गांव में छ दशकों में अखबार

1960-70-80 के दौरान एक चौबे जी बनारस से सवेरे की पैसेंजर में गार्ड साहब के डिब्बे में अखबार के साथ चलते थे। रास्ते में नियत स्थानों पर घरों के पास अखबार फैंकते चलते थे। “आज” अखबार गोल कर सुतली से बांधा हुआ। निशाना लगभग अचूक होता था। उस पैसेंजर और अखबार की प्रतीक्षा में घर के बच्चे खड़े रहते थे। प्रतिस्पर्धा होती थी कि कौन उसे लोक कर घर में पंहुचायेगा।

विक्रमपुर गांव में बड़मनई पण्डित तेजबहादुर (मेरे श्वसुर जी के पिता) के यहां आता था आज अखबार। उनकी बखरी के पास कोंहराने के समीप चलती ट्रेन से अखबार उछाला करते थे चौबे जी। कटका स्टेशन से गाड़ी छूटी ही होती थी, सो स्पीड कम ही होती थी। शायद ही कभी हुआ हो कि उसकी सुतली खुल गयी हो और अखबार के पन्ने छितराये हों।

चौबे जी, शायद पास के गांव चौबेपुर के निवासी थे। बनारस से माधोसिंह के बीच अखबार पंहुचाया करते थे। सफेद धोती-कुरता-जाकिट और टोपी पहने कांग्रेसी थे वे। अस्सी के आसपास उनकी मृत्यु हुई। तब यह पैसेंजर से अखबार आने का सिलसिला थम गया।

उसके बाद तीन साल तक पण्डित तेजबहादुर के बड़े बेटे पण्डित आद्याप्रसाद औराई चीनी मिल से लौटते हुये अखबार ले कर आने लगे। लोगों को अखबार सवेरे की बजाय शाम को पढ़ने को मिलने लगा। पण्डित आद्याप्रसाद जी की जीप आने का इंतजार करते थे लोग अखबार के लिये। सारे गांव में एक ही नियमित अखबार आता था और पूरा गांव उसे पढ़ने आता था। एक दिन पुराना अखबार भी पढ़ा जाता।

पण्डित तेजबहादुर “बिलिट” (ब्लिट्ज – आर के करंजिया का हिंदी संस्करण वाला साप्ताहिक अखबार) के भी शौकीन थे। बनारस जाने वाले लोगों से विशेषत: बिलिट मंगाते थे। इसके अलावा उनके दूसरे बेटे – इंजीनियर साहब – की शादी में बड़ा, वाल्व वाला मरफी का रेडियो मिला था। जो ऑन करने पर गर्माने में समय लेता था। उसपर खबर सुनने के लिये भी आसपास के और गांव के बाहर के भी लोग जुटते थे। लोग रेडियो के गरमाने का धैर्य से इंतजार करते थे। पण्डित आद्याप्रसाद चीनी मिल के काम के साथ खेती किसानी भी मनोयोग से कराते थे। उनके पसंदीदा कार्यक्रम होते थे – रेडियो पर समाचार और कृषि दर्शन। कृषि दर्शन में तो पण्डित आद्याप्रसाद का कई बार इण्टरव्यू भी प्रसारित हुआ।

सन 1983-84 में महराजगंज कस्बे में किसी ने अखबार की एजेंसी ली। अखबार वहां से साइकिल से ले कर गांव में आने लगा हरकारा। गांव में बखरी, संत, लोटन, पांड़े और रेलवे स्टेशन पर आने लगा अखबार। शुरू में आज ही आता था एजेंसी के माध्यम से। फिर जागरण शुरू हुआ।

नब्बे के दशक में 89-90 में पण्डित शिवानंद, तेजबहादुर जी के तीसरे लड़के, बखरी छोड़ पसियान के अपने ट्यूबवेल (गांव की भाषा में टबेला) पर रहने चले आये। तब उनके पास भी अखबार आने लगा। हॉकर टबेले पर साइकिल से अखबार नहीं देता था। टबेले तक सड़क ही नहीं थी। अखबार कटका स्टेशन पर रख देता था और पण्डित शिवानंद का कोई कारिंदा – जयनाथ, सूरज या पांड़े स्टेशन से ले कर आते थे।

टबेला पर सन 1996 से पण्डित शिवानंद के बेटे शैलेंद्र (टुन्नू पण्डित) आ कर रहने लगे। तब से अब तक टुन्नू पण्डित यहीं जमे हैं। उसके बाद चार-पांच अखबार नियमित सप्लाई होने लगे। आज, जागरण, अमर उजाला, सहारा और हिंदुस्तान। सभी अखबार हिंदी के। अंगरेजी का कोई पढ़वैय्या न था। आज भी नहीं है।

सन 2015 में मेरी पत्नीजी और मैंने यहां जमीन खरीद कर गांव में रीवर्स माइग्रेशन किया। टुन्नू पण्डित के बगल में बनाया अपना घर। हमें अंगरेजी के अखबार की कमी खली। जोड़ तोड़ कर एजेंसी वाले सज्जन को मनाया गया कि एक हिंदुस्तान टाइम्स स्टेशन के पास चाय की चट्टी पर दे जाया करे उनका वाहन। बहुत रिलायबुल नहीं था यह सिस्टम। कभी कभी गाड़ी वाला अखबार देना भूल जाता था। कभी अंग्रेजी के “शौकीन” उसको चीथ डालते थे। पन्ने खुला अखबार मुझे कभी पसंद नहीं आया। घर पर हिंदी वाला अखबार आया करता था। पहले दो अखबार लिये फिर किफायत कर एक – दैनिक हिंदुस्तान – पर अपने को सेट कर लिया। यह सिलसिला पांच साल चला।

