्कर ब्रिस्क वाक के रूप में लगाते हुये 3000 से ज्यादा कदम चलता हूं। उस चक्कर के पथ को बनाने के लिये मुझे कुछ फर्नीचर को सरकाना होता है और घर की फर्नीचर सज्जा से छेड़छाड़ मेरी पत्नीजी को नागवार गुजरती है।

सवेरे जब घर के बाहर नहीं निकलता तो ड्राइंग/बेड रूम के लम्बे चक्कर ब्रिस्क वाक के रूप में लगाते हुये 3000 से ज्यादा कदम चलता हूं। उस चक्कर के पथ को बनाने के लिये मुझे कुछ फर्नीचर को सरकाना होता है और घर की फर्नीचर सज्जा से छेड़छाड़ मेरी पत्नीजी को नागवार गुजरती है। पर उस नागवारी का जोखिम मैं उठाता हूं। … कोई भी महान कार्य कभी बिना जोखिम के हुआ है?! :lol:

उसके बाद, जब पर्याप्त गर्मी हो जाती है वातावरण में, सवेरे दस बजे के बाद, साइकिल चलाते हुये लगभग एक घण्टा व्यतीत होता है। कुल डेढ़ घण्टे का यह शारीरिक श्रम शरीर को टोन अप कर रहा है। शायद जब तक सर्दियां खतम हों, मेरा वजन कम हो कर सामान्य की श्रेणी (BMI<24) में आ जाये। विचार तो वही किया है।


पर ढलता सूरज निहारने का मोह अभी भी गहरा है। कल उसी मोह के वशीभूत मैंने एक कोना तलाशा। यह जगह शैलेंद्र के घर का पश्चिमी कोना है। धूप का आनंद लेने के लिये वहां एक पुराना तख्त रखा है जो कई मौसमों को झेलता बुढ़ा गया है। मैं शैलेंद्र के ओसारे से एक कुर्सी खींच लाया और कुर्सी पर बैठ, तख्ते पर पैर फैला कर सूरज को निहारने लगा।

धूप का आनंद लेने के लिये वहां एक पुराना तख्त रखा है जो कई मौसमों को झेलता बुढ़ा गया है। मैं शैलेंद्र के ओसारे से एक कुर्सी खींच लाया और कुर्सी पर बैठ, तख्ते पर पैर फैला कर सूरज को निहारने लगा।

शाम ढलने का समय था। आधा घण्टे में सूरज उस चारदीवारी से नीचे सरक जायेंगे। नीचे सरकने के साथ ही ठण्ड तेजी से बढ़ेगी। एक घण्टे में तो अंधेरा पसरने लगेगा। सूर्य अस्त तो अंधेरा मस्त! पर अभी तो सब सांझ की गोल्डन ऑवर की आभा में एक तिलस्मी आनंद दे रहा था। मुझे यह मलाल होने लगा कि यह जगह बैठने के लिये पहले क्यों नहीं तलाशी। अभी सर्दी के तीन महीने कम से कम और हैं, जब हर शाम यहाँ बैठा जा सकता है।

शैलेंद्र की नौकरानी आ कर मुझे देख गयी – फूफा, यहाँ कहाँ बैठे हैं? कमरे में चलिये। मैं चाय बनाती हूं।

मैंने उसे कहा कि अगर चाय बन रही है तो यहीं दे जाये। सूर्यास्त निहारते चाय पीना और भी आनंददायक होगा।

चारदीवारी पांच ईंट टूटी है। सूरज उस टूट से नीचे सरक आये हैं। मुझे बरबस रॉबर्ट फ्रॉस्ट की कविता याद आती है – प्रकृति में कुछ है जो दीवार पसंद नहीं करता। … टूटी चारदीवारी से सूरज के अलावा पुराने ट्यूब वेल की नालियाँ, चरती बकरियां, बिंदान और चमरऊट की बस्तियां दीखती हैं। खेतों से धान की फसल कट गयी है तो दूर तक दीखता है।

चाय आती है और साथ में शैलेंद्र भी। आज वे कहीं गये नहीं थे। पूरा दिन आराम करने मेंं निकाल दिया था। चाय खत्म होते होते सूरज ढल जाते हैं।

साइकिल, सुकून, शाम, शैलेंद्र की चाय और उनका साथ – यह आनंद है गांव में रहने का। डेनमार्क के लोग Hygge – ह्यूगा की बात करते हैं प्रसन्नता के संदर्भ में। डेनमार्क दुनियाँ के प्रसन्नतम देशों में है। सर्दी का मौसम, गांवदेहात की यह जिंदगी, यह भी एक प्रकार का Hygge ही तो है!

इस देसी ह्यूगा के लिये कोई देशज शब्द होना/क्वाइन किया जाना चाहिये। जिसमें जिंदगी का सरल बहाव, आनंद, सम्बंधों की ऊष्णता और सुकून सब शामिल हो। भारत जैसे विशाल देश में डेनमार्क के ह्यूगा की बात शायद न की जा सके, पर सूर्यास्त देखने के लिये कोने की तरह देश में ह्यूगा के द्वीप तो बन ही सकते हैं।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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