मैंने कुछ दिन पहले लिखा था “सूखे पत्ते बीनते बच्चे” उस समय सर्दी बहुत थी। हवा में गलन। पूरा गांव लगा था सूखे पत्ते और टहनियां/पुआल बीनने में। अब, कुछ ही दिन में सर्दी कम हो गयी है। न्यूनतम तापक्रम 7-8 डिग्री से बढ़ कर 14-15 डिग्री हो गया है। कुछ बारिश हुई है, पर उससे सर्दी बढ़ी नहीं।
सूखे पत्ते बीनते बच्चे अब काम से छुट्टी पा गये हैं। अब वे खेल में जुट गये हैं। कुछ को पतंग उड़ाते देखता हूं। कुछ साइकिल चलाते, कैंची सीखते मिलते हैं। कई खेल मुझे समझ नहीं आते जो वे खेलते हैं।

बगल के घर के बाहर कुछ बच्चे घर बना रहे थे। मैं उन्हें पहचानता हूं। उनमें से वे बच्चे हैं जिन्हें सागौन के सूखे पत्ते बीनते देखा था। अब वे दो कमरे बना चुके हैं। कुछ दूर हट कर एक और कमरा बना है। शायद वह शौचालय हो। गांव में शौचालय अलग से, थोड़ा हट कर बनता है। कमरों में दरवाजा नहीं है। पतले शीट से वे दरवाजा बनाने की कोशिश कर रहे हैं, पर बिना कब्जे के दरवाजा टिकता नहीं। फिर भी खेलने के लिये वह सब काफी रोचक है।

घण्टा भर उनके आसपास से साइकिल चलाते गुजरता हूं। वे तन्मयता से घर बनाने में लगे ही रहते हैं। दोपहर में, जब वे अपने अपने घर जा चुके हैं, तब उनके खिलौना घर का चित्र लेता हूं! चित्र में एक ग्लास में पानी भी रखा है। वे शायद मिट्टी को बतौर सीमेण्ट इस्तेमाल करते हुये अपने ‘भवन’ की चिनाई कर रहे थे। इन बच्चों में कई कुशल भवन निर्माण मिस्त्री निकलेंगे भविष्य में।
आर्टीफीशियल इण्टेलिजेंस का भविष्य कई तरह के जॉब खा जायेगा। पर बेलदार-मिस्त्री का काम शायद बचा रहे। कुशल मिस्त्री की मांग भविष्य में भी बनी रहेगी। यह खेल उन्हें भविष्य के प्रति तैयार भी कर रहा है।

बचपन में जब काम न करना हो तो खेल ही नैसर्गिक काम है बच्चों के लिये। और उन्हें देखते हुये लगा कि बहुत मन लग रहा था उनका घर बनाने में।