संदीप कुमार

दो साल पहले लोगों के समय पर अखबार का पैसा न अदा करने के कारण करीब 50-60 हजार का घाटा सह कर संदीप कुमार ने अखबार सप्लाई करना बंद कर दिया। अब गांव में कोई अखबार नहीं आता। जिसे लेना होता है, वह महराजगंज बाजार में जा कर ले आता है। बखरी वाले देवेंद्रनाथ जी दो अखबार मंगाते हैं। उनके छोटे भाई मन्ना दुबे अपनी मोटर साइकिल से रोज महराजगंज से ले कर आते हैं। देवेंद्रनाथ जी गांव के बुद्धिजीवी हैं। रसूख वाले भी हैं। उनके यहां अखबार आना ही चाहिये। पर अब पण्डित तेजबहादुर वाला जमाना नहीं रहा। लोगों को अखबार की दरकार नहीं है। लोगों के पास स्मार्टफोन हैं। उन्ही से खबरें, वीडियो और गेम देखते-खेलते हैं लोग।

अखबार की अब उतनी तलब नहीं रही लोगों में।

मेरे पास विकल्प है मेग्जटर का। दुनिया भर की पत्र पत्रिकायें मुझे अपने टैब/लैपटॉप पर घर बैठे मिल जाती हैं।

फिर भी, प्रिण्ट वाले अखबार के अपने लाभ हैं। प्रिण्ट में, सरसराता हुआ पन्ना पढ़ना अलग अनुभव है। किण्डल पर पुस्तकें पढ़ने वाले भी प्रिण्ट में किताब पढ़ने का मोह नहीं त्याग सकते। इसके अलावा घर में रद्दी के अलग उपयोग हैं। सो मैंने भी सोचा कि एक अखबार घर में आना ही चाहिये।

चार दिन पहले सवेरे महराजगंज बाजार में अखबार बांटते मंगल प्रसाद जी दिख गये।

चार दिन पहले सवेरे महराजगंज बाजार में अखबार बांटते मंगल प्रसाद जी दिख गये। उनसे मैंने अखबार खरीदे – हिंदुस्तान और अमर उजाला। घर में पढ़ने के बाद तय किया कि रोज दैनिक हिंदुस्तान लेने महराजगंज जाया करूंगा। इसी बहाने सवेरे छ किमी की साइकिल सैर भी हो जायेगी।

मंगल प्रसाद अपने घर पर सवेरे छ से सात के बीच अखबार देते हैं। कई लोग वहीं से ले जाते हैं। उसके बाद वे साइकिल से अखबार बांटने निकलते हैं महराजगंज बजरिया में। अगले दिन पूछते पूछते उनके घर पंहुचा। घर के सामने एक पर्दा लगा था। उसके पीछे चार पांच अखबारों की ढेरी रखे जमीन पर बिस्तर पर लेटे थे मंगल प्रसाद। बताया कि चार बजे अखबार आ जाता है। तब से वे यहीं लेटे-अधलेटे अखबार का वितरण करते हैं। सात बजे तैयार हो कर बाहर निकलते हैं।

अगले दिन पूछते पूछते मंगल प्रसाद के घर पंहुचा। घर के सामने एक पर्दा लगा था।

एक आदमी सड़क से ही मोटर साइकिल का हॉर्न बजाता है। पर्दे से झांक कर उसे पहचान मंगल प्रसाद सड़क पर आ कर उसे अखबार देते हैं और साथ में छुटपुट बातचीत भी। उन सज्जन का भाई बीमार है। इसलिये कई दिन से वह अखबार लेने नहीं आ रहा। पेट खराब है। डाक्टर ने कहा कि अगर ठीक नहीं होता तो पानी चढ़ाना होगा। एण्टीबायोटिक के अलावा पानी चढ़ाना अल्टीमेट दवा है ग्रामीण अंचल में। बीमारी की गम्भीरता इसी से आंकी जाती है कि “पांच बोतल पानी चढ़ा, तब जान बची।”

मंगल प्रसाद बताते हैं कि चौदह साल से वे अखबार की एजेंसी चला रहे हैं। उसके पहले बदल बदल कर लोग चलाते रहे। उनके पहले कोई पाठक जी चलाते थे एजेंसी। ज्यादा पहले की बात मंगल प्रसाद को नहीं मालुम।

Aचार पांच अखबारों की ढेरी रखे जमीन पर बिस्तर पर लेटे थे मंगल प्रसाद। बताया कि चार बजे अखबार आ जाता है। तब से वे यहीं लेटे-अधलेटे अखबार का वितरण करते हैं।pril0923

छ दशक में गार्ड के डिब्बे से अखबार ले कर चलते चौबे जी से आज के मंगल प्रसाद जी तक का अखबार का सफर! अब शायद स्मार्टफोन अखबार की तलब मार ही डालेगा। पर कोई ठिकाना नहीं। हिंदी के अखबारों का सर्क्युलेशन अब भी, कचरा परोसने के बावजूद भी, पांच सात परसेण्ट सालाना बढ़ ही रहा है। हो सकता है मंगल प्रसाद का बिजनेस चलता रहे। हो सकता है गांव में अखबार सप्लाई करने वाला कोई नया संदीप कुमार सामने आ जाये! शायद।

तेजी से बदलते युग में बिजनेस प्यादे की तरह नहीं ऊंट या घोड़े की तरह चलता है – तिरछा या एक बार में ढाई घर।

अखबार पुराण अभी चलेगा। मैं अभी जाया करूंगा मंगल प्रसाद के घर अखबार लेने को!

एक आदमी सड़क से ही मोटर साइकिल का हॉर्न बजाता है। पर्दे से झांक कर उसे पहचान मंगल प्रसाद सड़क पर आ कर उसे अखबार देते हैं और साथ में छुटपुट बातचीत भी।

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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